कविता काव्य कौमुदी

कलाइयों पर ज़ोर देकर

मंजुल सिंह II

लोग
इतने सारे लोग
जैसे लगा हो
लोगों का बाजार
जहां ख़रीदे और बेचे
जाते हैं लोग
कुछ बेबस,
कुछ लाचार
लेकिन सब हैं
हिंसक,

जो चीखना चाहते हैं
ज़ोर से, लेकिन
भींच लेते हैं अपनी
मुट्ठियां कलाइयों पर ज़ोर देकर
ताकि कोई
देख न सके
बस महसूस कर सके
हिंसा को
जो चल रही है
लोगों की
लोगों के बीच, में
लोगों से?

एक हिंसा तय है
लोगों के बीच
जो खत्म कर रही है
किसी तंत्र को
जो इन्ही हिंसक लोगों
ने बनाया था,
हिंसा
रोकने के लिए?

लेकिन सब ने,
सीख लिया है
कलाइयों पर ज़ोर देकर
मुट्ठियां भीचना,
इन्होने भी सीख लिया
सभ्य लोगो की तरह
कड़वा बोलना,
गन्दा देखना और
असभ्य सुनना!

यह समझते हैं
खुद को सभ्य
कलाइयों पर घड़ी,
गले में टाई,
पैरों में मोज़े,
और
हाथ में जहरीली
तलवार रखने से

मैं भी रोज़ जाता हूँ
लोगों के बाजार,
तुम भी जाया करो
ऐसा ही सभ्य बनाने
ताकि तुम भी
भींच सको अपनी मुट्ठी
कलाइयों पर ज़ोर देकर।

About the author

मंजुल सिंह

मंजुल सिंह
जन्म तिथि-09/05/1994
निवास- विजय नगर, ग़ाज़ियाबाद (उ.प्र.)
शिक्षा- सिविल इंजीनियरिंग, एम.ए. (हिंदी), यू.जी.सी (नेट/जे.आर.एफ-हिंदी), वर्तमान में अध्यनरत
इनकी कविताएं ककसाड़ पत्रिका, अमर उजाला काव्य, पोषम पा, प्रतिलिपि, मेरा रंग, द साहित्यग्राम, प्रवक्ता.काँम, मातृभाषा.कॉम (वैचारिक महाकुंभ), स्टोरी मिरर, रेड पेपर्स, साहित्य कुँज, हस्तक्षेप पत्रिका, मातृभाषा वेबसाइट, हमारा मोर्चा बेबसाइट, जयदीप पत्रिका, द क्रिटिकल मिरर वेबसाइट, द पुरवाई, कोल्डफील्ड मिरर एवं जनसंदेश टाइम्स समाचार पत्र में प्रकाशित हो चुकी है!
मो.न.-9990114968

Leave a Comment

error: Content is protected !!