कहानी

हिन्दी कहानी ‘ फेरूआ ‘

बिम्मी कुँवर II

जौनपुर से तबादला होकर डाक्टर साहेब बाराबंकी के जिला अस्पताल में ज्वाइन किये थे। घर के खानसामा एक एक कर अपना परिचय देकर अपने काम में लगते गये , तभी कोई छह फुट का तकरीबन बीस बाईस साल का गोरा चिट्टा, एक हाथ में पाँच और एक हाथ में चार अंगुली(गांव में दो गुटों की लड़ाई में हथगोला चला उसी में अगूंठा उड़ गया था ) वाला नवयुवक सामने आकर बोला ” रमाकांत शुक्ला नाम है हमारा ,वइसे तो हम चपरासी में भरती हुए है पर काम हम कब्भौ नाही किये, काहे से कि हम बाभन है और घर का जूठ काठ ,चऊका बासन हमरे बस के बात नाहीन ,हमरी जगहा कवनो दूसर मनई करिहे समझो डाक्टर साहेब , वइसे भी हैदरगढ़ के विधायक जी हमरे खास रिश्तेदार हइन समझौ ” डाक्टर साहेब सकपका गये, अपने को सम्भालते हुए बोले ‘ठीक है भाई जो भी रहे , हमे तो काम से मतलब है लेकिन महीने में एक हफ्ता तो तुमको काम करना ही पड़ेगा ,हाजिरी और लोग बाग को अपनी शकल तो दिखा दोगे ,वरना कमप्लेन हो गयी तो समझे रहो, इस सरकार में बकसे नही जाओगे और हम भी फँसेंगे ” बात शुक्ला जी मान गये…..

अगले दिन कोई दस साल का साँवला रंग ,चेहरे पर मलिनता लिए , सूखे नेटा की सफेद धारी ठुड्डी तक लहरा रही थी, सरकती पैन्ट,आँखों मे उदासी छायी, बगल में बरसाती दाबे आकर खड़ा हो गया मेम साहेब के सामने शुक्ला जी बड़े गरूर में बोले “मेमसाहब यही रहेगे हमरी जगहा पर इँहा, इनको पाचँ सौ रूपया महीने पर तय कर के लाये है , यही आपके घर में रहेगे, खाना पीना आप देओ बो और पाचँ सौ रूपया हम देबे , महीना दूई महीना में अपने घरा मा चल जईहे इ ,बाकिर  यहकर मयभा महतारी हौ, तो नाहियो जाई घरे तो कवनो बात नाही,ऐकरे महतारी के पाचँ सौ रूपली चाही हर महीना मा बस्स ” डाक्टर साहेब की अम्मा उसको ऊपर से नीचे तक निहारने के बाद ,आचंल से अपने नाक को ढकते हुए बोली , “कौने बिरादर के हौ बचवा” पांव के नाखून से आँगन की मिट्टी को खुरचते हुए वो बोला ” तुरहा ” फिर अम्मा जी का अगला प्रश्न “नाम का हौ तोहार”सिर को हल्के से उठाकर नजर मिलाने की भरसक कोशिश करते हुए बोला “फेरूआ” अपनी बहू की तरफ देखकर माता जी बोली” दुल्हिन हम ऐकरे हाथे का बना नाही खऊबे समझौ, इ चऊका में नाही घुसी, बाहिर के काम करा लो चाहे तो “डक्टराईन बोली” अम्मा जी खाना तो हम बना लेगे, ये बरतन का काम और कुत्तों की देखभाल कर लेगा”

अम्मा जी अइसे सहमति में सिर हिलाई जइसे कोई बहुत कठिन काम अरसे से ना हो पा रहा हो ,और वो हां कहके एहसान कर रही हो। डाक्टर साहेब के घर में दो दो डाबरमैन थे, काहे से कि उस समय कच्छा बनियान गिरोह का आतंक बाराबंकी, उन्नाव, लखनऊ के आसपास अपने चरम पर था । फेरूआ का काम सुबह शाम घर के लान और किचन गार्डन में घास निकालना,और गोड़ाई सोहाई  करना था, फिर दोनो कुत्तों को घुमाने, नहलाने का काम, बरतन धुलना,शाम होते होते वो थक जाता था ।
डक्टराईन दिल से बहुत गऊ महिला थी जब उनके बच्चे दूध बिस्कुट खाते, वो उसको भी अम्मा जी के चुपके कप में दूध डालकर चार पाँच रोटी उसके ऊपर रख कर हर शाम खाने को दे देती थी।

अम्मा जी को ये सब ना भाता वो बहू पर खुन्नस निकालते हुए बोलती “बस दुई जून खाना देहल करा दुल्हिन, अपने घरा मा इ का बीस बेर खात रहेन ” दिन बीतता गया और देखते देखते छह महीने में ही फेरूआ का मैला कुचैला चेहरा चमक गया ,उसके गाल भर गये , तेल लगाकर बाल संवार कर वो रहने लगा ,पुराने शर्ट को भी साफ सुथरा करके पहनता, जो मिल रहा था शायद वो उसकी कल्पना भी कभी नही किया था, इसलिए वो खुश रहता था, अक्सर रात को सोते समय वो कुछ गुनगुने लगता था, अब वो अपने गाँव कम ही जाता था। अम्मा जी उसको बिल्कुल पसंद नही करती थी,जब भी वो खाना खाने बैठे तो अम्मा जी नब्बे डिग्री  झुक कर उसके प्लेट को निहारती कि दुल्हिन ने कितना रोटी दिया ,सब्जी ज्यादा तो नही दे दी, खीर भर कटोरी तो नही है ,
वो माँस मछली देखते नाक बंद करके भागती थी पर फेरूआ का प्लेट जरूर देखती कि माँस, मछली का टुकड़ा ज्यादा तो नही मिल गया । वो उसको हर वक्त ताना मारती” कइसे करजा छोढ़उबे फेरूआ, अइसन भोजन तौ तोहके सपनो में नाही नसीब होत, हमरे बेटवा के घर मा आके तो तु मोटाए के कुड़ा होए गयो रे” वो कुछ नही बोलता, बस मुस्कुरा देता या कुछ गुनगुनाने लगता था, सूनी सन्नाटेदार आखें देखकर समझ नही आता कि वो अपने नसीब को कोस रहा है या धन्यवाद दे रहा है । अब फेरूआ अम्मा जी का स्वभाव जान गया था ,वो खाना लेकर बैठते ही सब्जी को रोटी से ढक देता और खीर चुपके से पी जाता, और नाटक करके सूखी रोटी तब तक चबाता जब तक अम्मा जी उसके आगे से हट ना जाती । कभी कभी वो दया करके डक्टराईन से बोलती
“अरे दुल्हिन ऐहका अचार देइ दो, दिनभर खटत है, काम करत करत, सूखल रोटी कइसे खाई” डक्टराईन भी फेरूआ की बदमाशी समझती थी और धीरे से मुस्कुरा कर उसको अचार दे देती थी ।

1992 मार्च का महीना था ,वर्ल्ड कप चल रहा था , मैच खत्म होने के बाद सभी सदस्यों को सोते सोते करीब बारह बज गये, अम्मा जी गरमी की कारण आँगन में चौकी पर सोती थी और आँगन में ही नीचे फेरूआ अपना बिस्तर बिछाकर सोता था, अभी सबको पहली नींद ही आयी थी कि तकरीबन साढ़े बारह बजे छत पर धम धम की आवाज आने लगी। डक्टराईन और उनकी बड़ी बेटी गहरी नींद में नही गये थे । उन्हें लगा रात को लंगूरों का झुंड वापस जा रहा होगा, फिर ख्याल कौंधा कि अरे इतनी रात को लंगूर तो नही जाते, तभी अम्मा जी के चिल्लाने की आवाज़ आयी “अरे बचवा हमका बचाओ रे बचवा” खिड़की से जब डाक्टर डक्टराईन झांकें तो उनका कलेजा मुहँ को आ गया, कोई दस से बारह लोग कच्छा बनियान में मुँह को काले कपड़े से बाँधें, हाथ में लाठी लिये ,अम्मा जी पर टूट पड़े, तीन चार लोग घर के बंद दोनों दरवाजों पर ठाक ठाक करके वार करने लगे, और दो लोग कुत्तों को लाठी से ताबड़तोड़ पीटने लगे।

डाक्टर साहेब असमंजस की स्थिति में पड़े हुए इस कमरे से उस कमरे में भाग रहे थे, कि साथ में दो सयानी लड़कियां, पत्नी  और बाहर माँ जो लाठी खा रही है ,करें तो क्या करें, दरवाजा खोल मां को बचाते है तो बीबी और दोनो बेटियों का ख्याल पग में बेड़ी बन जा रहा था, लैंडलाइन फोन से पुलिस को फोन किये, और जान बूझ कर तेज आवाज में बोल रहे थे ताकि वो डर कर भाग जाये।

इतने में फेरूआ ने अपनी बुद्धि का इस्तेमाल किया वो अपनी गुदड़ी के साथ ही अम्मा जी के ऊपर लपक कर  लेट गया, अब लाठी उसके ऊपर बरस रहा था, दरवाजा ना तो खुल रहा था ना ही  टूट रहा था, जिसके कारण वो सभी गिरोह वाले  गुस्से में उनके ऊपर ही वार पर वार किये जा रहे थे, तभी डाक्टर साहब की तेज आवाज में पुलिस से बात करते हुए उसमें से एक ने सुन लिया और सभी वहाँ से नौ दो ग्यारह हो गये ।

तकरीबन दस मिनट बाद पुलिस आयी, तब तक सभी वहां से गायब हो चुके थे, एक सिपाही को वही घर की रखवाली में छोड़कर, उसी गाड़ी से डाक्टर साहेब अम्मा जी और फेरूआ को लेकर अस्पताल की ओर भागे। अम्मा जी का दाहिना हाथ टूट गया था, ओपीडी में उनको प्लास्टर चढ़ने लगा, वो दर्द से छटपटा रही थी और फेरूआ का गुहार लगा रही थी” फेरूआ बचवा तू ठीक त हौ ना, कहां मर गयो रे मूअना बोलत काहे नाही हौ रे रामा” । फेरूआ के सिर पर लाठी से चोट लगने के कारण सिर से काफी खून निकल चुका था, उसको आपरेशन थियेटर में ले जाया गया, आधी रात का समय था इसलिए खून का इन्तजाम नही हो पा रहा था ,डाक्टरों की टीम पहुंच गयी थी तकरीबन दो तीन घंटे की कड़ी मशक्कत के बाद भी फेरूआ की स्थिति नाजुक बनी हुई थी। सुबह हो चुकी थी, अम्मा जी की निगाहें अब फेरूआ को ढूंढने लगी थी वो नर्स से बोली की उनको फेरूआ के पास ले जाये, उनके बहुत जिरह करने पर नर्स उनको व्हीलचेयर पर बैठाकर आपरेशन थियेटर के बाहर तक लायी । वो देवता पितर से चिल्ला चिल्ला कर फेरूआ को बचाने की मन्नतें मांग रही थी…अम्मा जी का क्रंदन फेरूआ के कानों में मिश्री जैसे घुल रहा था, वो अम्मा जी को पकड़ कर रोना चाहता था। शरीर त्यागने से पहले ही वो इस स्वार्थी जगत में पहली बार स्वर्ग की अनुभूति कर रहा था । आज एक कर्ज से मुक्त हो वो रूई के फाहे सा उन्मुक्त होकर आसमान की ऊँचाइयों पर उड़ते जा रहा था …अब अम्मा जी की आवाज धीमी होने लगी थी …फेरूआ हमार बचवा..ओ रे बचवा। जिन्दगी में पहली बार अम्मा जी फेरूआ के लिए दहाड़े मार मार के रोई ,आज अपने जने बेटे से सगा फेरूआ बन गया था । जिसको वो हर वक्त दुत्कारती रही, वो ही अपनी जान गंवा अम्मा जी के बेटे का कर्जा चुका गया। तो ऐसा था वो फेरूआ………

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बिम्मी कुँवर सिंह

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  • अत्यंत मर्मस्पर्शी व संवेदनशील कहानी के लिए लेखिका मान. बिम्मी कुँवर सिंह जी को हार्दिक बधाई। 💐💐

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