डॉ चंद्रिका चंद्र II
भगवत रावत की एक कविता है- ‘कितना अच्छा है कि मैं मध्यप्रदेश का हूँ/ और अयोध्या मध्यप्रदेश में नहीं है कि मेरा देश भारत है…।’ इस एक पंक्ति के बरक्स हमें अहसास होता है कि मेरे इस मध्यप्रदेश में कोई अयोध्या नहीं है। भारत जैसे बहुभाषी बहुधर्मी, बहुजातीय वर्गीय देश के प्राचीनतम सांस्कृतिक-आध्यात्मिक जीवित (लाइव) नगरों में हमारे पास अवंतिका (उज्जयिनी) है। इसकी तुलना काशी के अतिरिक्त किसी अन्य नगर से नहीं की जा सकती। अवंतिका की ऐतिहासिक-सांस्कृतिक-साधनात्मक परम्परा मध्यप्रदेश की शान है। कभी जब भार्गवों से पराजित होकर हैहयवंशी ठिकाने की तलाश में थे, तब हैहयकुमार ‘अवंति’ ने इस नगर को बसाया था। अवंतिका, कनकशृंगा-उज्जयिनी में परिवर्तित होते हुए उज्जैन हजारो वर्षों का इतिहास अपने में समेटे हैं। ईसा पूर्व अवंतिका अंतरराष्ट्रीय व्यापारिक केन्द्र था। तंत्र और ज्योतिष के अवशेष आज भी इस नगर की प्राचीन गौरव गाथा कहते हैं। यहां वेधशाला है, शिप्रा है, काल भैरव हैं। नित्य दारू पीते हुए (वैधानिकता के साथ)। मंगलनाथ हैं, भर्तृहरि गुफा है, कन्हैया का वह आवासीय स्कूल संदीपन आश्रम भी है जहां पढ़ते हुए वे चौंसठ प्रकार की विद्याएं (कलाएं) सीखकर योगेश्वर कृष्ण बने। गीता का पहला पाठ संदीपन ने शायद उन्हें यही पढ़ाया था। ईश्वर को जब धरती के जीवों से बात करना होता है तब वह कवियों की वाणी में बोलता है। सच तो यह है कि गीता में कृष्ण के विचार स्वयं के नहीं महर्षि व्यास के थे, कृष्ण ने तो पुनर्पाठ किया था। मंगलनाथ के पीछे वाला वह वन नाम मात्र को बचा है जहां कृष्ण और सुदामा हेमंत की ठंडी रात में आश्रम के लिए लकड़ी लेने गए थे, बरसात के कारण भटककर अलग-अलग पेंड़ों पर चढ़ गए थे। नरोत्तमदास (कवि) के कृष्ण ने सुदामा को याद दिलाया था कि ‘आगे चना गुरु मातु दये, त, लए तुम चाबि हमैं नहिं दीन्हे’ और महाकाल हैं जो समूचे उज्जैन के अभिवादन और प्रणाम भाव ‘जय महाकाल’ और ‘जय गोपाल’ के साथ गूंजते हैं।
समुद्र मंथन से निकले अमृत के घट को लेकर भागते देवताओं का दूसरा विश्राम, शिप्रा के तट पर हुआ था। रखते-उठाते एक-दो बूंद यहां गिरा होगा। बारह वर्ष बाद सिंहस्थ के दिनों कुम्भ के दौरान वह बूंद (अमृत) आता है, उसी अमृतत्व के लिए हजारों वर्ष से उज्जैन भी लगा है। भारतीय काल गणना विक्रम संवत जो ईसवी सन् से सत्तावन वर्ष बड़ा है, का सम्बन्ध भी यहीं के प्रतापी राजा विक्रमादित्य के नाम से जुड़कर सबसे प्राचीन काल निर्धारण का इतिहास रचती है। तंत्र-मंत्र, जादू-टोना, भक्ति-वैराग्य, दर्शन-अध्यात्म से अधिक मुझ जैसे जिज्ञासु विद्यार्थी को सबसे अधिक आकर्षित करती है, लोक में प्रचलित सिंहासन बत्तीसी-विक्रम बैताल की कथाओं से जुड़ी विक्रमादित्य के शौर्य-न्याय और औदार्य की लोककथाओं का जन-जन में विश्वास। विक्रम हमारे सनातन धर्म की कालजयी पहचान है, वह शकारि हैं, शकों को परास्त करने वाला। कालिदास का कवित्व याद आता है। भरथरी (भर्तृहरि) के गीत जो लोक के गीत बन गए, याद आते हैं ‘शृंगार शतक’ नीति शतक’ वैराग्य शतक के बीज मंत्र और ‘वाक्य पदीयम्’ जैसा पांडित्य पूरित ग्रंथ पढ़ते समय राजा भरथरी की विद्वत्ता और कवित्व शक्ति पर चमत्कृत हुए बिना नहीं रहा जा सकता। काशी के अनेक पंडितों के उज्जैन आकर शास्त्रार्थ करने की कहानी लोक में प्रचलित है। उज्जैन, भारतीय कला-विद्या का केन्द्र हजारों वर्ष तक अबाध रूप से परिवर्तित, परिवर्धित होकर चलते रहने का नाम है। सौंदर्य, प्रेम और करुणा के संस्कृत साहित्य के सर्वश्रेष्ठ कवि कालिदास उज्जयिनी के राजा भोज के राज्य की शोभा थे, याद आते हैं।
अर्थ और काम की अनिवार्य स्वीकार्यता को राजा कवि भर्तृहरि ने स्त्रियाश्चरितं पुरुषस्य भाग्यं दैवो न जानति कुतो मनुष्य और ‘सर्वेगुणा: कांचनम्माश्रयंति’ है लिखकर विश्व भर की कथाओं को जो सूत्र दिया, कमोवेश वे कथाओं के आधार बीज बन गए। सारी कथाएं कंचन और कामिनी के ईद गिर्द ही घूम रही है। शेक्सपीयर को भी लिखना पड़ा- फ्रायल्टी दाई नेम इज वीमेन’ (कमजोरी तेरा नाम स्त्री है।) राजा, प्रेमी, वैयाकरण, कवि, विद्वान, भर्तृहरि कैसे ‘जोगी भरथरी’ होकर अपनी पत्नी रानी पिंगला से भिक्षा लेने पहुँचा, ‘भरथरी गीत’ को जोगियों से सुनते हुए कितनी स्त्रियों को हमने रोते हुए देखा है। जोगी गांव का फेरा लगाते हुए जोगिया वस्त्र में, सारंगी बजाते संसार के निस्सारता की अलख जगाते गोरखनाथ का जयकारा लगाते गांवों में यदा कदा अब भी दिखते हैं। संसार का सारा वैभव जिसके पास था, उसके जोगी बनने की कहानी स्त्री की बेवफाई है। बावफा और बेवफा के द्वंद्व में फंसा जोगी भर-थारी संसार में भटकता हुआ तीन बार नगर लौटकर फिर बन (जंगल) चला जाता है। ‘भिक्षा दइदे माई पिंगला रानी/ जोगी खड़ा दुआर’ राजा भरथरी/ तेजस पेटी छोडि कइ राजा, भस्मी लिहिन रमाय।’ सुनते हुए लोक को इस गीत में संगत बैठानी पड़ी कि ‘कलि म अमर राजा भरथरी, बाजे तबला निसान’। अवन्तिका का इतिहास लेखन से अधिक लोक आख्यानो मे हैं। भर्तृहरि के जोगी बनने के बाद छोटे भाई विक्रम ने राज काज संभाला। विक्रमादित्य की न्यायशीलता, दानवीरता, तपस्विता, सत्यवादिता, निष्ठा, और विवेकशीलता की कहानी बैताल द्वारा विचित्र प्रकार से पूछे गए प्रश्नों के समाधान और अनेक मिथक रचती हैं। कहते हैं कि विक्रमादित्य के स्वर्ण सिंहासन में बत्तीस सोने की पुतलियां थीं। ये पुतलियां बोलती थीं। बत्तीस प्रकार के अपराध, और सबके सब नैतिक, इन अपराधों का निर्णय सिंहासन पर बैठकर राजा करता था। महाभारत में नैतिक अपराधों की एक वृहद श्रृंखला है, जिनका समाधान कृष्ण हैं। राजा के मरने के बाद सिंहासन जमींदोज हो गया। कालांतर में राजा भोज के कार्यकाल में उस टीले का पता चला, जिस पर चढ़कर चरवाहे भी न्याय की भाषा बोलते थे। टीले को खुदवाने पर वह स्वर्ण सिंहासन मिला जिसमें बत्तीस पुतलियां जड़ी थी। साफ सफाई के बाद मुहूर्त निकलवाकर राजा ने सिंहासन की पूजा की और जैसे ही सिंहासन पर बैठने के लिए कदम बढ़ाया, एक पुतली बोल उठी- ‘राजन! यह सिंहासन उस महापुरुष का है जिसके राज्य में तुम जैसे लोग नौकर की हैसियत से काम करते थे। राजा भोज नाराज हुए, पुतली ने कहा- राजा को इतना जल्दी क्रोधित नहीं होना चाहिए, हमें तोड़ फोड़ कर आपको क्या मिलेगा, हमारी मृत्यु तो विक्रमादित्य के साथ ही हो गई थी। इस पर तो विक्रमादित्य जैसा प्रतापी और न्याय प्रिय राजा ही बैठ सकता है, और पुतली ने एक कहानी विक्रमादित्य को सुनाई। इस प्रकार बत्तीस कहानियां, बत्तीस दिन तक पुतलियां सुनाती रही। प्रत्येक कहानी से राजा भोज अपना विशलेषण करता रहा। अंत में स्वयं उसने मान लिया कि इस सिंहासन पर बैठने के गुण मुझमें नहीं हैं। कहानियां सुना कर पुतलियां आकाश में विलीन हो गई। ज्ञान और काव्य परम्परा की शिप्रा यहीं बहती थी।
राजा भोज और कालिदास के अनेक किस्से राजा और कवि की विद्वता और प्रत्युत्पन्न मेधा के प्रमाण है। लोक में बहुत आदर और श्रद्धा से पुरानी पीढ़ी की स्मृति, आज भी उनकी कहानी दुहराते हैं। कहते हैं कि रनिवास में एक बार महारानी और उनकी बहन आपस में कुछ चुहल कर रही थी, उसी समय राजा भोज एकाएक रनिवास बिना किसी पूर्व सूचना के पहुँच गए। रानी ने स्वागत करते हुए राजा से कहा- एहि मूर्ख! (आओ मूर्ख) राजा जल्दी ही वापस लौट आए। उस दिन जो भी दरबार में आता, राजा ‘एहि मूर्ख’ कहकर उसका स्वागत करते। सभी दरबारी राजा के इस सम्बोधन से चकित थे परन्तु प्रश्न न कर सके। कालिदास के आते ही राजा ने ‘एहि मूर्ख’ कहा। कालिदास ने प्रत्युत्तर में कहा- ‘खादन गच्छामि, हसन्न जल्पे, कृतं न शोचामि, गतन्न मन्ये/ द्वाप्यां तृतीयो न भवामि राजन, केनास्मि मूर्खों बद कारणेनं (हे राजन, मैं, खाते हुए चलता नहीं हूँ, हंसते हुए बात नहीं करता, किए हुए पर सोचता नहीं हूँ, बीते हुए को मानता नहीं हूँ। जहां दो लोग बात कर रहे हों उनके बीच में जाता नहीं हूँ, तो कृपया बताएं में किस कारण से मूर्ख हूँ)। राजा को अपनी गलती का उत्तर मिल गया। किसी बात पर कालिदास नाराज होकर, राजनर्तकी के घर में वेश बदलकर किराएदार की तरह रहने लगे। राजा भोज बिना कालिदास के उदास हो गए, कालिदास का पता करने के लिए दरबार में समस्या पूर्ति के लिए एक श्लोक की अर्द्धाली रखी- कमले कमलस्योत्पत्तिश्रूयतेन न च दृश्यते (कमल के ऊपर कमल की उत्पत्ति न तो सुनी गई न ही देखी गई) राजनर्तकी यही गुनगुनाती घर आई, श्रोक को अधूरा सुन कालिदास से रहा नहीं गया, उन्होंने श्लोक पूरा किया- बाले! तब मुखाम्बुजे किमस्ति नयन द्वयम्, (हे सुन्दरी! तुम्हारे मुख कमल के ऊपर नेत्र कमल द्वय क्यों हैं) कालिदास का पता राजा को मालूम हो चुका था। भगवत रावत की कविता को हेर फेर के साथ कहूँ तो कुछ ऐसा कहूँगा कितना अच्छा है कि मैं मध्यप्रदेश का हूँ। कि मध्यप्रदेश में उज्जयिनी है। कि उज्जयिनी में विक्रम हैं, भर्तृहरि हैं। और भोज कालिदास हैं। कि अयोध्या जैसा एकाकी जीवन उज्जयिनी में नहीं हैं कि यहां कृष्ण और सुदामा हैं
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