पूजा त्रिपाठी II
नई दिल्ली। भारत विविधताओं से भरा देश है। अगर इसे उत्सव प्रधान देश कहा जाए तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। खुशी के सभी अवसरों को हम उत्सव के रुप में मनाते हैं। हर प्रदेश की उत्सव मनाने की परंपरा खास और अनूठी है। दशहरा भारत का एक प्रमुख त्योहार है। देश के हर कोने में किसी न किसी रूप में हर्ष और उल्लास से इसे मनाया जाता है। यह वस्तुत: शक्ति और शक्ति का समन्वय बताने वाला उत्सव है। हिंदुओं का एक प्रमुख उत्सव दशहरा आश्विन मास के शुक्ल पक्ष की दशमी तिथि को मनाया जाता है। पौराणिक ग्रंथों के अनुसार भगवान राम ने इसी दिन रावण का वध किया था। वहीं देवी दुर्गा ने नौ रात्रि और दस दिन के युद्ध के बाद महिषासुर नाम के राक्षस पर विजय प्राप्त की थी। इसलिए दशहरा बुराई पर अच्छाई की जीत के रूप में मनाया जाता है।
अलग-अलग राज्यों में दशहरा मनाने की अलग-अलग परंपरा है। बात करें कुल्लू दशहरा की तो हिमाचल में कुल्लू दशहरा विजय दशमी के दिन शुरू होता है। सात दिन तक चलने वाले इस त्योहार का इतिहास 16 वीं शताब्दी का है। कहते हैं उस समय के स्थानीय शासक जगत सिंह ने भगवान रघुनाथ की मूर्ति को अपने सिंहासन पर राज्य का राजा स्थापित किया था। इसके बाद, भगवान रघुनाथ को घाटी का शासक देवता घोषित किया गया। कुल्लू घाटी में भगवान रघुनाथ की राजा के रुप में आराधना होती है। यह दिलचस्प और अनोखा मेला कुल्लू में मनाया जाता है, जो दुनियाभर में प्रचलित है। कहते हैं कि कुल्लू दशहरे में देवताओं का मिलन होता है और उनके रथों को खींचते हुए ढोल-नगाड़ों की धुनों पर नाचते हुए लोग मेले में आते हैं।
कुल्लू दशहरे की तरह ही 600 साल पुराना इतिहास है मैसूर दशहरे का। इसे देखने के लिए देश ही नहीं विदेश से भी लोग आते हैं। इसे यहां स्थानीय भाषा में दसारा भी कहते हैं। रोशनी से नहाया मैसूर का शाही महल, फूलों से और सोने-चांदी से सजे हाथियों का काफिला देखते बनता है। छह किलोमीटर का सफर हर साल मैसूर दशहरा में दिखता है। अन्य प्रदेशों के दशहरे से अलग है मैसूर दशहरा। क्योंकि यहां न राम होते हैं और न ही रावण का पुतला जलाया जाता है। बल्कि देवी चामुंडा के राक्षस महिषासुर का वध करने पर धूमधाम से दशहरा मनाने की परंपरा है।
परंपरा है कि दशहरे के काफिले की अगुआई करने वाले हाथी की पीठ पर सोने का अम्बारी (सिंहासन) रखा जाता है। इस पर माता चामुंडेश्वरी की मूर्ति रखी होती है। भारत गणतंत्र बनने से पहले इस अम्बारी पर मैसूर के राजा बैठते थे, लेकिन भारत गणतंत्र बनने के बाद 1971 में राजशाही खत्म हो गई। तब से अम्बारी पर राजा की जगह माता चामुंडेश्वरी देवी की मूर्ति रखी जा रही है। दशहरे पर मैसूर के राजमहल में खास रोशनी की जाती है। सोने-चांदी से सजे हाथियों का काफिला 21 तोपों की सलामी के बाद मैसूर राजमहल से निकलता है। इसे देखने के लिए लोग बड़ी संख्या में आते हैं।