जीवन कौशल स्वास्थ्य

कोरोना का सबक

संजय स्वतंत्र II

कोरोना विषाणु ने मनुष्यों को जहां सबक सिखाया है वहीं दुनिया भर की सरकारों को भी उनकी लापरवाहियों की सजा दी है। यहां सजा और किसी ने नहीं हमने-आपने भुगतीं। भारत में तो स्वास्थ्य सेवाओं की कलई तक खुल गई। सभी ने मरीजों को मरते और इलाज के लिए भटकते देखा। इस दौर में सरकारी और निजी स्वास्थ्य सेवाओं की असलियत भी सामने आ गई। सरकारी सेवाओं के समानांतर निजी सेवाओं को खड़ा करने का दुखद परिणाम सामने आया। एक तरफ सरकारी अस्पताल संसाधनों के अभाव में मरीजों को बचा नहीं पा रहे थे, तो दूसरी ओर निजी अस्पताल संकट की इस घड़ी में मानव धर्म निभाने के बजाय मरीजों को लूटने में लगे थे।
    यह बहुत हैरत की बात है कि जिस देश में गरीब लोग दो वक्त की रोटी बड़ी मुश्किल से खा पाते हैं, वहां स्वास्थ्य सेवाओं के निजीकरण की बड़ी बेशर्मी से वकालत की जा रही है। जहां लाखों-करोड़ों लोग तन ढकने के लिए साल में एक बार कपड़ा और चप्पल तक नहीं करीद पाते वहां की सरकार ने बीते तीन दशकों में इलाज और दवाओं के नाम पर एक ऐसा निरंकुश चिकित्सा तंत्र खड़ा कर दिया, जिसकी चौखट पर न जाने कितने लोग दम तोड़ दे रहे हैं। मगर सिस्टम से जुड़े लोगों की आंखें नम तक नहीं होती। आह तक नहीं निकती। दोषी लोगों पर सीधे कार्रवाई तक नहीं होती।  
इस परिदृश्य को समझने के लिए आपको नब्बे के दशक में जाना होगा। यह वही दौर है जब भारत ने उदारीकरण को स्वीकार किया। तत्कालीन सरकार ने एक तरह से स्वास्थ्य सेवाओं को कमजोर करने के लिए पहला प्रहार किया। नतीजा हम सबके सामने है। 1991 के बाद स्वास्थ्य सेवा से जुड़ी कंपनियों की संख्या बेतहाशा बढ़ी। वहीं दवाइयों के बढ़ते दामों ने भी नींद उड़ा दी। डॉक्टर की जितनी फीस नहीं उससे ज्यादा खर्च अब दवाओं पर हो रहा है।
  आज जिला स्तरों पर सरकारी अस्पतालों के निजीकरण की बात सोची जा रही है। एक सुझाव यह भी आया कि पीपीपी मॉडल अपनाया जाए। फिर निजी मेडिकल कालेजों को आगे कर सरकारी अस्पतालों को नियंत्रण में लेने की बात हुई। अगर ऐसा होता है तो ऐसे में गरीब कहां जाएगा। वह तो मर जाएगा। मध्य वर्ग पहले से ही बेहाल है। वह पहले से लुटा-पिटा बैठा है।
    जन स्वाथ्य विज्ञानी डॉ एके अरुण कहते हैं कि स्वास्थ्य सेवाओं के निजीकरण को लागू तो कर दिया मगर इसे नियमानुसार चलाने की कोई व्यवस्था नहीं की गई। जिन देशों ने चिकित्सा सेवाओं का निजीकरण किया उन्होंने इसके लिए एक ठोस दिशानिर्देश तैयार किया। अपने यहां ऐसा नहीं हुआ। नतीजा चिकित्सा के अभाव में लोगों ने दम तोड़ा। खुदकुशी की।
   यह उदारीकरण और निजीकरण का ही नतीजा है कि शिक्षा और चिकित्सा दोनों ही भारतीय परिवारों की पहुंच से बाहर हो गए। आज मध्यवर्गीय और निम्न मध्यवर्गीय परिवार अपने बच्चों को 20-30 लाख रुपए खर्च कर उच्च शिक्षा दिलाने की हैसियत में नहीं रहे। नब्बे के दशक में उदारीकरण और निजीकरण की खूबियां गिनाने वाले आज रो रहे होंगे। कोरोना ने सबक दिया कि आप जिन अस्पतालों पर भरोसा कर रहे थे, वे दरअसल वे लूट अड्डा बन गए हैं। उन्होंने अपने यहां मर गए मरीजों को जबरन ‘भर्ती’ रख कर ‘उन दिनों’ के भी बिल बनाए।
 डॉ एके अरुण कहते हैं कि स्वास्थ्य और उपचार जीवन से जुड़ा है और हर नागरिक का यह मौलिक अधिकार है। स्वास्थ्य सेवाओं को निजीकरण के जाल से निकाले बगैर आप लोगों के स्वस्थ जीवन की कल्पना नहीं कर सकते। इस लिहाज से देखें तो कोरोना और दूसरी महामारियों की चुनौती एक बड़ा सवाल है। ऐसी हालत में हम अपने स्वास्थ्य की रक्षा कैसे करेंगे। उन डाक्टरों की मनमानी कैसे सहेंगे जो आप से मिलना नहीं चाहते या मिलने की मनमानी फीस वसूलते हैं। और अपनी पहचान के अस्पतालों में भर्ती होने की यदा-कदा सलाह देते हैं। यह असह्य दर्द हम सबके जीवन में लिखा जाएगा, किसने सोचा था। अपने हाथ से कितना कुछ निकल चुका है। हम कुछ नहीं कर सकते। रोजी-रोटी के साथ अपनी जान बचाना भी इन दिनों मुश्किल प्रतीत होता है। अब तो कोरोना का पहला और अंतिम सबक यही है आप स्वस्थ रह कर खुद को ही नहीं, दूसरों को भी बचाइए। क्योंकि कोविड की संभावित तीसरी-चौथी लहर से निकलने के बाद हमें अवसाद से भी बाहर निकलना है। बच्चों को स्कूल भेजना है। बेटे-बेटियों के रोजगार के बारे सोचना है।  
  फिलहाल घातक महामारियों और विषाणुओं की साजिश से बचने की कोशिश करते हुए जब मैं कोरोना टीका लगवाने की जद्दोजहद कर रहा था तो पता लगा कि सरकारी सेंटरों पर यह उपलब्ध नहीं। वहीं निजी अस्पतालों में यह आसानी से मिल रहा था। पैसे खर्च कीजिए और टीका लगवाइए। वे पलक पांवड़े बिछाए बैठे हैं। पिछले दिनों कोरोना टीका लगवाने के बाद फाइव स्टार अस्पताल से बाहर निकलते हुए जेहन में यही खयाल आया-
तेरा राम जी करेंगे बेड़ा पार
उदासी मन काहे को डरे…
   
 

About the author

संजय स्वतंत्र

बिहार के बाढ़ जिले में जन्मे और बालपन से दिल्ली में पले-बढ़े संजय स्वतंत्र ने दिल्ली विश्वविद्यालय के हिंदू कॉलेज से पढ़ाई की है। स्नातकोत्तर की शिक्षा पूरी करने के बाद एमफिल को अधबीच में छोड़ वे इंडियन एक्सप्रेस समूह में शामिल हुए। समूह के प्रतिष्ठित हिंदी दैनिक जनसत्ता में प्रशिक्षु के तौर पर नौकरी शुरू की। करीब तीन दशक से हिंदी पत्रकारिता करते हुए हुए उन्होंने मीडिया को बाजार बनते और देश तथा दिल्ली की राजनीति एवं समाज को बदलते हुए देखा है। खबरों से सरोकार रखने वाले संजय अपने लेखन में सामाजिक संवेदना को बचाने और स्त्री चेतना को स्वर देने के लिए जाने जाते हैं। उनकी चर्चित द लास्ट कोच शृंखला जिंदगी का कैनवास हैं। इसके माध्यम से वे न केवल आम आदमी की जिंदगी को टटोलते हैं बल्कि मानवीय संबंधों में आ रहे बदलावों को अपनी कहानियों में बखूबी प्रस्तुत करते हैं। संजय की रचनाएं देश के सभी राष्ट्रीय और क्षेत्रीय समाचारपत्रों एवं पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी हैं।

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