आलेख

मानवीयता और नैतिकता का तकाज़ा

चित्र : साभार गूगल

डा. दीप्ति गुप्ता II

कुछ समय से पत्र-पत्रिकाओं में, तो  कभी फेसबुक पर, लेखकों की तरह-तरह से आलोचना और मानहानि करके, उन्हें तिरस्कृत करने का एक नया ट्रेंड देखने में आया है । हमेशा से लेखकों द्वारा पुरस्कार लौटाकर विरोध  प्रदर्शन की ही कटु आलोचना की जाती रही है,  अपितु, लेखकों को बहुत बुरा, निकृष्ट, बनावटी, कलहकारी, ख़ूब  किताबें पढ़कर, उनके  विचारों  और शब्दावली की आजीवन जुगाली करने वाला , कविताएं  और आलेख विभिन्न पत्रिकाओं में छपवाने वाला,  क़िताबें छपवाने वाला,  छोटे-बड़े पुरस्कार लेकर, आम जन के बीच उच्चता के अभिमान से जीनेवाला,  ज़्यादा लिखने और पढ़ने से पथराये हुए व्यक्तित्व वाला, शुष्क विचारों वाला,  बोर व्यक्तित्व वाला, अहंकारी, धर्म , राजनीति , सामाजिक व्यवस्था पर अपने विचारों को सर्वोपरि मानने वाला, ‘समाज की नकली जमात’ का बाशिंदा कहकर उसकी गरिमा का हनन, रुग्ण मानसिकता वाले लोगों द्वारा लगातार देखने में आ रहा है ।  

पूरा देश देख रहा है और आहत है कि देश ‘समरसता से विषमता’ की ओर, ‘अमृत से विष’ की ओर किस गति से बढ़ रहा है और अभी तक यह नकारात्मक रौद्र बहाव जारी है । हाल ही में लखीमपुर में किसानो के साथ जो हुआ, उसे  यहाँ दोहराने की ज़रूरत नहीं, सब जानते ही  हैं ।

 इंसान दो तरह के होते हैं ।

  1. उग्र    (असाहित्यिक लोग)
  2. सौम्य  (साहित्यिक व कलाकार लोग)

उग्र लोग अपना  विरोध और आक्रोश सदा  हिंसा, हाथापाई, तीर, तलवार और लाठियां चला कर करते हैं । जबकि साहित्यकार और कलाकार जैसे  सौम्य स्वभाव के लोग अपनी मानवीय  सोच को, अपनी लेखनी, शब्दों व तूलिका द्वारा  और साथ ही, उससे जुड़ी उपलब्धियों को लौटा कर करते है । वे हिंसा की तो सोच ही नही सकते । इसलिए  पुरस्कार लौटाने से अतिरिक्त, अन्य किसी तरह की अभद्रता और अशालीनता वे कर भी नही सकते क्योंकि ऐसा करना अदबी लोगो के मिजाज़ में नही होता । शाइस्ता लोगो के  तीखे तेवर भी शाइस्ता ही होते है – पर इसका मतलब यह नही कि उनसे  विद्रोह और  क्रोध की उम्मीद  ही न की जाए । याद रखना चाहिए कि लेखक  समाज  में समय-समय पर उठने वाले  विरोधाभासों की उपज होता है, उसी से उसका व्यक्तित्व और कृतित्व गढ़ा जाता है । जब-जब विश्व के किसी भी देश में, किसी भी समाज में सांस्कृतिक, सामजिक या राजनीतिक टकराव हुआ, लेखक ने सदा  नैतिकता और मानवता के पक्ष में मोर्चा बाँधा । समाजवाद-व्यक्तिवाद, मार्क्सवाद-पूंजीवाद,  व्यष्टिवाद -समष्टिवाद, निम्नवर्ग-उच्चवर्ग, शासितवर्ग-शोषकवर्ग, सर्वहारावर्ग-सामंतवर्ग – जब-जब इनमें संघर्ष  हुआ, लेखकों ने निरीह का, शोषित का  पक्ष लिया । चूँकि सत्ताधारी हमेशा सबल और दबंग के पोषक होते हैं और कमज़ोर व निरीह के शोषक होते है, इसलिए उनकी पुरस्कार समितियाँ  भी सरकार और उसकी सत्ता का ही अंग होने के कारण, उनकी समर्थक होती है । अतैव  लेखक को उसके द्वारा  दिए गए पुरस्कार को रखना  असह्य हो जाता है । कहने की ज़रूरत नहीं कि कोई भी संस्था लेखक को नही, बल्कि ‘उसके विचारों और सम्वेदनाओं को सम्मानित करती है । ’ जब सत्ताधारियों की कोई भी संस्था, अमानवीय घटना को लेकर, सता के पक्ष में खडी होती है,  तो यह लेखक के विचारों और सम्वेदनाओं  का एक तरह से अनादर होता है कि कल तक जो संस्था लेखक के विचारों का सम्मान कर रही थी, आज वही उसके मूल्य और संस्कारो के विरुद्ध अत्याचारियो के पक्ष में चुप है ।

न जाने पुरस्कार लौटाने पर, लोग इतना हंगामा बरपा क्यों करते हैं..? पुरस्कार लौटा कर शान्ति से विरोध प्रदर्शन करना, सौम्य  और  मृदु स्वभाव लोगो का  शुरू से एक भद्र तरीका रहा है ! अगर आपको  याद हो, रवीन्द्रनाथ टैगोर ने, जलियांवाला हत्या कांड के विरोध में, ब्रिटिश  सरकार द्वारा  दी गई, ‘नाइटहुड’ की  उपाधि वापिस कर दी थी । फणीश्वरनाथ रेणु ने आपातकाल के विरोध में अपना  ‘पद्म श्री’’ सम्मान लौटाया  था । दिल्ली में होने वाले  सिक्ख विरोधी दंगों से आहत होकर,  खुशवंत सिंह ने अपना ‘‘पद्म भूषण’’ लौटा दिया था।  ठीक इसी तरह, 2015  में अशोक वाजपेयी हो, या, उदय प्रकाश हो या नयनतारा सहगल या मुनव्वर राणा या  वीरान्ना माडीवलार, टी सतीश जावरे गौड़ा, संगामेश मेनासिखानी, हनुमंत हालीगेरी, श्रीदेवी वी अलूर, चिदानन्द, सबने  सरकारी पुरस्कार  लौटाकर अपना विरोध जताया ।

‘पुरस्कार प्रत्यावर्तन’ सदियों से एक सार्वभौम परम्परा  रही है । विश्वपटल  पर अगर हम देखे तो पाएगें कि  अस्तित्ववादी दर्शन के प्रतिष्ठापक, प्रख्यात  फ्रांसिसी  लेखक ‘ज्यां पॉल सार्त्र’ ने 1964 में  नोबेल पुरस्कार लेने से इंकार कर दिया था। हालाँकि सता ने और सम्भ्रान्त समाज ने सार्त्र के निर्णय का सम्मान किया !  लेकिन पत्रकारों ने  इसे एक सनसनीखेज संमाचार की तरह उछाला ।

सार्त्र  ने हमेशा व्यक्तिगत सोच के तहत, सम्मानों को अस्वीकार किया ! कहते है कि 1945  के  युद्ध के बाद  सार्त्र को Legion of Honor नामक पुरस्कार   दिया गया था ।  पर, उन्होंने लेने से मना कर दिया  । उनका दर्शन बड़ा पारदर्शी  और उदात्त  नैतिकतावादी था । लेखक के जोखिम भरे प्रयास  के प्रति उनकी अपनी एक  अन्तर्दृष्टि थी, Vision था । उनके  अनुसार जब कोई  कलमकार किसी सामाजिक या राजनीतिक मुद्दों को लेकर अपना विरोध प्रदर्शित करता है, तो उसके पास आक्रोश और  विद्रोह ज़ाहिर करने का जो एकमात्र उपादान होता, एक मात्र  शस्त्र  होता  है,  वह है – ‘उसकी कलम से निकले शब्द ’   – (‘ज्यां पॉल सार्त्र’) ।

 उन्होंने एक बहुत ही गहरी बात कही थी । वह यह कि जब कोई भी पुरस्कार प्राप्त  लेखक,  समाज में  किसी ‘अमानवीय’  घटना के शिकार हुए व्यक्ति या समूह के लिए अपनी  सम्वेदनाओं को अभिव्यक्त करता है, तो  उस स्थिति में उसकी सम्वेदना-अभिव्यक्ति मात्र उसकी अकेले की  नही रह जाती, बल्कि  जिस संस्था ने उसे  पुरस्कार दिया है, उसकी भी हो जाती है । क्योंकि  पुरस्कार ग्रहण करने की वजह से वह उस  संस्था से जुडा  हुआ  माना  जाता है, तो वह ‘सम्वेदना-अभिव्यक्ति’ उस पुरस्कारदाता  संस्था का भी हिस्सा  हो जाती है । जबकि पुरस्कारदाता  संस्था  की  सम्वेदनाएँ उस अमानवीय  कृत्य के  भुक्तभोगी के प्रति कतई नही होती । लेकिन जब लेखक पुरस्कार लौटता है, तो वह अपने को उस सरकारी  संस्था से अलग कर लेता  है और तब उसका विद्रोह व आक्रोश उसका निजी नज़रिया हो जाता है, जिस पर  कोई सरकारी  नेता या संस्था या अफसर किसी तरह का दबाव नही बना सकते ।

मेरा सवाल है कि इस मनोविज्ञान के तहत पुरस्कार लौटाने में बुराई क्या है ? पुरस्कार लौटाया जाना, नितांत  स्वागतेय और  सराहनीय   है । इसके अलावा  लेखकों की जमात नकली, निकृष्ट, बनावटी और कलहकारी  कैसे है ? अगर लेखक की कविताएं  और आलेख विभिन पत्रिकाओं में छपते हैं, उसकी क़िताबें छपती हैं, तो यह कोई  हिंसक या समाज विरोधी कार्य तो है नहीं । लेखक की किताबें नहीं छपेगी तो फिर किसकी किताबे छपेगी ? आलोचना और छीछालेदर के लिए कोई मुद्दा नहीं मिला  तो, लेखक के आलेख, कविताएँ  और किताबे छपने के उदात्त कृत्य पर ही निशाना साधा जाने लगा ? जो लेखक के लेखकीय कर्म की आलोचना करे,  उसे ज़्यादा लिखने और पढ़ने से पथराये हुए व्यक्तित्व वाला, शुष्क विचारों वाला,  बोर व्यक्तित्व वाला, कहे,  ऐसे  रुग्ण मानसिकता वाले लोग ज़रा अपने गिरेबान में झांक कर देखें कि वे कितने असामाजिक सोच वाले है कि लेखक और लेखकीय कर्म को ही निकृष्ट बताने लगे । यह कहाँ का न्याय है, यह कैसी अस्वस्थ सोच है ? हमारा समाज किस दिशा में जा रहा है ? बहुत शोचनीय स्थिति है । सब ज़रा मिल कर आज के इन हालत प्र गम्भीरता से विचार करें और देश व समाज की बेहतरी के बारे में सोचें ।

About the author

दीप्ति गुप्ता

पूर्व प्रोफैसर, (क्रमश: तीन सर्वोच्च विश्वविद्यालयों में कार्यरत रहीं : रुहेलखंड विश्वविद्यालय,बरेली, जामिया मिल्लिया इस्लामिया, नई दिल्ली एवं पुणे विश्वविद्यालय, पुणे.वर्ष 1989 में ‘मानव संसाधन विकास मंत्रालय’, नई दिल्ली में ‘शिक्षा सलाहकार’ पद पर तीन वर्ष के डेप्युटेशन पर राष्ट्रपति द्वारा, नियुक्ति (1989 -1992) !
सम्प्रति साहित्य को समर्पित व अनवरत सक्रिय साहित्य सृजन (कहानी, उपन्यास, कविता, संस्मरण, समीक्षा, आलेख)

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