अजय कुमार II
मेरा कमरा दूसरी तरफ नीचे फैली हुई घाटी की तरफ खुलता था। उसी तरफ एक बड़ी-सी खिड़की के शीशों से चाँदनी में दूर तक फैली धौलाधार की पहाड़ियाँ दिखाई दे रही थीं और उन्हीं पहाड़ियों में छितराये हुए छोटे-बड़े घरों की रौशनियाँ कितनी भली लग रही थीं। डबल बैड और खिड़की के बीच दो सोफा, कुर्सियाँ रखी थीं जिनमें से एक पर प्रभा बड़े इत्मीनान से जा कर बैठ गई थी और मेरी तरफ देखती हुई बोली, ‘जूते उतार लूँ… पैर चल-चल के बड़े थक से गये हैं…।’ मैं जो अभी तक अपने दिमाग में उस के साथ अकेले रहने के ख्याल को ही नहीं निकाल पाया था… बोल पड़ा… ‘मगर अभी सिर्फ अपने तुम जूते ही उतारना…।’ वो फिर हँस पड़ी…
‘ओह हो हो… तो जनाब का दिल पहले ही… दिमाग से तेज़ भाग रहा है….’ एक और मुझको आरी की तरह काटने वाली हँसी… ‘ठीक है…. ठीक है… पर पहले मैं वॉश रूम हो आऊँ…।’ कह कर वह नंगे पैरों ही वॉश रूम में चली गई और इससे पहले वह फिर बाहर आए मैं अपने कपड़े बदल कर लोअर और टी शर्ट में… खिड़की के सामने एक चेयर पर अपनी टांगें विन्डोसिल के चौड़े भाग पर टिका कर इत्मीनान से बैठ गया। अब मैं उतना नर्वस भी नहीं था। प्रभा जैसे ही बाहर आई मैंने उसे अपने सामने दूसरी कुर्सी पर बैठने का इशारा किया और वह रिलैक्स से अपने पंजे बेड पर रख कर बैठ गई। न चाहते हुए भी मेरी निगाह उसके खुले हुए गोरे पैरों और सुंदर सुडौल पिंडलियों की तरफ चली गई… ‘हाँ अब बताओ… तुम्हें अब भी सिर्फ बातें करनी हैं या…. ‘
‘बातें… सिर्फ बातें… इन फैक्ट… मैं तुम्हारी ही कहानी तुम्हारी जुबानी सुनना चाहता हूँ… लेकिन बिल्कुल शुरू से… गर कोई एतराज़ न हो तो…. ‘ पहली बार उसके चेहरे पर जैसे एक छाया- सी आ कर गुज़र- सी गई… ‘मेरी कहानी… इस बात का क्या मतलब… तुम तुम कोई जर्नलिस्ट हो या पुलिस के आदमी या … फिर… कोई?” मैं मजे लेते हुए बोला- ‘नहीं नहीं… इनमें से कुछ भी नहीं… मैं तो अदना-सा एक शौकिया लेखक हूँ और वह भी हार्मलैस… बिल्कुल तुम्हारी ही तरह… तुमने कहा था न अभी कुछ देर पहले… अपने बारे में यहीं पार्क में… याद आया… और फिर अब तो तुम्हारी फीस भी भर रखी है, पूरी की पूरी ‘
‘मेरे सूखे घावों को कुरेदने की भी?”
उसकी बात सुन कर मेरी जुबान को तो जैसे ताला ही लग गया। ये तो बिल्कुल मेरी जैसी ही जुबान बोल रही है… ‘ठीक है… फिर जैसा तुम चाहो… मैं तुम पर कोई दबाव नहीं डालूंगा… इनफैक्ट तुम चाहो तो वापस भी जा सकती हो… इसी दम।’ मैं एकदम से नरम से स्वर में बोला….
थोड़ी देर वह चुप रही… फिर धीरे से बोली… ‘दिक्कत है, अगर पहले मैं एक सिगरेट सुलगा लूँ?”
‘मुझे कोई एतराज़ नहीं… पर सिर्फ अपने लिए…।’ दो तीन कश खेंचने के बाद वह खड़ी हुई। स्विच दबा कर उसने मेरी तरफ की बड़ी लाईट ऑफ कर दी। और फिर अपनी ज़गह वापस बैठ कर कहने लगी… ‘एक मुख़्तसर-सी कहानी है। एक चालबाज़ लड़के और एक बेवकूफ सपने देखने वाली लड़की की मैं भाग कर दिल्ली में उसके साथ आ गयी थी, अपने गाँव से घर और माँ-बाप, सब छोड़ कर हमेशा उसके साथ रहने का फैसला कर के। उसके बाद एक पूरे सप्ताह की उसके साथ मौज, और फिर सब खत्म एक बंद कमरे में बार-बार… उस लड़के के साथ आये अजनबियों की मौज का सामान भर बन कर रह गयी थी। पर इसके बाद की कहानी ज़रा अलग है, अकेले में बहुत रोने और पछताने के बाद भी मैंने उसे छोड़ा नहीं। पहले उसको अपने विश्वास में लिया उसकी हर बात मान कर। और फिर एक रात उसके पूरे जमा तीस-बत्तीस हजार ले कर चम्पत हो गई। और तब से अब तक सब कुछ अपने दम पर सारे के सारे मर्द मेरे लिए अब बस एक खेल है। अब कोई शर्म, कोई लिहाज़ नहीं, बहुत सारे छोटे-बड़े हिल स्टेशनों पर होटलों के साथ सैटिंग है। पर मर्द मैं हमेशा अपने मन का ही ढूंढती बहुत आते हैं, तुम्हारे जैसे अकेले, दुखी, और जिंदगी से बेज़ार… वैसे तुमने सच कहा तुम बिल्कुल हार्मलैस हो, पर मैं जो जिंदगी से मिला है वही उसे लौटा रही हूँ, और पैसे भी वसूल रही हूँ साथ-साथ । मोल भाव करके।’ मैं चुपचाप सुनता रहा पर बोला कुछ नहीं… ‘एक कप कॉफी पिओगे।’ मैंने कहा, ‘ठीक है, बना लो।’
उसने उठ कर कॉफी मेकर का प्लग लगाया और मेरी तरफ पीठ किये बोली… ‘और तुम्हारा क्या किस्सा है… अकेले हो।’ उसके बोलने में अब एक बराबरी का सा भाव था… ‘बस तुम्हारे जैसा ही है कुछ… एक लड़की थी जिंदगी में… बस कुछ हिसाब नहीं बैठा… सालों बाद मिलते रहने के बाद भी… पर आज भी दिमाग में एक फितूर की तरह कायम है… अभी भी निकली ही नहीं मन से… मुझे भी नहीं जमती अब कोई और लड़की… अब नौकरी भी छोड़ दी हैं बस कुछ न कुछ लिखता रहता हूँ… सब पढ़ते है… और तुम्हारी तरह घूमता न हूँ और बस इतना ही।’ प्रभा पहले की तरह ही हँसी, एकदम खुल के, मैं चिढ़ सा गया, ‘इसमें हँसने की क्या बात है?” प्रभा मेरे हाथ में एक कॉफी का मग दे कर अपने दूसरे हाथ से मेरे बाल सहला कर बोली… ‘नाराज क्यूँ होते हो… हम एक ही धन्धे में हैं ना… इसलिए । ‘ ‘एक धन्धे में!’, मैं एकदम चिहुँक गया… ‘बो कैसे?” मुझे उसकी ये बात बहुत बुरी – सी लगी थी। ‘मैं तन का बिस्तर लगाती हूँ और तुम अपने मन का। मैं अपने दुख का रोज़ नया घूँट भर के यह सब करती हूँ और तुम अपना दुख सजा के उसको लिख लिखकर अपने जैसे ग्राहक मतलब पाठक ढूंढते हो हर दिन और क्या फर्क है बताओ, हम दोनों में?”
मुझे प्रभा अब बिल्कुल सोसायटी गर्ल नहीं लग रही थी। एक आम सुंदर जहीन लड़की जैसे उसके भीतर से निकल कर बाहर आ गई थी। मैं उसे एकटक देखता रहा। उसकी तरल चमकदार आँखों से अब जैसे एक रोशनी-सी बाहर निकल रही थी। वह मुझे ऐसे अपनी तरफ देखता, देख कर मेरे एकदम करीब आ गई। मैं थोड़ा अचकचा कर खड़ा हो गया पर वह मुझसे बहुत दुलार से लिपट कर बोली…
‘बस ज़रा प्यार आ गया था तुम पर। फिर मुझसे लगे-लगे बोली, ‘सुबह शिमला साथ ले चलो न… दो चार दिनों के लिए मुझे… मेरे हार्मलेस… तुम वाकई कुछ अलग तरह के हो… अब तुम्हारा भी वहाँ मन नहीं लगने वाला मेरे बिना…।’ मेरे भीतर जैसे कुछ सख्त हो गया, धीरे से उसको अपने से अलग करते हुए बोला, ‘तुम फिर एक बार एक मर्द पर ही विश्वास कर रही हो…. तुम्हारे भीतर की वो नफरत…. फिर…
मैं आगे कुछ कहता इससे पहले वह एक अजीब सी खोखली-सी हँसी हँसने लगी जो मुझे इस बार मोनालिसा की रहस्यमयी मुस्कान से भी ज्यादा रहस्यमयी लगी थी। उसकी वह हँसी जैसे एक खुली हुई गार थी… दुख की, निराशा की, हार की और एक असुरक्षा की एक जिंदा मौत सी। वह कुछ नहीं बोली अपने खाली मग को कार्नर टेबुल पर रख कर सिर झुकाये अपने पैरों में जूते डाल कर तस्मे बांधने लगी। मुझे लगा जैसे वह अपना चेहरा नीचे झुका कर जूते बांधने के बहाने अपने आँसू छुपाने की कोशिश कर रही थी और मैं बस चुपचाप उसे देख रहा था और बस देखता ही जा रहा था… एकटक….
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