कविता

मैं पिता हो जाना चाहता हूं

संजय स्वतंत्र II

तुम्हारे लिए अब
पिता हो जाना चाहता हूं,
जिसकी अंगुलियां पकड़
चल सको कहीं भी
और मैं-
थपथपा सकूं तुम्हारी पीठ
बढ़ा सकूं तुम्हारा हौसला।
मिलूं किसी चौराहे पर
तो पकड़ कर मेरा हाथ
ले जा सको अपने घर,
मिला सको गर्व से
अपनी मासूम आांखें।
हां……पिता बनना चाहता हूं,
जिससे तुम जब चाहो
कर सको झोली-सी जिद
किसी खिलौने की दुकान
के सामने रुक कर
प्यारी-सी गुड़िया खरीदने की।
जब कभी तुम्हारी पीठ
या कंधे पर धर दूं हाथ
तो समझ लेना कि
मैं पिता हो गया हूं।
वक्त के थपेड़ों से
रुखे हो गए गालों पर
फेरूं कभी हथेलियां
या फिर लोक लूं
ढलकते तुम्हारे आंसुओं को,
उस पल भी देख सकती हो
अपने पिता को जो
अनंत यात्रा के बाद
चले आए हैं तुमसे मिलने।
वे नहीं देखना चाहते
तुम्हारी कभी भी पराजय।
मैं चाहता हूं कि
किसी स्टेशनरी की दुकान पर
ले जाऊं तुम्हें और
दिलाऊं रंग-बिरंगी पेंसिलें,
जिससे सजा सको तुम
अपने लिए सात रंग के सपने,
उन एक सपने में आऊं
पिता की तरह दबे पांव।
दिलाऊं तुम्हें एक इरेजर भी
जिससे मिटा सको तुम
राह की सभी बाधाएं
क्योंकि देखना चाहता हूं
तुम्हें बढ़ते हुए निर्बाध।
मैं तुम्हारे लिए
बन जाना चाहता हूं मां,
जिसके गले लग कर
साझा कर सको सभी दुख,
पा सको थोड़ा-सा दुलार,
बहा सको वह नदी,
जो तुम्हारे मन के
किसी कोने में
बहती रहती है।
जैसे मां देती है
बांध कर मिठाई
ठीक वैसे ही-
मैं देना चाहता हूं सौगात
तुम्हें हर सफर में।
मैं प्रेमी हूं न मित्र,
बनना चाहता हूं सखा
क्योंकि मित्र साथ रहे
यह जरूरी नहीं,
पर मन की यात्रा में
सखा हमेशा संग चलता है,
ठोकर खाकर न गिरे
इसलिए पकड़े रहता है हाथ।
सच कहूं तो तुम्हारे प्रेम में
जीता हूं कई रूप।

About the author

संजय स्वतंत्र

बिहार के बाढ़ जिले में जन्मे और बालपन से दिल्ली में पले-बढ़े संजय स्वतंत्र ने दिल्ली विश्वविद्यालय के हिंदू कॉलेज से पढ़ाई की है। स्नातकोत्तर की शिक्षा पूरी करने के बाद एमफिल को अधबीच में छोड़ वे इंडियन एक्सप्रेस समूह में शामिल हुए। समूह के प्रतिष्ठित हिंदी दैनिक जनसत्ता में प्रशिक्षु के तौर पर नौकरी शुरू की। करीब तीन दशक से हिंदी पत्रकारिता करते हुए हुए उन्होंने मीडिया को बाजार बनते और देश तथा दिल्ली की राजनीति एवं समाज को बदलते हुए देखा है। खबरों से सरोकार रखने वाले संजय अपने लेखन में सामाजिक संवेदना को बचाने और स्त्री चेतना को स्वर देने के लिए जाने जाते हैं। उनकी चर्चित द लास्ट कोच शृंखला जिंदगी का कैनवास हैं। इसके माध्यम से वे न केवल आम आदमी की जिंदगी को टटोलते हैं बल्कि मानवीय संबंधों में आ रहे बदलावों को अपनी कहानियों में बखूबी प्रस्तुत करते हैं। संजय की रचनाएं देश के सभी राष्ट्रीय और क्षेत्रीय समाचारपत्रों एवं पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी हैं।

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