प्रेम शंकर शुक्ल II
मानव इतिहास कहता है कि मनुष्य पहले
चार पाँव का था अर्थात चौपाया
आगे जाकर दो पाँव ही दो हाथ बन गए
लगती है यह बात बेहद रोचक मुझे
और यह भी कि अपनी पूरी ऊँचाई में
खड़े होने का कितना सुन्दर है
यह वृत्तान्त
इसी कथा की पीठ पर चलने के वास्ते
मैं अपने दोनों हाथों को फिर पाँव बनने के लिए
करता हूँ राजी और हो लेता हूँ चौपाया
तब मेरी पीठ पर बैठ खिलखिलाते हैं बच्चे
सवारी करते हुए मेरी
बच्चे खिलखिलाते हैं, चढ़ते हैं-गिरते हैं
बनाए रखते हैं मेरी पीठ को अपनी क्रीड़ाभूमि
और मैं होता रहता हूँ आल्हादित
बच्चों की धमाल में शामिल होने के लिए
मेरे हाथों को भी जब-तब
पाँव होने की उठती रहती है गुदगुदी
हम जानते ही हैं कि पीढ़ियों के संघर्ष और स्वप्न से ही
‘घर-परिवार’ तक आए हैं हम
अन्तहीन आरण्यकजीवन-यात्रा के बाद
अपने होने की कथित कथा पर
सुखद विस्मय से भरे हुए हैं हमारे दोनों हाथ
बुनते हुए परस्पर की उँगलियाँ !
दो पाँवों से ही सीधा खड़ा होना आया है हमें
भीमबैठका के एक चित्र में
लिखी हुई है हाथों ने यह कथा
अन्याय-अपमान के खिलाफ खड़े होते हैं जब हाथ
तब पाँव ही हैं कि अपने हाथों को
दिए रहते हैं जमीनी ताकत
निष्कम्प और अथाह
पाँव हाथों के पूर्वज हैं!
लम्बी कविताओं का समुच्चय ‘अयस्क वर्णमाला’ से
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