आलेख कथा आयाम

अपने अंदर के असुर को मारिए

संजय स्वतंत्र II

कोई ज्यादा दिन की बात नहीं है। एक राज्य में रैली हो रही थी और दूसरी तरह पुरुष बर्बरता की शिकार एक बच्ची लहूलुहान हालत में सड़क पर बदहवास भटक रही थी। यह एक उदाहरण भर है। देश में ऐसी घटनाएं कोई नई बात नहीं रहीं। मगर इसकी चर्चा हम शारदीय नवरात्र में इसलिए कर रहे हैं कि जिस देश में देवियों के नौ रूप को पूजा जाता हो, वहां स्त्रियों का राजनीतिक, सामाजिक और मनोवैज्ञानिक रूप से आखेट किया जाना बड़े सवाल खड़े करता है। यह आखेट कभी छल से, कभी घात लगा कर, तो कभी हिंसक रूप से उस देश किया जाता है जहां नारियों को पूजने की बात की जाती है।
स्त्रीत्व को ललकारने वाले शुंभ-निशुंभ की मनोवृत्ति के पुरुष आज हर स्थल पर उपस्थित हैं। कार्यस्थलों पर प्रताड़ना की यदा-कदा शिकायतें आती ही हैं। घरों में भी रिश्तेदारों या जान-पहचान के लोग मान-मर्दन से नहीं चूकते। विवाह या नौकरी का झांसा देकर स्त्री मर्यादा को तार-तार करने की कोशिश करने वाले पुरुषों की कमी नही हैं। राजनीति में भी दबे-छुपे तौर पर होता है। अमूमन कोई पीड़िता सामने नहीं आती तो वहां मामला दब जाता है।
देश ने पिछले दिनों जो कुछ देखा, उसे भूला जा सकता है क्या? जिस तरह पुरुषों की बर्बरता और हैवानियत देखी गई, उससे जन मानस विचलित हो उठा। पुरुषों में मर्यादा और पुरुषोत्तम का न जाने कहां लोप हो गया है। वह हर जगह शुंभ-निशुंभ बना बैठा है। वह बाजारों में, बसों-ट्रेनों में और सुनसान स्थलों पर और यहां तक कि भीड़ के बीच भी घात लगाए बैठा रहता है। जाने कितनी ही घटनाएं रोज होती हैं जिनकी रिपोर्ट दर्ज नहीं कराई जाती।
जीवन भर किसी न किसी स्त्री को सताने वाले पुरुष जब नौ दिन तक शक्ति की पूजा करते हैं तो उनका दोगलापन सामने आ जाता है। एक तरह से वे ढकोसला ही कर रहे होते हैं। ये वही लोग हैं जो मां को जगाने का आह्वान करते हैं, मगर अपने आसपास की स्त्रियों के लिए असुर बन जाते हैं। यह बड़ा सवाल है कि पुरुषों में पनपने वालीं आसुरी प्रवृत्तियों का खात्मा कैसे हो? क्या अब हमारे सांस्कृतिक और नैतिक मूल्य इतने कमजोर हो गए हैं कि हम खुद को संभाल नहीं पा रहे। या फिर कोई और वजह है? क्या इसका समाजशास्त्रीय अध्ययन होना चाहिए। या फिर अब बुनियादी तौर पर काम शुरू हो। घरों से स्कूल तक, जहां हम बच्चों को नैतिक शिक्षा के साथ स्त्रियों के सम्मान के लिए कोई पाठ पढ़ाएं।
स्त्री के रूप में हमें मां दुर्गा का साहस मिला है। महालक्ष्मी का वैभव और ऐश्वर्य भी स्त्रियों से ही आता है घरों में। एक मां के रूप में देवी सरस्वती हर बच्चे के मानस पटल हर पल उपस्थित रहती है। इसलिए किसी स्त्री का अनादर न कीजिए। वह देवी के अलग-अलग रूपों में आपके साथ जुड़ी है। इस जन्म में आपके साथ यात्रा करते हुए, आपसे रिश्ते निभाते हुए एक दिन चली जाएगी। इसके बाद वह फिर किसी रिश्ते की डोर में बंधने आएंगी- मां, बहन, पत्नी या मित्र के रुप में। उनके विविध रूपों का सम्मान कीजिए। उनको प्रणाम कीजिए।
आप भाई बनिए, पिता बनिए, दोस्त बनिए, सच्चा प्रेमी बनिए, पति बनिए या फिर आत्मीय संबल बनिए। मगर दैत्य मत बनिए। किसी भी क्षण अपने भीतर जन्म ले रहे दरिंदे को तुरंत मार डालिए। तभी इस धरती पर स्त्रियां सुरक्षित रहेंगी। इससे आपका घर भी शांत और सुंदर रहेगा। यह दुनिया खूबसूरत बनेगी। आप भी रहेंगे सुरिक्षत। स्त्रियां आप से सम्मान चाहती हैं, मगर आपको भी मान देना चाहती हैं। इस मान की लाज ही रख लीजिए।

पुरुषों में मर्यादा और पुरुषोत्तम का न जाने कहां लोप हो गया है

About the author

संजय स्वतंत्र

बिहार के बाढ़ जिले में जन्मे और बालपन से दिल्ली में पले-बढ़े संजय स्वतंत्र ने दिल्ली विश्वविद्यालय के हिंदू कॉलेज से पढ़ाई की है। स्नातकोत्तर की शिक्षा पूरी करने के बाद एमफिल को अधबीच में छोड़ वे इंडियन एक्सप्रेस समूह में शामिल हुए। समूह के प्रतिष्ठित हिंदी दैनिक जनसत्ता में प्रशिक्षु के तौर पर नौकरी शुरू की। करीब तीन दशक से हिंदी पत्रकारिता करते हुए हुए उन्होंने मीडिया को बाजार बनते और देश तथा दिल्ली की राजनीति एवं समाज को बदलते हुए देखा है। खबरों से सरोकार रखने वाले संजय अपने लेखन में सामाजिक संवेदना को बचाने और स्त्री चेतना को स्वर देने के लिए जाने जाते हैं। उनकी चर्चित द लास्ट कोच शृंखला जिंदगी का कैनवास हैं। इसके माध्यम से वे न केवल आम आदमी की जिंदगी को टटोलते हैं बल्कि मानवीय संबंधों में आ रहे बदलावों को अपनी कहानियों में बखूबी प्रस्तुत करते हैं। संजय की रचनाएं देश के सभी राष्ट्रीय और क्षेत्रीय समाचारपत्रों एवं पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी हैं।

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