अजय कुमार II
बात काफी पुरानी है। काफी बरस पुरानी। एक रात के लिए एक बार मैं सोलन में रुका था, शिमला जाते वक्त, रास्ते में रुका भी क्या था, सब कुछ एक मजबूरी में हुआ था। मैं कसौली से शिमला जा रहा था और सोलन में ही शाम हो गई थी और मुझे बस स्टैंड पर चाय पीते-पीते लगा कि क्यूँ न अब शिमला सुबह ही चला जाए। एक रात आज सोलन में ही सही।
हर नई जगह वैसे भी मुझे रूकने का न्योता देती लगती है। किसी भी अजनबी जगह रूकने का एकाएक फैसला एक नया ही रोमांच भर देता है, आपकी घुमक्कड़ी में। यूँ मैं हमेशा पहाड़ों में बारिश का मौसम खत्म होने के बाद ही जाता हूँ। वजह यह कि इन दिनों वहाँ टूरिस्ट्स का रश बहुत कम होता है और दूसरी वजह ये कि दिन की सख़्त धूप, बरसातों के बाद कुछ मुलायम- सी हो जाती है। एक कढ़े हुए सिल्क के लखनवी कुर्ते की तरह, और ऐसे समय आप पूरा-पूरा दिन बिना थके और बिना पसीना पसीना हुए पैदल चलते हुए इधर-उधर घूम कर पूरा लुत्फ ले सकते हैं, और जो किसी दिन अगर ग़लती से पीछे रुका रह गया कोई बादल फिर से किसी सुबह या शाम में अनायास बरस जाए तो समझिए सोने पर सुहागा, उस रिमझिम में तो हर बात का मज़ा फिर दुगना हो जाता है। सोलन में भी मेरे साथ यही हुआ।
मैं जिस दिन सोलन में था, उस दिन शायद इतवार था और सितम्बर के बिल्कुल आखिरी दिन थे। अपना सामान होटल में रख कर मैं घूमता हुआ सोलन के एक छोटे से पार्क में आ बैठा था। तभी रिमझिम बारिश शुरू हो गयी, पर वो कुछ मिनटों में ही थम गयी। बरसात के बाद हल्की हवा से मौसम कुछ ज़्यादा ही खुशगवार हो गया था। टीन शेड के नीचे एक बैन्च पर बैठा हुआ मैं आँखें बन्द कर के अपने ही कुछ ख्यालों में गुम था कि तभी एक आवाज़ मुझ तक आई, ‘एक्सक्यूज मी….’
चौंक कर देखा सामने एक बत्तीस-चौंतीस साल की युवती खड़ी थी, करीने से कटे हुए बाल, जीन्स और आधी बांह का कुरता, हाथ में एक छोटा-सा पर्स और औसत से कुछ गोरा रंग। पैरों में स्पोर्टस जूते और होठों पर दोस्ती की मुस्कुराहट… ‘आप अकेले हैं… मेरा मतलब आज रात…।’ मैं उसकी बात सुन कर ही चौंक गया… ‘मतलब… आप कहिए न… क्या चाहिए आपको…?’
मुझे उसका लहजा कुछ अजीब-सा लगा और बेवजह कुछ ज्यादा ही बेतकल्लुफ-सा भी… ‘मैं यहाँ बैठ जाऊँ?” मैं बैंच पर थोड़ा एक तरफ सरक गया… ‘यस प्लीज… ये तो सरकारी जगह है…।’ कह तो दिया पर मैं समझ नहीं पा रहा था, आखिर उसकी मंशा क्या थी? अचानक मुझे लगा आज मैं ज़रूर ग़लत फंसने वाला हूँ। पर उसने मुझे और ज्यादा असमंजस में रहने ही नहीं दिया। बैंच पर बैठते ही पूरे इत्मीनान से बोली, ‘घबराइए मत… मैं भी अकेली हूँ आज यहाँ बिल्कुल आप की तरह, बस समझिए आपकी दोस्त बन सकती हूँ, एक रात के लिए।’ मैं कुछ बोल पाऊँ इससे पहले वह फिर से बोल पड़ी, ‘देखिए… चौंकिए मत, मैं बस स्टैन्ड पर ही थी जब आप वहाँ उतरे थे और मुझे ये भी पता है कि आप प्लाजियो में ठहरे हैं और फ्री हैं बिल्कुल मेरी तरह, मुझे एक्सपीरियंस है यह सब बातें पता करने का… और हाँ, मन नहीं है आपका तो कोई बात नहीं, मैं खामाख्वाह गले नहीं पड़ती किसी के, यूँ भी एकदम हार्मलैस हूँ मैं…।’ उसका ऐटिट्यूड सचमुच बड़ा ही प्रोफ़ेशनल था।
‘आप के अनुभव ने ये नहीं बताया आपको कि आज आपने एक ग़लत नम्बर डायल कर दिया है।’
‘वाकई… चलिए … फिर कभी मुलाकात होगी….’
कहते हुए वह बैंच से उठ खड़ी हुई … तब तक मेरा लेखक दिमाग सक्रिय हो चुका था, तपाक से बोला… ‘देखिए वैसे तो नहीं, पर आप चाहें तो कम से कम बातचीत से तो अपनी मुझे कंपनी दे ही सकती हैं… मैं चाहता हूँ कि आप से कुछ वैसे ही बातें कर सकूं।”
‘आई डू नॉट माइंड पर पैसे तो उसके भी लगेंगे….’
उसके होठों पर एक शरारती हँसी थी और आँखों में एक अज़ीब-सा कठोर खालीपन मैंने भी तसल्ली से कहा, ‘ठीक है… मगर कितने… ये बताइये….’
‘कल सुबह तक के हम्म… तीन… नहीं पूरे दो हजार ‘ ‘ठीक है… चलो… पर पहले कुछ खा-पी लेते हैं…।’
मुझे लगा वह कुछ सोच में पड़ गयी थी। अब मेरी बारी थी उसे कुछ परेशान और शर्मिन्दा करने की। वह कुछ कहे उस से पहले मैं फिर से बोल उठा… ‘खाने-पीने का सारा पैसा मैं दूंगा तय हुए आपके भाड़े के अलावा ।’ भाड़ा शब्द मैंने बड़ी ही कुटिलता से कहा, थोड़ा जोर दे कर। पर उसके चेहरे पर कोई भाव नहीं आया बल्कि उसकी तो जैसे आँखों की सारी दुविधा ही धुल गई और उसका चेहरा फिर से एक फूल की मानिंद खिल उठा।
पहले सड़क के किनारे एक थड़ी पर हमने चाय पी और फिर यूँ ही थोड़ा-सा टहलने के बाद एक ढाबे में मजे से खाना खाया। इस बीच मैंने उसे अपने घूमने-फिरने के बहुत सारे किस्से सुना डाले। और कुछ देर बाद तो मुझे ही मुगालता होने लगा कि मैं जैसे एक पुराने दोस्त के साथ बैठा हुआ चेमगोइयाँ कर रहा था। वह बच्चों की तरह अब खुल कर हँसने लगी थी। लगता ही नहीं था कि वह एक धन्धे वाली लड़की है। मैं हैरत में था और उधर रात के पूरे नौ बज चुके थे, इतना वक्त कैसे गुज़र गया, पता ही नहीं चला। आखिरकार मैं बोला… चलो होटल चलते हैं, बाक़ी बातें वहाँ चल कर करेगें।’ वह फिर ज़ोर से हँसने लगी… ‘यहीं कर लो तुम अपनी सारी बातें बातें जो भी तुम्हें करनी है… नहीं तो वहाँ कमरे में तुम कोई भी बात नहीं कर पाओगे… समझ गये….’
मैं उसकी बातें सुन कर कुछ झेंप-सा गया। इतना ही बोल पाया, ‘चलो तो सही… आज ये भी देख लेते हैं।’ रास्ते में होटल की तरफ जाते हुए अनायास मैंने उससे पूछा, ‘ये तो बताओ नाम क्या है तुम्हारा।’
‘प्रभा!’ एक संक्षिप्त-सा उत्तर आया… मेरे मुँह से एकदम निकला, ‘सच्चा या झूठा….’ एक गूंजती हुई हँसी के साथ जवाब आया, ‘इससे कुछ फर्क पड़ता है क्या?” मैं न चाहते हुए भी चुप-सा रह गया। होटल में अपने कमरे के अंदर कदम रखते ही एक बारगी जैसे मुझे खुद का ख़्याल आया… बाहर बाजार के शोर शराबे में ढाबे में खाना खाते वक़्त जो बात और जो शख़्स एक दूर की चीज़ लग रहा था, महज एक खेल-सा लग रहा था, बिल्कुल झूठ-सा लग रहा था, कमरे की खामोशी में उसकी दूधिया रौशनी में एक चुभती हुई हकीकत सा एकदम जीता जागता मेरे सामने खड़ा था। मुझ पर मुस्कुराता हुआ। लेकिन अब किया क्या जा सकता था, मेरे पैर तो फन्दे में पड़ चुके थे और निकलने के सब रास्ते फिलहाल बंद थे। और सब कुछ मेरा ही किया धरा था।
कहानी-संग्रह :’ मैंडी का ढाबा ‘ से
क्रमशः
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