कथा आयाम कहानी

‘वो पगली’

बिम्मी कुँवर सिंह II

धूप पड़ती थी तो पड़ती ही रहती थी जैसे उसको पड़ने का मशगला हो आया हो ,उसकी तपिश के विरोध में यहां-वहां से छायाएं निकल आती थी, मग़र उसे कभी छांव में नही देखा था, वो तपती धूप में भी उसी नल वाले चबूतरे के पास बैठी रहती थी, जिसके एक तरफ बहते पानी की पतली सी धार ने कीचड़ का लिथरा सा बजबजा भी खीच दिया था।वह वहीं बैठी रहती थी- दरम्याना कद, उजला-खिलता रंग, गुंजलक लिए हुए उलझे-रूखे बाल, भरा-भरा सा बदन और भूरी आंखे….बोसीदा सी शमीज़ में भी उसकी गोलाइयों का उभार और हाफ-पैंट से कदली जांघो की मांसलता झिलमिलाती रहती, जाने कहाँ से वो परिसर में आ गयी थी और अपने लिए सबसे ‘पगली’ का खिताब भी ले लिया था।

‘ऐ मेरे हमसफ़र इक जरा इंतज़ार…’की खींच के साथ माहौल में कयामत से कयामत तक के गाने गूंजने लगे थे। देश में सरकार बदली जा चुकी थी , मगर पूर्वांचल के इस कस्बे में हस्बे मामूल सब पहले की ही तरह जारी था, हालाँकि इन्ही दिनों में मेरी ज़िन्दगी में एक खलल सा आ गया था, कि जब हर खाली पीरियड में खिड़की पर लगी ग्रिल के पार उसकी ओर अनझिप तकने के सिलसिले की शुरुआत हुई थी…उसे सोचती रहती- उसके बाल, चलते हुए उसकी लड़खड़ाहट, उसकी भूरी आंखे, उसका विगत, उसका आगत…उसके प्रति कोई कौतुक नहीं बल्कि स्पन्दना आकार लेने लग पड़ी थी।

उस रोज़ हवाए सिरफिरी हो आई थी, गर्ल्स हॉस्टल से लगते खुले इलाके में अंधड़ से चल रहे थे ,और जब सब थमा तो, मैं उसके करीब बैठी थीं उस से पूछ रही थी, ‘कौन हो?’ वो मुस्कुरायी, वो सिर्फ पेशियों का खिंचाव नही था वो वास्तव में मुस्कुराई थी, 

सवाल फिर उभरा, ‘कौन हो?’ वो फिर केवल मुस्कुरायी, एक सिलसिला सा निकल पड़ा था उसे सोचने का, जैसे मनस को कोई सायास खीच ले रहा हो, क्लास की पढ़ाई में मेरा मन नही लगा, छुट्टी के बाद भाग कर फिर मैं फिर उसी जगह गयी, पर वो नही मिली ,चली गयी थी।

अगले तीन-चार दिन तक वो नही दिखी, और मैं अपनी पढ़ाई में रम गयी। दिनों ने बीतना जारी रखा था और बीतते हुए उस दिन के खाली पीरियड तक पहुंच गए थे, जब सभी सहेलिया खेल रही थी, पर मैं बैठी अपनी कॉपी में बेतरतीब सी कुछ फालतूहटों में मुब्तिला थी ,और जब नज़र उठाई तो नल वाले चबूतरे पर वह बैठी दिखी, मैं सपाटे से दौड़ते हुए उसके पास गई ..और फिर वही सवाल, ‘कौन हो?’ उसने मुस्कुरा कर मेरी ओर देखा, मुस्कुराते हुए उसके गालो पर एक पतली रेख सी उभर आती थी, वह कुछ पल शांत रही जैसे अपने सूने में कुछ व्यवस्थित कर रही हो या अव्यवस्थित कर रही हो, ‘जमीदारिन !’ धीमे से ही उसके शब्द आ पाए थे, मुझे भला लगा, प्रश्नों को प्रश्न समझकर उसका उत्तर देने का बोध अभी बचा हुआ है, भाषा भी पूरी सूखी नहीं है सो पूछना जारी रखा, ‘पति का नाम क्या है ?’ इस बार उसकी तरफ से अनुसुनापन ही आया, वो जाने लग पड़ी थी, मेरी स्पन्दना ने मुझे उत्प्रेरित रखा था मैंने उसे रोक कर अपना लंच-बॉक्स उसकी तरफ बढ़ा दिया, उससे भूख सम्हाली न गयी और तत्क्षण वह चबूतरे पर बैठकर खाने लगी, अपने आस-पास के संसार से असम्पृक्त उसने खुद को भिन्डी की सब्जी और पराठे पर एकाग्र कर लिया था और मैंने खुद को उसपे, ‘तुम्हारे मनसेदू कौन है?’ इस बार लोक-भाषा में पूछकर उसकी अव्यवस्थित सम्वेदना से कुछ निकालने का प्रयास था वो कौर निगलते हुए बोली ‘…जमीदार साब !’ लगा यही एक लफ्ज़ है जो शिद्दतों से इसने अपने में तहा कर रखा है, कैसे स्मृतियों के अंधड़ होंगे जो इस भटके-बोध को मथते होंगे मैंने पूछना जारी रखा, ‘कहा के है वो ?’, इस बार कोई जवाब नहीं आया था वो लंच-बॉक्स खाली कर चुकी थी, और नल की तरफ बढ़ गयी थी, मैं उसके नज़दीक गयी और कंधे को हिला कर पूछा, ‘बताओ ! कहा के है वो ?’ लेकिन जवाब की जगह वो गेट से बाहर निकल गयी. बचा हुआ दिन उससे लिपटे हुए ही बीता ,वो मेरी चेतना को घेरे जा रही थी, घर की खिड़की से बाहर कदम्ब की डालियों को देखते हुए भी उसका ख्याल ही मथे जा रहा था, अगले रोज़ की मुलाक़ात की अभी से प्रतीक्षा लग गयी थी… 

अगले दिन दोपहर के समय वो फिर अपनी पसंदीदा जगह पर दिखी ,पुरानी फटी समीज और् हाफ पैंट. मैं उसके पास चली गयी ,एक ही रोटी खाई थी मैंने ,शेष एक उसके लिए बचा रखी थी….रोटी सब्जी उसे देते हुए मैंने पूछा, ‘घर कहा है?’ वो खाने में मगन थी, कुछ नही बोली, मैं उसकी तरफ देखे जा रही थी, अंदरूनी परतों पर एक अजीब सा ख्याल उठ खड़ा हुआ था इस कुचैली सी देहता और भटकी हुई चेतना में प्रवेश कर देखूं कि इसकी ओर से दुनिया कैसी लगती है कितनी तुच्छ…? कितनी हेय…? कितनी क्रूर…? कितनी…. ‘कायांतरण करोगी ?’ प्रश्न, ध्वनि में नहीं घट पाया था बल्कि भीतर ही किन्ही तंतुओं में बस स्फुटन सी जगी थी, रोटी समाप्त कर वो फिर मुस्कुरायी और् नल की टोंटी को उमेठकर गिरते पानी को अंजुरी से पीने लगी, तभी मेरी नज़र उसकी मांसल जांघ पे उभर आयी सुर्ख लकीर पे गयी, मैंने पूछा- ‘पीरियड आया है ?’ वो फिर मुस्कुरायी, मैने पूछा, ‘कपड़ा नही है तुम्हारे पास?’ उसने मुस्कुराना जारी रखा, जैसे मैं भाषा का नहीं ध्वनि का व्यवहार कर रही होऊं, तब तक घंटी बज चुकी थीं, मुझे क्लास मे जाना पड़ा, किन्तु अगले दिन मैं चुपके से कुछ सूती कपड़े अपने बस्ते में छुपा कर स्कूल ले आयी, पूरे दिन मेरी नजर गेट पर और नल के चबूतरे पर ही थी ,पर वो नही दिखी ,वापिसी में पूरे रास्ते मैं उसको खोजते हुए घर आयी, बस्ते में सूती कपडे भी बैरंग ही वापिस आए थे. 

फिर वो नहीं दिखी, कई दिनो तक नहीं दिखी, और दिनों ने बीतने की लत नहीं छोड़ी ,दसवी पास करने के बाद मेरा दाखिला बी आर पी इन्टर कालेज मे हो गया था, और मुझे नयी साइकिल से भी नवाज़ दिया गया था, लिहाज़ा मेरी ख़ुशी दूनी हो रखी थी ,कि अब साइकिल से गुज़र होगी, पहली-पहली आज़ादियाँ मौसम में घुलने लगी थी, जुलाई का महीना आ गया था ,हल्की बूंदाबांदी ने माहौल को भिगोया हुआ था , चारो तरफ भीगी हुई वनस्पति की गंध फैल रही थी ,धीमे-धीमे साइकिल चलाते हुए मैं कालेज के लिए निकली, अभी आधे रास्ते में ही थी, कि एकाएक मेरी नजर सड़क के दूसरी तरफ गयी ,‘अरे ये तो वही पगली है…!’ अपने चश्मे को ठीक करते हुए, साइकिल को स्टैंड पर चढ़ा मैं उसके नजदीक गई, मुझे लगा वो पहचान कर मुस्कुरा देगी पर मुस्कराहट नदारद रही , बल्कि उसके चेहरे पर भय था ,उदासी थी, वो अपलक मुझे देखे जा रही थी,..तभी मेरी नजर उसके सीने से चिपके उभार पर गयी ,कोई बित्ते भर का नन्हा होगा , सीने के पास लटकी चमड़ी को बार-बार अपने मुँह से खीच कर अपनी भूख मिटाने की कोशिश में लगा था, कुन्न-कुन्न सी ध्वनि में पूरा रो भी नहीं पा रहा था. मैंने पूछा, ‘ये बच्चा….ये बच्चा किसका है?’ मेरे सवाल के मर्म को समझे बिना वो आशंकित हो उठी थी , और दोनो हाथो से मजबूती के साथ उसे समेट लिया था, ममता रक्षक हो उठी थी, बच्चे पर थोड़ा झुकते हुए मैंने हाथ के इशारे से पूछा, ‘तुम्हारा बच्चा है ?’ जबाव में इस बार वो जमीन से कुछ पत्थर के टुकड़े उठा, मुझे मारने को सन्नद्ध हो आयी, लड़खड़ाते हुए मैं पीछे हटी, मेरे पैरो में कपकपी हो आयी थी, साइकिल के पैडल मारने की मेरी क्षमता अचानक चुक गयी थी, मेरी आखो से आँसू निकल आए, मैं चश्मा निकाल कर आँख साफ करने लगी थी, मेरे लिए यह अप्रत्याशित था, आत्मस्थ होने में थोड़ा वक्त लगा और फिर जब नजर उठायी तो अपने बच्चे के साथ दूर जाती वो दिखाई दी….मेरी तरफ पीठ थी, मैं जानती थी कि पीठ के उस तरफ निरीह कातर और आशंकित ममता ने अपनी अंशता को अपने घेरे में और जोर से भींच लिया होगा….

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बिम्मी कुँवर सिंह

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