आलेख

अश्विन का उत्सवी आकाश

चित्र : साभार गूगल

लिली मित्रा ।।

अश्विन मास के लगते ही प्रकृति जैसे देवी-देवताओं के धरा आगमन की तैयारी में जुट जाती है। गणेशोत्सव के साथ शुभ का शंखनाद आरम्भ हो जाता है। आकाश का नीलाभ जैसे खुद को श्रावणी वृष्टि से धो पोछकर नीलम रत्न सा चटख चमकदार हो जाता है। ग्रीष्म के ताप से वाष्पित बिन्दुओं से भरे काले मेघ बरस कर भारमुक्त हो चुके हों जैसे ,सब पतंग से हल्के हो कर श्वेतमाल से नील गगन पर इधर-उधर उत्सव की तैयारी में जुटे तत्परता से तैरते नज़र आने लगते हैं।

आसमान पर जैसे होड़ मची है उत्सवी शामियाना सजाने की। धरा ने भी खुद का श्रृंगार उतनी ही कुशलता से करना आरम्भ कर दिया है। धुले-धुले से गाछ-पात, हरित दूब के नरम गलीचे, हरश्रृगांर के फूलों से लदे पेड़, जो हवा के स्नेहिल स्पर्श से किसी नवयौवना की चंचल हंसीं से घास पर बिखर पड़ते हैं । हवा का नटखट झोंका भरकर स्वयं में, शिवली का सुवास बह निकलता है आत्मशीतल कर अन्यत्र कहीं। दूब का फैला आंचल एकत्र कर प्राजक्ता के फूल, गुथने लग जाते हैं पुष्पमाल बन देवी को अर्पित हो जाने के लिए ।

जल से लबालब नदियां अपने यौवनी उन्माद में किल्लोल करती अलमस्त बही जा रही हैं । सूर्य की रश्मियों की गुनगुनाती ऊष्मा से उल्लासित होकर उसकी अल्हड़ता मृणालिनी बन चली है। धरानहा कर निकली है नदिया के तट पर, धारण करने को लहलहाते कास-पुष्पी वसन जिसका लहराता आंचल बार-बार उद्धत है छूने को आकाश ।

उधर गांव में ढाकियों ने शुरू कर दिया है अभ्यास, दे रहे हैं दिन-रात ढाक पर एक नव आशा की थाप! इस बार ‘माँ’ आएगीं उनके लिए लेकर शुभ उन्नत जीवन का आशीर्वाद। जिससे दूर होंगें उनके संताप। छोटे बालकों हाथों में लिए कास्य थाल, मिला रहे अपने पितृ संग ताल, उन्हे है आस,इसबार माँ लाएगीं उनके लिए स्वादिष्ट भोग-प्रसाद। स्त्रियां मन में संजोने लगी हैं नए स्वप्न , स्वामी कमा कर लाएगा कुछ अधिक ‘मूल’ इसबार, नूतन-वस्त्र,आलता-सिन्दूर के साथ । उनका असली उत्सव तो शुरू होता है ‘माँ’ के वापस जाने के उपरान्त । जब लौट कर आते हैं उनके स्वामी परदेस से ।

हर हृदय में घुलने लगी है उत्सवी श्वास, होंगें कितने ही परिवार एकत्र एक वर्ष बाद। वयोवृद्ध माँ-पिता आशान्वित हैं, आने वाले हैं पुत्र-पुत्रवधु और पोते-पोतियां। सब मिलकर बिताएगें कुछ सुखद क्षण फिर एकबार। धरा, गगन,मानव मन सब जुट गए हैं ‘देवी के आगमन’ की तैयारी में।’पितृपक्ष’ की समाप्ति और ‘मातृपक्ष’ का शुभारम्भ। महालया के दिन कुम्हारटोलियों में बन रही माँ दुर्गा की प्रतिमाओं को किया जाता है ‘चक्षुदान’ । भोर के प्रथम प्रहर से’चंडीपाठ’ देवी आगमनी गीत सुनाई देने लगे हैं, हृदय में बज उठे हैं उत्साह के ढाकनाद।

‘माँ’ के मायके आने की प्रतीक्षा बड़ी बेसब्री से है। ऐसा माना जाता है, कि माँ दुर्गा पाँच दिनों के लिए सपरिवार (गणेश, लक्ष्मी, कार्तिकेय, सरस्वती) अपने मायके आती हैं। मायके आने का आनंद क्या होता है, यह किसी विवाहिता से बेहतर कोई नही जानता। बस इसी आनंद में मायके वाले भी उत्साहित और माँ दुर्गा भी उल्लासित । नूतन वस्त्र, नूतन साज, स्वजनों से मिलन और देर तक पूजा-पंडाल में दोस्तों के साथ हंसी-ठहाके, सांस्कृतिक-कार्यक्रम, भोग-प्रसाद, पूरी तरह से आनंद ही आनंद।

अश्विन मास का नीला आकाश, हरश्रृगांर के पुष्पों से सुरभित बयार, मन में उल्लास, ढाक की ताल पर झूमते ढाकी, लोहबान की खुशबू से सुगंधित ‘धुनूचीनाच’ के साथ माँ की संध्या आरती । यह कल्पना कि शुभ की मंगलकामना लिए ‘माँ’ आ रहीं हैं मन आनंद की पूर्वानुभूतियों से आन्दोलित और आनंदित हो नर्तन कर उठता है ।

जय माँ दुर्गा

About the author

lily mitra

मेरी अभिव्यक्तियाँ ही मेरा परिचय
प्रकाशित पुस्तकें : एकल काव्य संग्रह - 'अतृप्ता '
: सांझा संकलन - 'सदानीरा है प्यार ', शब्द शब्द कस्तूरी ''

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