राधिका त्रिपाठी II
कहते हैं जीवन में निराशा जब अपने चरम पर होती है और हताशा घुट-घुट कर गले से अंतरात्मा में उतरने लगती है, तन का दुख जब मन का दुख बन जाता है, उसी वक्त दिखाई देती है एक नई रोशनी और एक नया रास्ता। कोई अजनबी देता है अपनी गर्म उंगलियों को थामने के लिए। तब आपके हाथ खुद ब खुद उन उंगलियों को पकड़ने के लिए स्वत: आगे बढ़ जाते हैं।
जीवन के मात्र आठ बरसों ने ही उस अबोध बालिका को वयस्क बना दिया था, वह चुप और शांत सी रहने लगी, वह जान चुकी थी कि पिता के बिना मां और वह पुरूष प्रधान समाज में एक अवसर की तरह ही है। डेढ़ वर्ष की आयु में अपने पिता को खो चुकी थी। आठ वर्ष की आयु में पहुंचते-पहुंचते उसके जीवन में बहुत कुछ घटने लगा था, उसे श्वेत कुष्ठ हो गया था जो लाख इलाज कराने पर भी ठीक नहीं हुआ, वह लोगों की हेय दृष्टि का शिकार होने लगी। लोग दिन के उजाले में उससे दूर भागते और रात के अंधेरे में नोचने चले आते। वह आम बच्चों की तरह खेल नहीं सकती थी सभी के साथ। लोग उसे भगा देते अपने घरों से कि कहीं उन्हें न हो जाए यह बीमारी। उसकी ख़ूबसूरती अब बदसूरती में तब्दील होने लगी। चेहरे से लेकर हाथ, पैर में सफेद दाग फैलने लगा। वह बच्ची खुद में डरी-सहमी कैद सी रहने लगी अन्य बच्चों की तरह उसका बचपना नहीं बीता। वह एक साथ दो बीमारी से लड़ रही थी- एक शारीरिक और दूसरी मानसिक।
अठारह साल बीतते ही उसकी शादी की बातें होने लगीं। वह बीमारी छिपा कर शादी नहीं करना चाहती थी तो उसने उस लड़के से मिल कर सारी बातें बताई और कहा कि आप चाहें तो शादी के लिए मना कर सकते हैं, हम हमेशा एक दोस्त की तरह रहेंगे। लड़का उस लड़की का हाथ पकड़ कर कहता है कि जिस विश्वास के साथ तुमने मुझे यह सब बताया, उसी विश्वास के साथ क्या तुम मेरा साथ जिंदगी भर दोगी? क्या तुम मेरी जीवन संगिनी बनोगी? कुछ क्षण बाद दोनों के होठों पर एक मुस्कान आ जाती हैं… शादी वाले दिन लड़का, लड़की को फोन कर कहता है-सुनो, तैयार रहो मैं तुम्हें लेने आ रहा हूं…।
- जैसे कैद में कोई चिड़िया उड़ने की चाह मन में भर कर अपने पंखों को फड़फड़ाती है और खुद जख्मी कर लेती है, ठीक इसी तरह बीमारियों से ग्रस्त बच्चे खो देते हैं अपना बचपना। वो देखना बंद कर देते हैं कोई ख़्वाब और खो जाते हैं गुमनामी के अंधेरे में। जरूरत है समाज ऐसे लोगों को शापित न समझें। हौसला दें ताकि किसी बच्चे का बचपन उनसे न छीन लिया जाए।
आज दोनों दो बच्चों के माता पिता हंै और बच्चों को श्वेत कुष्ठ भी नहीं है। वे पूरी तरह स्वस्थ हैं। वे जान चुके हैं कि जिंदगी की राह इतनी आसन नहीं। जीने के लिए जूझना पड़ता है और वे अपने बच्चों को, आसपास के लोगों को श्वेत कुष्ठ के बारे में जागरूक कर रहे हैं कि श्वेत कुष्ठ छूने, चूमने या फिर जूठा खाने, साथ रहने से नहीं फैलता। यह एक भ्रामक बीमारी है, शरीर का रंग उड़ जाता है बस और उस जगह सफेद रंग की त्वचा हो जाती है।
कभी-कभी सोचती हूं कि उस बच्ची के वे दिन कैसे बीते होंगे या फिर उसने कैसे उन दिनों को बिताया होगा…। जैसे कैद में कोई चिड़िया उड़ने की चाह मन में भर कर अपने पंखों को फड़फड़ाती है और खुद को जख्मी कर लेती है, इसी तरह बीमारियों से ग्रस्त बच्चे खो देते हैं अपना बचपना। वो देखना बंद कर देते हैं कोई ख़्वाब। और खो जाते हैं गुमनामी के अंधेरे में। जरूरत है समाज ऐसे लोगों को शापित न समझें। हौसला दें ताकि किसी बच्चे का बचपन उनसे न छीन लिया जाए। वे खोल सकें अपने पंखों को, देख सकें ख़्वाब और समझ सकें कि वे भी इसी समाज का अभिन्न अंग हैं…। और हर कदम एक नई जंग वे लड़ सकें।
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