सुभाष चंद्र मिश्र ।। प्रेम तुमसे सनातन हमारा प्रिये! गीत गाता रहूँगा तुम्हारा प्रिये! शब्द बनकर सदा अर्थ व्यंजित करो भावना-सिंधु में बिंदु संचित करो। छंदालंकार से स्वर सजाती रहो, सप्त सरगम सृजन की सुनाती रहो! मैं सुचातक तृषित तोय तुम स्वाति का, तृप्त करना सदा उर हमारा प्रिये! प्रेम तुमसे सनातन हमारा प्रिये! गीत गाता रहूंँगा तुम्हारा प्रिये !१! सामवैदिक ऋचा में हुई तुम मुखर, उपनिषद तत्त्व चिंतन तुम्हीं से प्रखर। तुम पुराणों में वर्णित कथागार हो, दिव्य गीता-वचन का सुधासार हो। सूर, तुलसी तुम्हीं को सतत गा रहे, शारदा को तुम्हीं ने पुकारा प्रिये! प्रेम तुमसे सनातन हमारा प्रिये! गीत गाता रहूंँगा तुम्हारा प्रिये !२! शुद्ध साहित्य की सार्थक साधिके, मुग्ध मोहन तुम्हारा सुनो राधिके! उर बसो अब सघन मैं बनूँ श्याम-घन, गिर पड़ू बूँद बन मन-मुदित भूल तन। प्रीति अपनी सजल स्नेहसिंचित विमल, बह रही बन सरस काव्यधारा प्रिये! प्रेम तुमसे सनातन हमारा प्रिये! गीत गाता रहूँगा तुम्हारा प्रिये !३! बिन तुम्हारे कहीं शांति मिलती नहीं, दिव्यअभिसार बिन कांति खिलती नहीं। साथ रहना सदा बन सहज संगिनी, छेड़ना साथ मिल कर मधुर रागिनी। प्रेम-पथ से कदाचित न भटकें सुपद, नित्य करना नयन का इशारा प्रिये! प्रेम तुमसे सनातन हमारा प्रिये! गीत गाता रहूंँगा तुम्हारा प्रिये !४! आओ मिलकर प्रिये! यज्ञ अनुपम करें, राष्ट्र-निर्माण में हव्य तन-मन करें। भाव भरते रहें संस्कृति में सदा, मिल सुवासित उभय दिव्य उपवन करें। शून्य में तुम चमकती शरद-इंदु सी, पार्श्व में मैं तुम्हारा सितारा प्रिये! प्रेम तुमसे सनातन हमारा प्रिये! गीत गाता रहूँगा तुम्हारा प्रिये !५! |
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