राजगोपाल वर्मा II
दूसरी अश्वसेना ब्रिगेड की तीसरे सेक्शन के तोपची जेम्स मैकेएलराय के शब्दों में,
”दस मई 1857 की सायंकाल मैं मेरठ के सदर बाज़ार में था. वहाँ शाम को लगभग पाँच या छह बजे के बीच मैंने देखा कि कुछ लोग कोतवाली की ओर दौड़े. तीसरी अश्वसेना का एक सवार जिसकी बांहों में दो फीतियाँ लगी थीं मेरी ओर आया और बोला, ‘जल्दी करो’. मैं मुड़ा, किन्तु देसी लोगों की भीड़ मुझ पर झपटी. मुझे लाठी और पत्थर मार मारकर गिरा दिया. फिर वे दूसरों की ओर दौड़े. मैं उठा और भागा. अभी मैं पान शॉप के पास पहुँचा ही था कि मेरे माथे पर शायद तलवार या कुल्हाड़े से वार किया गया. मैं मूर्छित हो गया. इसके बाद मेरे साथियों ने मुझे अस्पताल पहुँचाया.”
सूर्यास्त के समय क्रांति की ज्वाला चरम पर जा पहुँची था। यहाँ कस्टम हाउस जला दिया गया था, छावनी में बंगलों को आग के हवाले कर दिया गया था। सैकड़ों स्थानीय जवानों के हाथों में बंदूकें थीं और वह अंग्रेजी कैद से लोगों को छुड़ाकर लौट रहे थे। ऐलान हो रहा था कि यह जंग धर्म के कारण है, देश के कारण है, जिसे आना है वह साथ आए। विद्रोहियों की संख्या बढ़़ती चली गई, असीमित। हर तरफ से लोग आ रहे थे। हुकूमत के हथियार, तोप और गोलों का खौफ किसी को नहीं रह गया था।
ईस्ट इण्डिया कंपनी के जिन अधिकारियों को उन्मादी भीड़ ने सजा दे दी थी उनमें कर्नल फिनिस और फिलिप्स थे, तो डॉ क्रिस्टी, कप्तान क्रेवी, लेफ्टिनेंट हंडरसन, लेफ्टिनेंट पंक भी थे और एक थे लेफ्टिनेंट हंपलर।
शहर के विभिन्न इलाकों में ‘इन्कलाब जिंदाबाद’, ‘अल्लाह-ओ-अकबर’ और ‘हर हर महादेव के नारों का स्वर ऊँचा होता जा रहा था। दुकानें बंद हो रही थीं, और लोगों की भीड़ बढ़ रही थी। लोग बेपरवाह होकर सदर कोतवाली की तरफ जा रहे थे। हजारों लोग इकट्ठे हो चले थे,न धूप की परवाह थी, और न भूख-प्यास की,लू का समय था यह, पर लोगों का जज्बा जुनून में बदल गया था।
सरकार भी जैसे अचानक नींद से जाग उठी थी। अब जगह-जगह मुनादियाँ हो रही थी,
”लोगों का इकट्ठा होना गैर-कानूनी है। सब लोग अपने-अपने घर जाएँ। बिना कारण इकट्ठे होने पर गिरफ्तार किये जा सकते हैंङ्घ हुकुम सरकार का।”
पर ऐसी मुनादियाँ ज्यादा देर तक नहीं चल सकी। एक तो वो आवाजें नक्कारखाने में तूती की आवाज मानिंद थी, दूसरे, आस-पास से उमड़ रही भीड़ ने मुनादी करने वालों को मार-मार कर अधमरा कर दिया था। मुअज्जिज लोगों ने बचाव कर कई मुनादी करने वाले लोगों की जानें बचाई। अभी भी जिसे देखो सदर कोतवाली की ओर बढ़ा जा रहा था।
भीड़ जब कोतवाली के पास इकट्ठा होने लगी तो अपनी सशस्त्र सिपाहियों की घुड़सवार टुकड़ी के साए में घोड़े पर सवार होकर शहर कोतवाल धनसिंह गुर्जर वहाँ पहुँचा. उसने कहा,
”राम-राम भाइयों”
भीड़ से हुंकारा लगा,
”राम-राम।”
”बोलो, क्या चाहते हो आप लोग?”
तो आवाजें आईं,
”अपने भाइयों के साथ न्याय हो”, ”फौजियों को आजाद किया जाए”, ”सम्मान की बहाली हो। ” और ”मारो फिरंगियों को। ”
धनसिंह ने संकेत से उत्तेजित भीड़ को धैर्य रखने को कहा, और अपना नारा दिया,
”कोई न बचने पाए, मारो फिरंगियों को। जय हनुमान, जय बजरंगबली.”
यही तो जन भावना थी। इस भीड़ ने कोतवाल के एक नारे ”जय हनुमान” का साथ थाम लिया। इन नारों ने इस बढ़ती अग्नि में ज्वाला का रूप धारण करने का काम किया था। बारम्बार ‘जय हनुमान’ के गगनभेदी नारों से इलाका गूँज उठा। धनसिंह गुर्जर ने अब विलम्ब नहीं किया। उसने नेतृत्व सँभाला। जो पुलिस बल उसकी अगुआई में ब्रिटिश हुकूमत को सुरक्षा करने के दायित्व से बंधा था, उसने अपने कोतवाल के एक हुंकारे पर गुलामी का आवरण उतार फेंका था। वे उसके पीछे-पीछे चल पड़े थे।
जब मालूम हुआ कि उन सैनिकों को कोतवाली में नहीं, जेल में रखा गया है तो भीड़ का रुख जिला जेल की तरफ हो लिया। नेताविहीन भीड़ को शहर कोतवाल के रूप में एक नेता मिल गया था।
शाम पाँच बजे गिरजाघर का घंटा बजा था। साढ़े छह बजे के करीब अपमानित सैनिकों के साथियों ने अपने इन बहादुर पिचासी सैनिकों को जेल से मुक्त करा लिया था। जो अफसर बीच में आए, उनकी जम कर पिटाई हुई।
भीड़ के एक नेता ने डिप्टी जेलर को सलाह दी।
”बीच में आओगे तो इन फिरंगियों के साथी कहलाओगेङ्घ और फिर यह भीड़ देख रहे हो न? ये जुनूनी लोग हैं। ये अपना-पराया नहीं देखते, इन्हें सिर्फ इन फिरंगियों से मुक्ति चाहिए, जिन्होंने हमें अपने देश में ही गुलाम बना कर रख दिया हैङ्घ दोयम दर्जे का नागरिक! बेहतर हो सम्भल जाओ।”
तभी एक पत्थर आया और जेलर की बांह को चोटिल कर गया। अगर वही पत्थर दो इंच नजदीक उसके सिर पर लगता तो उसकी जान जानी निश्चित थी। अफरा-तफरी में यह भी नहीं कहा जा सकता था कि कहीं किसी ने आक्रोश व्यक्त करने के लिए ही तो यह पत्थरबाजी नहीं कर दी हो।
उधर इसी जेल परिसर में, इस उन्मादी भीड़ ने अंग्रेज जेल अधीक्षक की पीट-पीट कर हत्या कर दी थी , क्योंकि उसने लोगों की धार्मिक भावनाओं पर कोई टिप्पणी कर दी थी।
अब जेलर को ढूँढा गया था, वह नहीं मिला तो उसके घर को आग लगा दी गई. अन्य अंग्रेज अफसरों की तलाश करते हुए उनके सरकारी बंगलों को जलाया गया। ब्रिटिश सेना के प्रतीक के रूप में स्थापित सरकारी इमारतों-बंगलों को हिंसा, लूटपाट और आगजनी का शिकार बनाया गया।
जेल से कुल 839 कैदियों को आजाद कराया। उन 85 सैनिकों की हथकड़ी व बेड़ियां कटवाकर मुक्त कराया गया, जो ईस्ट इंडिया कंपनी के अपमानजनक आदेश का शिकार बन जेल भेज दिए गये थे। वे भी मुक्त होकर स्वतंत्रता सेनानियों के इस दल के साथ मिल गए और अंग्रेेजों की इस जेल की ईंट से ईंट बजा दी गई। वहाँ से यह भीड़ मेरठ शहर और सिविल लाइन में घुस गई और अंग्रेज अधिकारियों के बंगलों को आग लगाना और उन्हें मारना शुरू कर दिया। बंगले धू-धू कर जलने लगे। बहुत से ब्रिटिश मूल के अधिकारियों को मार डाला गया। जो बच गये उन्हें अपने मित्रों और परिचितों के यहाँ जाकर छिपना पड़ा। देखते ही देखते मेरठ छावनी और शहर में अंग्रेजी राज का आतंक व सिक्का समाप्त प्राय: हो गया था।
आन्दोलनकारियों को सहूलियत यह हुई थी कि कुछ ही घंटों में उन्हें एक नेता मिल गया था। उनके बीच से उपजा, और अभी तक ब्रिटिश हुक़ूमत का चेहरा रहा यह नेता था मेरठ शहर का कोतवाल धनसिंह। दरअसल, धनसिंह पुलिस की नौकरी में जरूर था, पर दिलो-दिमाग से वह राष्ट्रवादी था। वह भी इन गोरे हुक्मरानों के अत्याचारों को देख-देख कर आक्रोशित होता रहा था। हुक़ूमत भी जानती थी कि धनसिंह पर एक सीमा से अधिक विश्वास नहीं किया जा सकता, पर उनकी मज़बूरी थी। मेरठ का कलेक्टर और वहाँ का कोतवाल, आज की तारीख में दोनों ही कार्यवाहक थे। ऐसे में धनसिंह को फिलहाल बिना स्पष्ट कारण उसकी ड्यूटी से अलग भी नहीं रखा जा सकता था। कलेक्टर तो अंग्रेज़ ही था, हुकूमत का अपना वाशिंदा, पर धनसिंहङ्घ हाँ, वो तो अपना दिल और दिमाग बागियों के साथ रखेगा, यह खतरा जरूर मंडरा रहा था। गुप्त रिपोर्टों में यह बात बताई जा चुकी थी, पर हुक़ूमत सत्ता के ग़ुरूर में होती है, तो लापरवाह हो जाती है। अंग्रेजों का वह गुप्तचर तंत्र जिस पर उन्हें नाज हुआ करता था, भी धनसिंह के चेहरे पर लिखी वह धुँधली इबारत नहीं पढ़ पाया, जिसकी आग उसके सीने में धधक रही थी और न ही कोई और।
शहर कोतवाल नगर के मिज़ाज और चप्पे-चप्पे से वाक़फि़ था। लंबे-तडंगे व्यक्तित्व और बड़ी ऐंठी हुई मूँछों से अलग ही दिखने वाला धनसिंह मेरठ शहर के बिल्कुल पास के पाँचली खुर्द गाँव का रहने वाला था। वह एक सम्पन्न गुर्जर किसान परिवार से था। धुन का पक्का था, कानून और व्यवस्था बनाये रखने, अपराधियों से सख्त रहने में कोई समझौता नहीं करता था, परन्तु थोड़ा अलग किस्म का था,मनमौजी लगता था इन गोरों की लगातार बदतमीजियों और ललकार के कारण उसकी बात भी पहले ही बिगड़ चली थी। ब्रिटिश सैन्य और प्रशासनिक अधिकारी किसी को बेइज्जत करने की कोई कसर कब छोड़ते थे।
दरअसल धनसिंह के विद्रोही स्वभाव के पीछे एक किस्सा था,वह यूँ है–
ब्रिटिश साम्राज्य की औपनिवेशिक अर्थव्यवस्था की कृषि नीति का मुख्य उद्देश्य अधिक से अधिक लगान वसूलना था। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में अंग्रेजों ने महालवाड़ी व्यवस्था लागू की थी, जिसके तहत समस्त ग्राम से इकट्ठा लगान तय किया जाता था और मुखिया अथवा लम्बरदार लगान वसूलकर सरकार को देता था। लगान की दरें बहुत ऊँची थी, और उसे बड़ी कठोरता से वसूला जाता था। न दे पाने पर किसानों को तरह-तरह से बेइज्जत करना, कोड़े मारना और उन्हें जमीनों से बेदखल करना एक आम बात थी। किसानों की हालत बद से बदतर हो गई थी। धनसिंह कोतवाल भी एक किसान परिवार से संबंधित था। किसानों के इन हालातों से वे उनका दुखी होना स्वाभाविक था। धनसिंह के पिता पाँचली ग्राम के मुखिया थे, अत: अंग्रेज पाँचली के उन ग्रामीणों को जो किसी कारणवश लगान नहीं दे पाते थे, उन्हें धनसिंह के अहाते में कठोर सजा दिया करते थे। बचपन से ही इन घटनाओं को देखकर धनसिंह के मन में आक्रोश जन्म लेने लगा। ग्रामीणों के दिलो दिमाग में ब्रिटिश विरोध धधक रहा था।
सन 1857 की क्रांति के कुछ समय पूर्व की एक घटना ने भी धनसिंह और ग्रामवासियों को अंग्रेजी शासन को उखाड़ फेंकने के लिए प्रेरित किया। पाँचली और निकटवर्ती ग्रामों में प्रचलित चर्चा के अनुसार घटना के अनुसार वह अप्रैल का महीना था । किसान अपनी फसलों को उठाने में लगे हुए थे। एक दिन दो अंग्रेज तथा एक मेम पाँचली खुर्द के आमों के बाग में थोड़ा आराम करने के लिए रूके। इसी बाग के समीप पाँचली गाँव के तीन किसान जिनके नाम मंगत सिंह, नरपत सिंह और झज्जड़ सिंह थे , कृषि कार्यों में लगे थे। अंग्रेजों ने इन किसानों से पानी पिलाने का आग्रह किया। किसी टिप्पणी को लेकर इन किसानों और अंग्रेजों में संघर्ष हो गया। इन किसानों ने अंग्रेजों का वीरतापूर्वक सामना कर एक अंग्रेज और मेम को पकड़ लिया, एक अंग्रेज भागने में सफल रहा।
पकड़े गए अंग्रेज सिपाही को इन्होंने हाथ-पैर बांधकर गर्म रेत में डाल दिया और मेम से बलपूर्वक खेत जुतवाया। दो घंटे बाद भागा हुआ सिपाही एक अंग्रेज अधिकारी और 25-30 सिपाहियों के साथ वापस लौटा। तब तक वे किसान अंग्रेज सैनिकों से छीने हुए हथियारों, जिनमें एक सोने की मूठ वाली तलवार भी थी, को लेकर भाग चुके थे। इस घटना की जांच करने और दोषियों को गिरफ्तार कर अधिकारियों को सौंपने की जिम्मेदारी धनसिंह के पिता, जो कि गाँव के मुखिया थे, को सौंपी गई। ऐलान किया गया कि यदि मुखिया ने तीनों बागियों को पकड़कर अंग्रेजों को नहीं सौपा तो सजा गाँव वालों और मुखिया को भुगतनी पड़ेगी। बहुत से ग्रामवासी भयवश गाँव से पलायन कर गए। अन्तत: नरपत सिंह और झज्जड़ सिंह ने तो समर्पण कर दिया किन्तु मंगत सिंह फरार ही रहे। दोनों किसानों को 30-30 कोड़े और जमीन से बेदखली की सजा दी गई। फरार मंगत सिंह के परिवार के तीन सदस्यों को गाँव के समीप ही फांसी पर लटका दिया गया। धनसिंह के पिता को मंगत सिंह को न ढूंढ पाने के कारण छ: माह के कठोर कारावास की सजा दी गई।
इस घटना ने धनसिंह सहित पाँचली के बच्चे-बच्चे को मन से विद्रोही बना दिया था। जैसे ही 10 मई को मेरठ में सैनिक बग़ावत हुई धनसिंह ने क्रांति में सहभागिता की शुरूआत कर एक अलग इतिहास रच दिया। बाद में क्रांति मे अग्रणी भूमिका निभाने की सजा पाँचली व अन्य ग्रामों के अधिकांश किसानों को मिली। इस पूरे ग्राम को तो तोप से उड़़ा दिया गया था, जिसमें सैकड़ों किसान मारे गए, जो बच गए उनमें से 46 लोग कैद कर लिए गए और इनमें से 40 को बाद में फांसी की सजा दे दी गई। पाँचली के कुल 80 लोगों को फांसी की सजा दी गई थी। पूरे गाँव को लगभग नष्ट ही कर दिया गया। ग्राम गगोल के भी नौ लोगों को दशहरे के दिन फाँसी की सजा दी गई और पूरे ग्राम को नष्ट कर दिया।
उन दिनों जिले का कलेक्टर ब्रिटिश नागरिक ही होता था, भारतीय तो बिलकुल नहीं, भले ही कितना अयोग्य क्यों न हो। जॉनस्टन नाम का यह कलेक्टर वास्तव में मेरठ का नियमित कलेक्टर नहीं था। अब उसे लग रहा था कि अगर पता होता कि यह चार्ज उसके जी का जंजाल बनने वाला है तो वह भी छुट्टी पर चला गया होता। उसके पास कई दिनों से फिलहाल वहाँ की इस आला अफसरी का नितांत अस्थायी चार्ज भर था। यूँ मेरठ का कार्यवाहक मजिस्ट्रेट होना भी था तो बड़े रुतबे और काम का पद । उत्तर भारत का प्रमुख जिला था, कमिश्नरी मुख्यालय था, और देश की सबसे बड़ी सैन्य छावनी का क्षेत्रीय कार्यालय। सामरिक तौर पर भी मेरठ की महत्ता कुछ अलग थी। गढ़वाल से लेकर पंजाब, हिमाचल और कश्मीर तक यहीं से जुड़ते थे। चाहे रसद की बात हो, या सैन्य बल. जब भी जरूरत होती, इन जगहों के लोग मेरठ का मुंह ताकते।
उस रात मेरठ में मौत का तांडव हुआ। ऐसा लगता था कि यमराज ने मेरठ शहर को पूरी तरह अपनी जकड़ में ले लिया हो। गोरी चमड़ी के लोग उस दिन यकीनन अपने श्वेत होने पर पश्चाताप कर रहे होंगे। जो जहाँ छिपा था, उसे वहाँ से खींच निकाला गया, दौड़ाया गया और तलवार, लाठी-डंडों, लोहे कि छड़ों या बंदूक की गोलियों से निशाना बनाया गया। उनके साथ कोई मुरव्वत न की गई थी।
पर यह क्रांति अभी अधूरी थी। इसका नेता मात्र धनसिंह नहीं था। हर वह व्यक्ति इसका नेता बन गया था, जो अंग्रेजों को सबक सिखाना चाहता था, जो फिर से भारत को इस ईस्ट इंडिया कंपनी के संजाल से मुक्त कराना चाहता था, अपने देश में अपनों का राज चाहता था, पर यही दिक्कत थी। इसी कारण से अनुशासन की धज्जियाँ उड़ रही थीं। जुनून पूरा था, जज्बे में कोई कमी नहीं थी, पर बग़ावत का सर्वमान्य नेता भला कौन था? शायद कोई भी नहीं. इसलिए वाह्य तौर पर ब्रिटिश सत्ता का अस्त काल आकर भी अभी भी वे सत्ता के मालिक बने हुए थे।
व्यापक समय तक चली इस क्रांति के सफलतापूर्वक दमन के पश्चात् ब्रिटिश सरकार ने इन घटनाओं में पुलिस की भूमिका की जांच के लिए मेजर विलियम्स की अध्यक्षता में एक कमेटी गठित की थी।उन्होंने उस दिन की घटनाओं का भिन्न-भिन्न गवाहियों के आधार पर गहन विवेचन कर एक रिपोर्ट तैयार की। उन्होंने मेरठ में जनता की क्रांतिकारी गतिविधियों के विस्फोट के लिए मुख्य रूप से धनसिंह कोतवाल को दोषी ठहराया। उनका निष्कर्ष था कि यदि धनसिंह अपने कर्तव्य का ठीक से निर्वहन करता तो सँभवत: मेरठ में जनता को भड़कने से रोका जा सकता था। धनसिंह को पुलिस नियंत्रण के छिन्न-भिन्न हो जाने के लिए दोषी करार दिया गया। क्रांतिकारी घटनाओं से दमित लोगों ने अपनी गवाहियों में आरोप लगाया कि धनसिंह कोतवाल क्योंकि स्वयं गुर्जर था इसलिए उसने क्रांतिकारियों, जिनमें गुर्जर बहुसंख्या में थे, को नहीं रोका। उन्होंने धनसिंह पर क्रांतिकारियों को खुला संरक्षण देने का आरोप भी लगाया। एक गवाही के अनुसार क्रांतिकरियों ने कहा कि धनसिंह कोतवाल ने उन्हें स्वयं आस-पास के गाँव से बुलाया था।
विलियम्स द्वारा ली गई गवाहियों से पता चलता है कि 10 मई, 1857 को मेरठ में क्रांति का विस्फोट कोई स्वत: हुआ विस्फोट नहीं था, वरन एक पूर्व योजना के तहत हुई एक कार्यवाही थी, जो परिस्थितिवश समय से पूर्व ही घटित हो गई। नवम्बर सन 1858 में मेरठ के कमिश्नर एफ विलियम द्वारा इसी सिलसिले से एक रिपोर्ट नार्थ -वैस्टर्न प्रान्त (आधुनिक उत्तर प्रदेश) सरकार के सचिव को भेजी गई थी। रिपोर्ट के अनुसार मेरठ की सैनिक छावनी में चर्बी वाले कारतूस और हड्डियों के चूर्ण वाले आटे की बात बड़ी सावधानी पूर्वक फैलाई गई थी। अयोध्या से आए एक साधु की संदिग्ध भूमिका की ओर भी संकेत किया गया था। विद्रोही सैनिक, मेरठ शहर की पुलिस, तथा जनता और आस-पास के गाँव के ग्रामीण इस साधु के सम्पर्क में थे। कहा यह भी जाता है कि केसरगंज के शिव मंदिर में रहने वाला यह रहस्यमय साधु मेरठ में 10 मई, 1857 की घटनाओं का सूत्रधार था. मेजर विलियम्स को दो गयी गवाही के अनुसार कोतवाल स्वयं इस साधु से उसके सूरजकुण्ड स्थित ठिकाने पर मिले थे।
दस मई को सैनिकों ने एक साथ मेरठ में सभी स्थानों पर विद्रोह कर दिया था। ठीक उसी समय सदर बाज़ार की भीड़, जो पहले से ही हथियारों से लैस होकर इस घटना के लिए तैयार थी, ने भी अपनी क्रांतिकारी गतिविधियाँ कीं। धनसिंह कोतवाल ने ब्रिटिश सरकार के प्रति वफादार पुलिस कर्मियों को कोतवाली के भीतर चले जाने और वहीं रहने का आदेश दिया। आदेश का पालन करते हुए अंग्रेजों के वफादार पुलिसकर्मी क्रांति के दौरान कोतवाली में ही मौजूद रहे। इस प्रकार अंग्रेजों के वफादारों की तरफ से क्रांतिकारियों को रोकने का प्रयास नहीं हो सका, दूसरी तरफ उसने क्रांतिकारी योजना से सहमत सिपाहियों को क्रांति में अग्रणी भूमिका निभाने का गुप्त आदेश दिया, फलस्वरूप उस दिन कई जगह पुलिस वालों को क्रांतिकारियों की भीड़ का नेतृत्व करते देखा गया।
कहते हैं कि धनसिंह कोतवाल अपने गाँव पाँचली और आस-पास के क्रांतिकारी गुर्जर बाहुल्य गाँवों घाट, नंगला, गगोल आदि की जनता के सम्पर्क में था। उसका संदेश मिलते ही हजारों की संख्या में उसके प्रशंसक और सहयोगी क्रांतिकारी बन कर रात में ही मेरठ पहुँच गये थे।
सन 1857 की क्रांति की औपनिवेशिक व्याख्या कुछ और ही कहती है। उनके अनुसार यह क्रांति मात्र एक सैनिक विद्रोह था जिसका कारण सैनिक असंतोष था और यह कि इन सैनिक विद्रोहियों को कहीं भी जनप्रिय समर्थन प्राप्त नहीं था। अगर व्यापक परिप्रेक्ष्य में देखें तो ऐसा कहना उस जनता का, उन जुनूनी लोगों का अपमान है जिन्होंने इस क्रांति में भाग लेने के लिए अपना सर्वस्व न्यौछावर कर भाग लिया था। समस्त पश्चिम उत्तर प्रदेश के हर जाति और धर्म के लोगों जैसे जाट, गुर्जर, ठाकुर, बंजारों, रांघड़ों और मुस्लिमों ने 1857 की क्रांति में व्यापक स्तर पर भाग लिया था। पूर्वी उत्तर प्रदेश में ताल्लुकदारों ने अग्रणी भूमिका निभाई। अनेक स्थानों पर बुनकरों और कारीगरों ने भी इस क्रांति में भाग लिया। सहभागिता प्रदर्शित करने वाले लोगों को ही 1857 की क्रांति का जनक कहा जा सकता है क्योंकि जनता की सहभागिता की शुरूआत धनसिंह कोतवाल के नेतृत्व में मेरठ की जनता ने की थी. अत: उनको 1857 की क्रांति की ज्वाला फैलाने वाला जुनूनी कहे जाने में कोई विरोधाभास नहीं है।
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