कथा आयाम कहानी

द लास्ट कोच

संजय स्वतंत्र ||

किसी की मुस्कुराहटों पे हो निसार…

लंबे अंतराल के बाद दिल्ली मेट्रो में मेरी पहली यात्रा है। लोगों की जिंदगियों से कुछ रंग चुराने निकला हूं। चाहे वह उदासी के हों या उमंग की, प्रेम की हों या बिछोह की। लास्ट कोच में बैठे हुए दोस्तों की कविताएं पढ़ रहा हूं। अचानक मेरी निगाह मित्र डॉ.अपूर्वा की पोस्ट पर पड़ी है। उनकी क्लीनिक के सभी कर्मचारी चले गए हैं। वे अपने मरीजों की रिपोर्ट देख रही हैं। तभी दरवाजे पर घंटी बजी है। वे सोचने लगीं कि इस वक्त कौन आया होगा भला। तभी वहां कोई व्यक्ति फूलों के गुलदस्ते के साथ एक कूरियर छोड़ गया है। यह डॉक्टर साहिबा के लिए है। वे सोचने लगींं कि वैलेंटाइन डे तो खत्म हो गया, अब इसे किसने भेजा होगा…?
अपूर्वा ने लिखा है- गुलदस्ते के साथ उनकी एक मरीज का लिखा यह धन्यवाद पत्र है। दरअसल, उनके एक खास मित्र की मां का फोन आया था। वे बता रही थीं कि उनकी नौकरानी की बेटी को सीने में दर्द और खांसी है। साथ ही कांख में सूजन, कमजोरी और थकान है। वजन भी घट रहा है। यह चिंता की बात थी। उन्होंने लड़की को बुला कर कर तमाम टेस्ट किए। पता चला कि उसे कैंसर का ही एक रूप होजकिंस लिम्फोमा है। कैंसर का नाम सुन कर वह सहम गई। इस शब्द ने उसे झकझोर कर रख दिया। वह लड़की काम के लिए दूर देश से आई है। इलाज कराने के लिए पैसे नहीं। अपूर्वा केएक खास मित्र की अम्मी ने कहा कि फीस में कुछ छूट दे दूं और वे इलाज का सारा खर्च उठाएंगी। धर्मार्थ कार्यों में हमेशा आगे रहने वालीं अपूर्वा ने उनसे कहा, फीस के बारे में आपको जरा भी सोचने की जरूरत नहीं। वे लिखती हैं- मैंने इस लड़की का इलाज किया और ईश्वर ने उसे ठीक कर दिया। अब वह कैंसर मुक्त है। जब उसे बताया गया कि वह अब रोग से मुक्त है तो इसकी आंखों में आंसू आ गए।
उधर मेट्रो कोच में उद्घोषणा हो रही है-अगला स्टेशन विश्वविद्यालय है। दरवाजे बायीं ओर खुलेंगे। इस समय विख्यात जन स्वास्थ्य चिकित्सक डॉ. एके अरुण की हालिया प्रकाशित किताब- कैंसर को समझना क्यों जरूरी है, मेरे हाथ में हैं। इसे इन दिनों पढ़ रहा हूं। इसकी चर्चा बाद में। फिलहाल अपूर्वा की पोस्ट ने भावुक कर दिया है। वे लिखती हैं-वे हमेशा उन दुआओं को याद किया करती हैं जो उनकी अम्मी गुनगुनाया करती हैं-

वो सुनता सब की, दुआ कर के तो देखो
तुम अपना नसीबा आजमा कर तो देखो,
सियाही गुनाहों की धुल जाए दिल से,
तुम आंखों से आंसू बहा कर तो देखो

वे लिखती हैं… तो वह फूलों का गुलदस्ता था धन्यवाद देने के लिए। इन पंक्तियों के साथ कि जो अपना दौलत दिन और रात चुपचाप या खुल कर लोक कल्याण के लिए खर्च करते हैं, उनके लिए रब के पास इनाम है। ऐसे लोग न कभी दुखी होंगे और न ही किसी बात का उन्हें डर होगा। जाहिर है ऐसे लोगों के साथ हमेशा ईश्वर रहते हैं। मैं डॉ अपूर्वा के लिखे शब्दों को नम आंखों से पढ़ रहा हूं- वे लिख रही हैं- चलिए अब मैं बता दूं कि मैंने अपनी मरीज को अपना बिल भेज दिया है। यह बिल है- एक कटोरी शीर खुरमा।
सचमुच यह नेक काम सिर्फ बड़े दिल के लोग ही कर सकते हैं। उन्हें मैंने संदेश भेजा है-बेहद ही गरीब और कैंसर पीड़ित मरीज का इलाज कर के आपने साबित कर दिया कि मां तो इस धरती पर ईश्वर है ही, डॉक्टर भी भगवान ही होते हैं जो फीस की चिंता किए बगैर अपने चंद मरीजों से कुछ भी लिए बिना उन्हें रोगमुक्त कर देते हैं। इस पर अपूर्वा का जवाब है- शुक्रिया संजय जी, मगर हम डॉक्टर तो सिर्फ अपना कर्तव्य निभाते हैं। बाकी सब कुछ तो उस सर्वोच्च शक्ति के हाथ में है। जिसे लोग इस शक्ति को भगवान, ईसा मसीह, अल्लाह और वाहेगुरु कहते हैं।
….तो इस तरह अपने अच्छे कर्मों का श्रेय इस युवा डॉक्टर ने दे दिया है। मैंने उन्हें बताया कि मैं आप के इस कार्य के बारे में लिख रहा हूं। ताकि लोगों को जागरूक कर सकूं। सबके चेहरे पर मुस्कान ला सकूं। अगर हम सबके चेहरे पर मुस्कुराहट ले आएं तो यह दुनिया और भी खूबसूरत हो सकती है। वे कह रही हैं- ये मेरा छोटा सा योगदान है मानवता के प्रति। ये बड़ी बात है कि आप लोगों को जागरूक कर रहे हैं। लेखकों का दायित्व बड़ा है। और अब ये और बढ़ गया है। उन्होंने मेरा उत्साह बढ़ाया।
उधर, उद्घोषणा हो रही है अगला स्टेशन कश्मीरी गेट है। दरवाजे बायीं ओर खुलेंगे। मैं डॉ अरुण जी की किताब के पन्ने पलट रहा हूं। कुछ पलों में मेट्रो प्लेटफार्म पर खड़ी हो गई है। दरवाजे खुल गए हैं। यात्री उतर रहे हैं। मैं सोच रहा हूं यह जिंदगी भी एक यात्रा है। एक दिन सब साथ छोड़ जाएंगे। साथ जाएगी तो सिर्फ अच्छे कर्मों की पोटली। ….. मेट्रो फिर चल पड़ी है। कुछ पुरानी यादों की तस्वीर आंखों के आगे तैरने लगी है।
… वह ढाई दशक से मेरे साथ था। एक दिन पाया कि वो लंबी छुट्टी पर है। छुट्टी की अर्जी के साथ एक बड़े अस्पताल की पर्ची साथ लगी हुई थी। मैंने उसे फोन किया, मगर उसने बात नहीं की। घर वालों ने बताया कि वे बीमार हैं। बात नहीं कर सकते। …कई दिन, कई महीने गुजर गए। आखिर उसी का संदेश आया-कहां हो मित्र। मैंने कहा, यही तो हूं। …तुम न जाने किस जहां में खो गए, मैंने गुनगुनाते हुए कहा। वह कुछ देर खामोश रहा। फिर उसने मैसेज टाइप किया-किसी दिन मिलते हैं यार।
इस संवाद के बाद भी कई दिन बीत गए। मेरा जिगरी दोस्त। बरसों दुख-सुख बांटने वाला साथी सचमुच गुम हो गया था। अलबत्ता, उसकी खैर-खबर लगती रही। उसने दफ्तर आना बंद कर दिया। कोई बताने को तैयार नहीं था कि उसे हुआ क्या है? और उसने इतनी लंबी छुट्टी क्यों ली है। मगर एक दिन उसकी छुट्टियों की अर्जी के साथ नत्थी अस्पताल की दूसरी पर्ची देखने पर पता चला कि वह कीमोथेरेपी करा रहा है। यानी उसे कैंसर हो गया था। मालूम हुआ कि यह गले का कैंसर है और पहले चरण में है। यह राहत की बात थी कि विशेषज्ञ उसका मर्ज पकड़ चुके थे और एक छोटी सर्जरी के बाद अचूक दवाइयां उसे दे रहे थे। वह धीरे-धीरे ठीक हो रहा था। डाक्टरों ने उसे बात न करने की सलाह दी थी।
एक दिन फिर मैसेज आया, यार बहुत दिन हो गए तुमसे मिले। किसी दिन मिलो न। मैंने कहा- जरूर मित्र। वह दक्षिण दिल्ली स्थित एक विख्यात अस्पताल में अपना इलाज करवाने जाता था। अकसर राजीव चौक से वह मेट्रो बदलता था। उसने कहा-एक दिन वह मिलेगा। मुझे याद आ रही रही वह भावुक मुलाकात। ….. इस बीच सदर बाजार, चांदनी चौक और नई दिल्ली स्टेशन निकल चुके हैं। मेट्रो अपनी रफ्तार से भागी जा रही है। उद्घोषणा हो रही है-अगला स्टेशन राजीव चौक है। दरवाजे दायीं ओर खुलेंगे। मैं सीट से उठ गया हूं। गाड़ी प्लेटफार्म पर लग गई है। मैं कोच से बाहर निकल रहा हूं। सामने सीढ़ियों के नीचे स्टील से बनी बेंच दिख रही है। यही वह जगह है जहां हम दोनों मित्र अरसे बाद मिले। खादी का कुर्ता और जींस पहने मेरा यार बहुत कमजोर दिख रहा था। कंधे पर लटके झोले से उसने कलम और डायरी निकाली। फिर इशारे से बेंच पर बैठने के लिए कहा। मैं उसके बगल में बैठ गया। वह डायरी खोल कर अपना हाल लिखने लगा। मैं उसे पढ़ कर मन ही मन रोने लगा। उसने लिखा, रोते क्यों हो। यह दुनिया तो मेला है। कुछ दिन अपन इस मेले में रहेंगे। दफ्तर कुछ महीने बाद आऊंगा। कुछ पूछना हो तो लिखकर पूछो। मैं डायरी पर लिख कर सवाल करता रहा। वह जवाब देता रहा। मेरी पलकों से आंसू टपकते रहे। देर तक यह सिलसिला चलता रहा। कुछ देर बाद उसने कहा कि अब मुझे चलना चाहिए। त•ाी साकेत की ओर जा रही मेट्रो आ गई। वह उठ गया। उसने अलविदा में हाथ हिलाया और कोच में जाकर बैठ गया।
जाती हुई मेट्रो को दूर तक मैं उस दिन देखता रहा। वह चला गया अपना इलाज करवाने। … आज उस बेंच को निहारते हुए मैं सीढ़ियां चढ़ रहा हूं प्लेटफार्म नंबर तीन पर जाने के लिए। मेरे एक हाथ में बैग है तो दूसरे हाथ में डॉ. अरुण की पुस्तक। … नोएडा वाली मेट्रो के आने की उद्घोषणा हो रही है। कुछ सेकेंड के इंतजार के बाद मैं उसके आखिरी कोच में सवार हो रहा हूं। हमेशा की तरह कोने की सीट पर बैठ गया हूं। अरुण जी की किताब पढ़ रहा हूं। उन्होंने लिखा है-आधुनिक जीवन शैली, बढ़ता प्रदूषण, बदलते खान पान आदि कारणों से कैंसर के मामले बढ़ रहे हैं। 1990 में 81 लाख कैंसर मरीजों का पता चला था जबकि साल 2000 में इनकी संख्या बढ़ कर 101 लाख हो गई थी। वही आंकड़ा अब एक करोड़ 35 लाख पार कर चुका है। भारत में हर साल पांच लाख नए रोगियों का पता चलता है। अनुमान है कि हर साल इस रोग के कारण करीब तीन लाख रोगियों की मौत हो जाती है।
इस आंकड़े को पढ़ कर मन भारी हो गया है। आगे हिम्मत नहीं हो रही है पढ़ने की। अलबत्ता उन्होंने कैंसर का दुष्प्रभाव, लक्षण, मस्तिष्क पर प्रभाव, कैंसर के तमाम प्रकारों के बारे में विस्तार से जानकारी देने के साथ उनसे बचने के उपाय से लेकर, उचित आहार और उपचार के बारे में •ाी लिखा है। मगर मेरी रुचि यह जानने में है कि प्रकृति हमें कैसे इस रोग से बचा सकती है। इस बारे में •ाी उन्होंने बताया है। वे लिखते हैं-उपचार के नाम पर महंगी दवा और शरीर की विकृति के अलावा बस एक उम्मीद बची रहती है। मगर यह निराशावादी वक्तव्य नहीं है। उदाहरण के लिए राष्ट्रीय कैंसर संस्थान अमेरिका का यह अध्ययन देखिए। महंगे उपचार के बाद सामान्यत: पांच साल तक जिंदा रहने की संभावना है। तो जितनी संभावना एलोपैथी के उपचार में है, उतनी ही संभावना होम्योपैथी में है। इससे शरीर की स्थिति सामान्य रहती है। मरीज लंबे समय तक सहजता से जीवन जी लेता है।
किताब को पढ़ने के क्रम में कई स्टेशन निकल चुके हैं। इस समय अक्षरधाम स्टेशन से आगे निकल गया हूं। कोच के शीशे से भव्य मंदिर दिखाई दे रहा है। मैंने मन ही मन उस सर्वोच्च सत्ता को नमन किया, जिससे यह दुनिया और अरबों मनुष्यों की जिंदगी चल रही है। ….अरुण जी लिखते हैं-अंग्रेजी चिकित्सा पद्धति से उपचार की तुलना में होम्योपैथिक उपचार न केवल सस्ती है बल्कि अंग्रेजी दवाओं के दुष्प्रभाव और रेडिएशन की विकृति से भी शरीर बचा रह रहता है। मेरे निजी अनुभव में होम्योपैथिक उपचार से कैंसर के मरीज शारीरिक, मानसिक और आर्थिक स्तर पर कहीं ज्यादा सुकून से जीते हैं।
… कोच में उद्घोषणा हो रही है-अगला स्टेशन न्यू अशोक नगर है। दरवाजे बायी ओर खुलेंगे। मैं सीट से उठ रहा हूं। अकसर मैं इस स्टेशन पर उतर जाता हूं। मेट्रो प्लेटफार्म पर पहुंच रही है। मैं सीट से उठ गया हूं। सीढ़ियों से होते हुए मैं स्टेशन परिसर से बाहर निकल रहा हूं। सामने कुछ रिक्शे वाले खड़े हैं। ये सब मुझे जानते है। सब बुला रहे हैं-बाबू जी…बाबू जी। चलिए हम आपको छोड़ देते हैं। मैं उनसे उनका हाल-चाल पूछ रहा हूं। वे बता रहे हैं कि मेट्रो बंद होने से उन्हें सवारी कम मिलती थी। अब हालत कुछ ठीक हुई है। मैं अपने बैग से बिस्कुट के कुछ पैकेट निकाल कर उन्हें दे रहा हूं। उनमें से एक दौड़ कर सामने बैठे चाय वाले के पास चला गया है। उस चाय वाले के छोटे से स्टाल पर रखे ट्रांजिस्टर पर संयोग से यह गीत बज रहा है-

किसी की मुस्कुराहटों पे हो निसार
किसी का दर्द मिल सके तो ले उधार
किसी के वास्ते हो तेरे दिल में प्यार
जीना इसी का नाम है…।

यह सुन कर सब के चेहरे खिल उठे हैं। सोच रहा हूं कि अगर हम अपने में जीवन किसी एक चेहरे पर भी मुस्कान ले आएं, तो हमारा जीना सार्थक हो जाएगा। चलिए आज से ही यह कोशिश करते हैं।

About the author

संजय स्वतंत्र

बिहार के बाढ़ जिले में जन्मे और बालपन से दिल्ली में पले-बढ़े संजय स्वतंत्र ने दिल्ली विश्वविद्यालय के हिंदू कॉलेज से पढ़ाई की है। स्नातकोत्तर की शिक्षा पूरी करने के बाद एमफिल को अधबीच में छोड़ वे इंडियन एक्सप्रेस समूह में शामिल हुए। समूह के प्रतिष्ठित हिंदी दैनिक जनसत्ता में प्रशिक्षु के तौर पर नौकरी शुरू की। करीब तीन दशक से हिंदी पत्रकारिता करते हुए हुए उन्होंने मीडिया को बाजार बनते और देश तथा दिल्ली की राजनीति एवं समाज को बदलते हुए देखा है। खबरों से सरोकार रखने वाले संजय अपने लेखन में सामाजिक संवेदना को बचाने और स्त्री चेतना को स्वर देने के लिए जाने जाते हैं। उनकी चर्चित द लास्ट कोच शृंखला जिंदगी का कैनवास हैं। इसके माध्यम से वे न केवल आम आदमी की जिंदगी को टटोलते हैं बल्कि मानवीय संबंधों में आ रहे बदलावों को अपनी कहानियों में बखूबी प्रस्तुत करते हैं। संजय की रचनाएं देश के सभी राष्ट्रीय और क्षेत्रीय समाचारपत्रों एवं पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी हैं।

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