शंभूनाथ शुक्ल II
औद्योगिक क्रांति के बाद जब शहरों का विस्तार हुआ, तब ज्यादातर त्योहार अपने-अपने समाज के बीच केंद्रित होने लगे।
अभी कुछ दशक पहले तक सितंबर/अक्तूबर की छुट्टियों को ‘पूजा फेस्टिवल’ कहते थे। पूरे भारत में पूजा की छुट्टियां साथ होती थीं। और हर शहरी इन छुट्टियों में या तो अपने गांव-घर जाता था या फिर घूमने निकल जाता। इसकी वजह थी कि भारत में घूमने के लिए यह मौसम अनुकूल है। न सर्दी, न गरमी, न ही बरसात । और हर जगह उसे इन त्योहारों का आनंद मिलता। विंध्य के पार के भारत में भादों के शुक्ल पक्ष से गणेशोत्सव शुरू हो जाता, तो पूर्वी भारत में क्वार के शुक्ल पक्ष से मातृशक्ति की उपासना उत्तर भारत में रामलीलाएं शुरू हो जातीं। एक तरह से पूरे देश में हर जगह रंग-बिरंगे परिधानों में सजे लोग दिखते।
आज बाजार की भाषा में इसे त्योहारी सीजन कहते हैं। श्राद्ध खत्म होते ही यह सीजन शुरू हो जाता है। नवरात्र, विजयदशमी, करवा चौथ, दीपावली, कार्तिक पूर्णिमा (गुरु नानक जयंती) से लेकर 25 दिसंबर बड़ा दिन तक यह सीजन अनवरत चलता रहेगा। लेकिन जैसे-जैसे बाजार बढ़ता है, त्योहारों की विशिष्ट पहचान छीजती जाती है। त्योहार अपने वैशिष्ट्य के कारण जाने जाते थे। उनकी एक क्षेत्रीय पहचान होती थी। मगर अब वह पहचान एक सर्वकालिक पहचान बनती जा रही है। मॉल में जाकर खरीदारी कर लेना, मौज-मस्ती कर वापस आ जाना, बस यहीं तक त्योहार रह गया है। त्योहार का जो उल्लास था, वह बहुत नहीं बचा।
पिछले दो वर्षों से तो कोरोना ने त्योहारों की खुशी को बंद कर रखा है। कल ही दिल्ली से लौटते समय टैक्सी ड्राइवर कह रहा था- सर, आजकल कमाई एकदम ठप है। दिन भर में कोई एक या दो सवारी मिलती है। त्योहार आ रहे हैं, कैसे खुशी मनेगी? सुनकर ऐसा लगा, जैसे ईदगाह कहानी में हामिद की दादी अमीना बोल रही है, ‘साल भर का त्योहार तीन किस-किस से मुंह चुराऊंगी? धोबन, नाइन, इस मेहतरानी, चूड़ी हारिन सब तो अपना नेग मांगेगी। और क्यों न मांगें, आखिर त्योहार रोज-रोज नहीं आता है!’ इस पीड़ा के पीछे कोरोना, महंगाई का दर्द तो छिपा ही था, साथ में त्योहार में एक गृहस्थ के राजा होने का सुख भी। भारत के सारे त्योहार, पर्व धन-धान्य से जुड़े हैं। जब फसल पकी, कटी और अनाज घर आया, तो खुशियां भी आईं। और यही त्योहार का उल्लास है। लोग भी फुरसत में होते हैं। मिलना-जुलना होता है। इसी के साथ खुशियां सबको बांटी जाती हैं। परिवार में ही नहीं, किसानी समाज की उस ‘परजा’ को भी, जो किसान के लिए सहायक होते हैं। इसीलिए भारतीय ग्राम्य व्यवस्था में किसान को राजा माना गया है। बाकी पेशेवर समुदाय के लोग, पुरोहित भी, परजा है। अर्थात’, जिनकी भूमिका सहायक की है और जो उत्पादन कार्यों से सीधे नहीं जुड़े हैं, वे सब परजा हैं।
लेकिन औद्योगिक क्रांति के बाद जब शहरों का विस्तार हुआ, तो ये त्योहार अपने-अपने समाज के बीच केंद्रित होने लगे। महाराष्ट्र में बाल गंगाधर तिलक ने गणेशोत्सव शुरू किया, तो बंगाल में दुर्गा पूजा एक सार्वजनिक उत्सव के रूप में मनाया जाने लगा। रवींद्रनाथ टैगोर ने बोलपुर में बसंतोत्सव की शुरुआत की। बंगाल बिहार, ओडिशा, असम और सारा पूर्वोत्तर दुर्गा पूजा को पूरे उत्साह से मनाता, तो दक्षिण भारत गणेशोत्सव गुजरात में इसके साथ गरबा भी जुड़ा। चूंकि भारत का तीन चौथाई हिस्सा धान या चावल का उत्पादक है, इसलिए यहां के त्योहार उतरते भादो-क्वार (सितंबर, अक्तूबर) में ज्यादा उल्लास से मनाए जाते। किंतु, उत्तर भारत की मुख्य फसल रबी की है, अत: यहां पर चैत्र की नवरात्रि का महत्व अधिक है। पंजाब का भांगड़ा और गिद्धा भी इसी पर्व बैशाखी से जुड़े। उत्तर प्रदेश में रबी और खरीफ, दोनों फसलें होती हैं, इसलिए चैत्र की नवरात्रि के साथ रामनवमी जुड़ी, तो क्वार की नवरात्रि में रामलीलाएं और विजयदशमी। पर अब ये सारे त्योहार एक रस्म अदायगी बनते जा रहे हैं। रामलीलाओं में न वह समर्पण रहा, न दुर्गा पूजा में उल्लास का भाव। वे बस एक तारीख बनकर रह गए हैं। अब चाहे दिल्ली की रामलीला हो, या कोलकाता की दुर्गा पूजा अथवा मुंबई में गणेश का उत्सव, इन सबमें न कोई मिलना-जुलना होता है, न कोई ललक।
- दुर्गा पूजा में बंगाली नौजवानों की दिलचस्पी अभी बनी हुई है। वाम मोर्चा सरकारों के समय भी युवा इन पूजा पंडालों से जुड़ा था और ममता बनर्जी के समय भी। इसलिए इस परंपरा में तमाम नए प्रयोग भी हुए। चमक-दमक तो बढ़ी है, किंतु पूजा पंडालों को सजाने के मार्फत कई नए तरह के प्रयोग भी होते हैं। अंतरराष्ट्रीय घटनाओं को भी चित्रित किया जाता है
पहले रामलीला देखने के लिए बच्चे, बूढ़े और युवा अपने-अपने घर से बिछावन लेकर जाते थे, ताकि दो बजे रात तक चलने वाली रामलीला को वे आराम से देख सकें। बल्कि, उत्तर प्रदेश में कानपुर, लखनऊ और इलाहाबाद मंडलों में धनुष यज्ञ लीला का तो विशेष महत्व था। यह रात नौ बजे से शुरू होकर सुबह सात बजे तक निर्बाध चलती थी। इसमें एक ही लीला थी। राजा जनक के दरबार में राम शिव धनुष तोड़ते हैं और उसकी आवाज से परशुराम वहां आ जाते हैं। इसके बाद परशुराम और लक्ष्मण में खूब वाद-विवाद होता है। अंत में, राम दखल देते हैं और मामला शांत हो जाता है। लक्ष्मण परशुराम संवाद के दौरान कई बार दोनों पात्र स्वरचित कविताएं सुनाते और अक्सर वे तत्काल कविता बना लेते। इससे और कुछ हो, न हो, कविता एवं साहित्य के प्रति लोगों में दिलचस्पी पैदा होती थी। धीरे-धीरे बाजार के दबाव में इन लीलाओं में फूहड़ता आती गई और अनेक लोग भी इनसे विमुख हो गए।
शुक्र है कि दुर्गा पूजा में बंगाली नौजवानों की दिलचस्पी अभी बनी हुई है। वाम मोर्चा सरकारों के समय भी युवा इन पूजा पंडालों से जुड़ा था और ममता बनर्जी के समय भी। इसलिए इस परंपरा में तमाम नए प्रयोग भी हुए। चमक-दमक तो बढ़ी है, किंतु पूजा पंडालों को सजाने के मार्फत कई नए तरह के प्रयोग भी होते हैं। अंतरराष्ट्रीय घटनाओं को भी चित्रित किया जाता है और राजनेताओं का मखौल भी उड़ाया जाता है। यही हाल गणेश पूजा में भी है, लेकिन इसके विपरीत उत्तर भारत की रामलीलाओं में ये अभिनव प्रयोग नहीं हुए। अलबत्ता उन्हें फूहड़ जरूर बना दिया गया। यही वजह है कि मुंबई या कोलकाता में रामलीला नहीं है। दिल्ली में भी उसका क्रेज खत्म हो रहा है।
आने वाले वर्षों में त्योहार एक प्रतीक बनकर रह जाएंगे। न उनमें उल्लास बचेगा, न परस्पर मेल-जोल की ललक। जिस तरह से त्योहार का अर्थ घर की खरीदारी तक सिमटती जा रही है, उससे हर त्योहार, मेले या पर्व का मतलब होगा, किसी बड़े मॉल में जाकर राइड ले लेना और लौट आना।
साभार हिंदुस्तान समाचार पत्र से
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
उत्सवों के वर्तमान और भविष्य पर टीका करता ये लेख काफ़ी विचारोत्तेजक है।