मंजुल सिंह II
लोग
इतने सारे लोग
जैसे लगा हो
लोगों का बाजार
जहां ख़रीदे और बेचे
जाते हैं लोग
कुछ बेबस,
कुछ लाचार
लेकिन सब हैं
हिंसक,
जो चीखना चाहते हैं
ज़ोर से, लेकिन
भींच लेते हैं अपनी
मुट्ठियां कलाइयों पर ज़ोर देकर
ताकि कोई
देख न सके
बस महसूस कर सके
हिंसा को
जो चल रही है
लोगों की
लोगों के बीच, में
लोगों से?
एक हिंसा तय है
लोगों के बीच
जो खत्म कर रही है
किसी तंत्र को
जो इन्ही हिंसक लोगों
ने बनाया था,
हिंसा
रोकने के लिए?
लेकिन सब ने,
सीख लिया है
कलाइयों पर ज़ोर देकर
मुट्ठियां भीचना,
इन्होने भी सीख लिया
सभ्य लोगो की तरह
कड़वा बोलना,
गन्दा देखना और
असभ्य सुनना!
यह समझते हैं
खुद को सभ्य
कलाइयों पर घड़ी,
गले में टाई,
पैरों में मोज़े,
और
हाथ में जहरीली
तलवार रखने से
मैं भी रोज़ जाता हूँ
लोगों के बाजार,
तुम भी जाया करो
ऐसा ही सभ्य बनाने
ताकि तुम भी
भींच सको अपनी मुट्ठी
कलाइयों पर ज़ोर देकर।
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