अजय कुमार II
उसने कहा
मुझ पर एक कविता लिखो
मैंने कहा पहले
अपने बेरहम ख्वाबों की ऊंची
नीली छत से सुरक्षित नीचे उतरो
छत भी कैसी
शुष्क सफेद बादलों में गुम
मेरी हर आवाज से
हर फरियाद से आगे
और जहां सुकून की हवा भी है कम कम
शब्दों से नहीं
उनके बीच के अन्तराल से
निकल कर बहती है एक कविता
अर्थ से भी अर्थवान जगह पर
चुप निशब्द रहती है एक कविता
एक गन्ध सी
एक रात के तट से लगी नाव सी
एक ठंड़ी हवा पर
रूकी जमी सी
है ये व्यथा की कथा सी
मेरी तुमको सम्बोधित कविता
फुरसत से
खामोशी के कपड़े पहने
मेरी इस कविता को कभी
अपनी मन की आंखों से पढ़ो
और फिर कैसी लगी
मेरी तुझ पर लिखी कविता
सिर्फ अपनी निगाहों से कहो
मैं जहां भी रूका हूं
तुम्हारे साथ और आगे भी चलूंगा
अपना अक्स ढूंढ लो
मेरी इस कविता में
फिर आगे कुछ….और कहूंगा…..
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