अश्रुत पूर्वा संवाद II
राजनीति है ही ऐसी। यह भाई-भाई में, भाई-बहन में या चाचा भतीजे में ही नहीं पति-पत्नी में भी कटुता और अविश्वास पैदा कर देती है। यह राजनीति ही है जो अपने गलियारे में स्त्रियों को बहला-फुसला कर लाती है और उनकी गरिमा तार-तार करती है। यह राजनीति ही है जो सत्ता के साथ सहवास करते हुए आर्थिक भ्रष्टाचार को जन्म देती है। पत्रकार मुकेश भारद्वाज का सद्य प्रकाशित जासूसी उपन्यास ‘नक्काश’ सत्ता के इसी चेहरे को बेनकाब करता है।
आज भारतीय राजनीति आर्थिक भ्रष्टाचार की शिकार है। दिन-प्रति-दिन इसका दायरा बढ़ रहा है। हर कदम पर आम आदमी इससे बावस्ता है। जितना बड़ा काम, उतना ही बड़ा करप्शन। कहां हुआ, कैसे हुआ, इसे देखने की फुर्सत नहीं है किसी को। पहले यह काम मीडिया करता था, मगर पत्रकार अब सुविधाजीवी हो गया है। वह अब ‘स्टेनो जर्नलिज्म’ और विज्ञप्ति पत्रकारिता कर रहा है। उधर कानून के हाथ और लंबे होने के बजाय छोटे हो गए हैं। जब तक कोई शिकायत नहीं करता, तब तक कोई कार्रवाई नहीं होती। अब शिकायत भी कौन करें? करोड़ों रुपए का लेन-देन कर रहे दोनों पक्षों को कोई दिक्कत नहीं। फिर न्यायपालिका भी क्योंकर ले संज्ञान?
‘नक्काश’ यह भारतीय राजनीति के साथ बदलते सामाजिक परिवेश से साक्षात्कार है। यह समाज में नैतिक मूल्यों के पतन और स्त्री-पुरुष के स्वार्थपूर्ण संबंधों की कहानी भी है। इसकी धुरी में एक युवा जासूस अभिमन्यु है। श्री भारद्वाज ने जेम्स बांड के बतर्ज अपना ‘देसी बांड’ गढ़ा है। वह मारधाड़ तो नहीं करता मगर अपनी रोमानियत से जेम्स बांड से कम नहीं है।
आवासीय निर्माण क्षेत्र में कुछ सालों में बड़ा उछाल आाया है। ‘नक्काश’ के लेखक ने इस क्षेत्र में कंसट्रंक्शन कंपनियों की गलाकाट प्रतियोगिता को सामने रखा है। वहीं उन्होंने आवास मंत्री के दफ्तर में चुपचाप चल रहे भ्रष्टाचार को उधेड़ कर रख दिया है। आवासीय सोसायटियां बना रहे बिल्डरों की बीते दो दशकों में चांदी हो गई है। वे किसी भी हथकंडे से अपने टेंडर पास कराना चाहते हैं। अब वे दलालों से काम नहीं कराते बल्कि स्वयं मंत्री के दफ्तर में बैठे दिखते हैं। सरकार के आवास विभाग से होते हुए फाइलें जब संबंधित मंत्री के निजी सचिव तक पहुंचती हैं तब खेल शुरू होता है। उपन्यासकार ने मंत्री के दफ्तर में चल रहे दो बड़े बिल्डरों अमृतलाल और रोहित कापड़ी के बीच तीखी प्रतिद्वंद्विता दिखाई है, वहीं भ्रष्टाचार की कलई भी खोली है।
नक्काश ने बताया है कि भारतीय समाज अपनी राह से किस तरह भटक गया है। एक ऐसा समाज जहां स्त्रियां सहजता से उपलब्ध मान ली गई हैं। शीर्ष पर बैठे लोग कुछ भी कर सकते हैं। मंत्री अपनी उम्र से आधी युवती से शादी कर सकता है। बेटी की उम्र की अपनी निजी सचिव से हमबिस्तर हो सकता है। सत्ता के करीबी लोग औरतों के जिस्म से खेलते हैं। जब मतलब निकल जाता है तब उसकी हत्या करने या कराने से नहीं चूकते। ‘नक्काश’ में दो स्त्रियों की हत्या हुई है। एक मंत्री की खास सचिव है तो दूसरी नृत्यांगना है। एक स्वयं शिकार हो रही हो दूसरी का शिकार किया जा रहा है।
जासूस अभिमन्यु को इन्हीं दो महिलाओं के कत्ल का राजफाश करना है। कौन हैं हत्यारे। इसके लिए आपको उपन्यास पढ़ना पड़ेगा। मगर इस कहानी में और भी बहुत कुछ है। मंत्री को बड़ी कुर्सी चाहिए तो बिल्डर को पैसा। स्त्री पात्रों को सत्ता की भागीदारी और विलासितापूर्ण जीवन चाहिए। मंत्री की पत्नी और बेटी सत्ता के बीच रहते हुए अपनी महत्वाकांक्षाओं को पूरा कर लेना चाहती हैं। इन दोनों के बीच मंत्री की निजी सचिव मौलश्री पिस रही है। वहीं जायरा खान जो जेएनयू में अभिमन्यु की दोस्त थी और वाम राजनीति करती थी, वही एक दिन मंत्री की विशेष कार्य अधिकारी बन जाती है। यह उसके राजनीतिक सिद्धांतों का पतन था। वह उस निजी सचिव की जगह लेती है जिसकी हत्या हुई है।
कोई दो राय नहीं कि सत्ता के केंद्र में कालिख जमा हो गई है। इसे खुरचते हुए मुकेश भारद्वाज ने बुजुर्गों में बढ़ते अकेलेपन को भी महसूस किया है। चाहे वह बुजुर्ग सरदारजी हों या मयूर विहार में रहने वाली मिसेज शर्मा। श्री भारद्वाज ने तीनों स्त्री पात्रों मौलश्री, कमल कुंदन और जायरा खान के अकेलेपन को भी सामने रखा है। अकेले रह रहे बुजुर्ग हमारे समाज के आंख-कान हैं। बुजुर्ग सरदार जी और मिसेज शर्मा की मदद के बिना हत्या के दोनों मामले सुलझाना अभिमन्यु के लिए बिल्कुल भी आसान नहीं था।
नक्काश का उद्देश्य स्पष्ट है। उन्होंने पुलिस तंत्र में कमियां दिखाई हैं वहीं पैसा और पावर के फेर में फंसे समाज को भी आईना दिखाया है। इसे देख कर आपको वितृष्णा हो सकती है, मगर इससे बचने का कोई उपाय भी नहीं।
इस कहानी का नायक अभिमन्यु जरूर है, मगर बाकी पात्रों ने भी गहरी छाप छोड़ी है। अभिमन्यु वर्तमान में जीता है, मगर जब वह अतीत में जाता है तो लेखक उसे कुछ ज्यादा ही विस्तार दे देते हैं। खास तौर से राजनीतिक घटनाक्रम को याद करते हुए। इससे लेखक बच सकते थे। जो भी हो अभिमन्यु की राजनीतिक सोच हर उस भारतीय नागरिक की भावना है जो इस उपन्यास में मुखरित हुई है। एक ईमानदार लेखक का दायित्व है कि राजनीति में आई कलुषता और उससे समाज पर पड़ रहे प्रभाव को स्पष्ट रूप से चिह्नित करे। मुकेश भारद्वाज ने यह कर्तव्य निभाया है। इसी क्रम में उन्होंने अभिमन्यु के माध्यम से कहलाया है- कितनी आसानी से सरकार नागरिकों को भेड़ों के झुंÞड में बदलने में कामयाब हो जाती है।
भाषा की कसौटी पर देखें तो मुकेश भारद्वाज ने लचीला रुख अपनाया है। उनकी भाषा बेहद प्रवाहमय है। उन्होंने बोलचाल के शब्दों का प्रयोग किया है। साथ ही पात्रों के अनुकूल अंग्रेजी शब्दों से परहेज भी नहीं किया। उनकी भाषा में रवानी इसीलिए है क्योंकि किसी शब्द को लेकर उनका पूर्वग्रह भी नहीं है। ‘नक्काश’ की एक खूबसूरती यह भी है कि बीच-बीच में शेरों-शायरी का प्रयोग पाठकों को सहज बनाए रखता है। यथा-तेरे इश्क की इंतहा चाहता हूं, मेरी सादगी देख क्या चाहता हूं।
लेखक ने अपने कथानक में सत्ता के गलियारे में लाल कालीन के नीचे जमा गंदगी दिखाई है। मुकेश भारद्वाज ने अभिमन्यु शृंखला का तीसरा उपन्यास रचते हुए संकेत दे दिया है कि वे हिंदी जासूसी लेखन में एक भारतीय जेम्स बांड तैयार कर रहे हैं जिसे ईपीडब्लू के लिए कोई पॉलिटिकल आलेख नहीं लिखना है बल्कि अभी कई गु्त्थियां सुलझानी है। दो सौ पेज में सिमटे इस उपन्यास को वाणी प्रकाशन ने छापा है। मूल्य सवा तीन सौ रुपए है।
सत्ता के चेहरे को बेनकाब किया मुकेश भारद्वाज ने