कविता काव्य कौमुदी

क्षणिकाएँ

चित्र : साभार गूगल

बुशरा तबस्सुम II

।। 1।।
सुनो मितरा
आजकल नापती हूँ रात
तो इंच दर इंच
सटीक होती है पैमाईश,
सरलता से हाथ आ जाता है
अंतिम सिरा ,
एक वो था समय
जब कम पड़ जाते थे
नींदो के फीते ,
रात के अंतिम छोर में
जोड़े हुए
सुबह का मध्यस्थ छोर
युग बीते ।।

।। 2।।

उधर भी थी
विस्तृत स्थिरता ,
इधर भी
सुप्त भाव नही जागा ,
अतः टिक गया
कच्ची बखिया से जुड़ा संबंध ,
अन्यथा सरल था
गाँठ तोड़ कर
खींच लेना लिहाज़ का धागा ।

।। 3।।
नाकामियों की महामारी से …
मर गए थे सारे स्वप्न ,
खाली हो गया था समस्त …
ह्रदय ग्राम,
तभी एक नवजात आस किलकारी ,
संभावनाएं कब मरती हैं …
सारी की सारी ।।

।। 4।।
प्रथम भेंट की
सुखानुभूति के…
मैने बचा लिए थे
मुट्ठी भर बीज
आगामी जीवन के
किनारे किनारे
रोपे हैं प्रत्येक
जाने कहाँ
आवश्यकता हो छाँव की
जाने कब चाहे मन टेक ।

।। 5।।
प्यास ,
जब ज़िद पर आए …
बरस जाएं चाहे जितने बादल
कूप भरदे कितनी ही गागर …
नदिया सागर कितनी ही हिलोर खाए ,
वो रीझ कर किसी मृगतृष्णा पर
चाहे कि वहीं से एक बूँद पाए ;
प्यास..
जब ज़िद पर आए ।।

।। 6।।
आगमन..
जैसे सुबह की ताज़गी,
ठहराव..
ज्यों दोपहर की लापरवाही
गमन..
लगता है शाम का अनमनापन;
कल्पनाओं के आकाश में तुम
सूरज की भाँती लगाते हो फेरा,
कभी कभी एक दिन में
पूरा सप्ताह गुज़र जाता है मेरा ।

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बुशरा तबस्सुम

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