कविता काव्य कौमुदी

प्रत्यंचा

उर्वशी भट्ट।।

मैं नहीं जानती हूँ
सहनशीलता शब्द से तुम्हारे
सभ्य समाज के
संदर्भित अर्थ क्या हैं?

मैं बस, हर बार
एक और कोशिश करना चाहती थी
इस प्रण के साथ कि
यह अंतिम होगा
बिखेरने से ज्यादा मुझे बनाए रखने और
खोने से ज्यादा
सहेजने में रुचि है

पर तुम
प्रयासरूपी नींव में नवनिर्माण का
प्रस्तर रखते ही
रास्ता भटके किसी
उद्दाम प्रवाह की भाँति आकर
मुझे पुन: शून्य पर पहुँचा देते हो

सुनो
मैं अभी अभी जागी हूँ
एक स्वप्न से
जिसमें भय की रिदम पर मैंने अपने स्वप्न को
लहूलुहान देखा है
जीवन के आनंद से
प्रफुल्ल अन्तस् को
उदास देखा है
मेरी तरफ अपनी पीठ किए
चलते रहो
बहुत बहुत दूर निकल जाओ
मैं जीवन के हाशिये पर
प्रत्यंचा थामे खड़ी हूँ
तुम पलट कर मत देखना
कि फिर मैं
यथासामर्थ्य वार करूंगी

क्योंकि तुमने मुझे
जीवित छोड़ दिया है।

About the author

डॉ उर्वशी भट्ट

जन्म स्थान - डूंगरपुर राजस्थान
कार्य- स्वतंत्र लेखन व अध्यापन
प्रथम काव्य संग्रह - "प्रत्यंचा" ( साहित्य अकादमी के सहयोग से प्रकाशित)

1 Comment

Leave a Comment

error: Content is protected !!