कथा आयाम कहानी

चमत्कार का अंधेरा

राजकुमार गौतम II

शाम का जिंदगी में बहुत महत्त्व सुना है । महत्त्व शायद इसलिए होता होगा, क्योंकि काफी हद तक शाम ही यह तय करती है कि आपकी रात कैसे गुज़रेगी । सच्चाई कुछ भी हो, मगर मेरी शाम की सच्चाई यह थी कि थकावट और कमज़ोरी से काँपती टाँगे लिए मैं घर लौटता। आकर बिस्तर पर ढह जाता। अँधेरा मानो ज्यादा आराम देता है, ऐसा सोचकर कमरे की बत्ती भी नहीं जगाता । चाय तथा खाना देकर पत्नी नर्स-भाव से मेरी सेवा करती । मेरी अनेक रातें ऐसी गुज़रतीं कि मैं पत्नी को ‘सिस्टर’ ही कहता ।

मैं जानता था कि मेरी शाम के गर्क होने की वजह होती मेरी सेहत । और सेहत इसलिए नहीं थी, क्योंकि उसके लिए सिंचाई की व्यवस्था नाकाफ़ी थी। महीने भर में में जितना कमा पाता, उसमें रूखी रोटियाँ और जलमग्न दाल का बमुश्किल जुगाड़ हो पाता । शाम के अँधेरे में मैं कोई ऐसी तिकड़म भिड़ाना चाहता, जिससे मेरी सेहत सुधरे और कम से कम ऐसी हो जाए कि मैं शाम और प्रकारांतर से रात का लुत्फ़ उठा सकूँ।

…और जैसा कि प्रत्येक महापुरुष के जीवन में चमत्कार का एक क्षण आता है, जो उसके संपूर्ण जीवन-दर्शन को बदलकर रख देता है, मेरे साथ भी कुछ वैसा ही घटित हुआ। एक शाम को जब मैं चिंतनलीन था तब स्कूल में पढ़े गए किसी निबंध की तीन पंक्तियाँ मेरे मस्तिष्क के स्क्रीन पर उभरीं। महात्मा जी द्वारा कही गई ये पंक्तियाँ थीं- यदि धन गया, कुछ नहीं गँवाया । यदि स्वास्थ्य गया, थोड़ा-सा गँवाया । यदि चरित्र गया, तो सब कुछ गँवाया ।

यह कथन मेरे दिलोदिमाग पर हावी था कि तभी मानो आकाशवाणी हुई कि हे नर-कंकाल ! इस कथन की राह पर चलेगा तो तेरा न केवल इहलोक वरन् परलोक भी सुधर जाएगा । इस देववाणी से मैं अभिभूत हो उठा और अपनी संपूर्ण प्रतिभा को झोंककर महात्मा जी के इस कथन की व्याख्या करने में  लग गया ।

सबसे पहले धन। धन है तो ठीक, नहीं है तो उससे भी ठीक । थोड़ा-सा धन था मेरे भविष्यनिधि खाते में, जिसे सरकारी शब्दावली में फंड कहते हैं। फंड से निकासी की सुविधा उपलब्ध थी। मगर उसके लिए कुछ कारण निर्धारित थे । कर्ण-छेदन और जनेऊ-संस्कार से लेकर संतान के शादी-ब्याह तक अनेक कारण इस सुविधा में शामिल थे, मगर सेहत-प्रबंध के लिए कोई प्रावधान नहीं था। बहरहाल, कोई मान्यताप्राप्त बहाना बनाकर, अपनी ही इस पूँजी से कुछ ‘कर्ज’ लिया जा सकता था । यदि महात्मा जी के कथन के धन वाले हिस्से को अर्जित कर लिया जाता है तो फिर अगली पंक्ति का कोई अर्थ नहीं बचता। जब धन है तब स्वास्थ्य गँवाने का भला क्या मतलब ! दूध-घी-मक्खन पनीर-दही-खोया-फल-सलाद-सूखे मेवे-हेल्थ क्लब-डॉक्टर-योगी इन सभी के गुणों की मास्टर चाबी तो धन के पास है। महात्मा जी के कथन के तीसरे और अंतिम भाग पर, जिसमें उन्होंने चरित्र के खोने पर सब कुछ गँवा देने की बात कही है, विचार करने को मैंने स्थगित कर दिया था। धन जाने की चिंता न हो तथा सेहत ठीक-ठाक हो तो चरित्र के लिए ज्यादा चिंता नहीं करनी पड़ती। थोड़ा ऊँच-नीच हो भी जाए तो स्वास्थ्य सब कुछ सँभाल लेता है। इसलिए मैं धन गँवाने और सेहत कमाने की बात पर एकाग्र हुआ ।

चूँकि सेहत बनाना शुभ कार्य था इसलिए मैंने फंड से जनेऊ संस्कार के बहाने पैसे निकाले। इस प्रक्रिया में जितना वक्त लगा उसमें मैंने सेहत निर्माण की योजना को अंतिम रूप दिया। नींबू-शहद के बाद एक गिलास दूध, मक्खन और डबलरोटी से सुबह का नाश्ता। लंच से पहले एक गिलास ज्यूस । खाने में दही अनिवार्य । शाम की चाय के साथ सूखे मेवे । रात को केवल सलाद और फलों की चाट | सोते वक्त छुआरे-पका दूध। इसके अतिरिक्त सुबह-शाम का घूमना तथा हलके-फुलके शारीरिक व्यायाम भी। अंकुरित चने, उबली सब्ज़ी, भीगे बादाम-मुनक्के आदि को भी दिनचर्या में शामिल किया गया । सप्ताह में एक बार तेल मालिश के पश्चात् सूर्य-स्नान की गुंजाइश भी रखी गई।

और यह सब मात्र सोचा ही नहीं गया बल्कि किया भी गया। मुझे पालने-पोसने की ज़िम्मेदारी को पत्नी और बच्चों ने खूब निबाहा। इससे पहले मुझे यह पता ही नहीं था कि फंड के इन पैसों के मध्य मेरी सेहत कहीं छिपी बैठी थी। अब मेरी सेहत निखरने लगी। इस रकम से नया नोट निकालते हुए हर बार मैं डर जाता, मगर तभी मुझे याद आता- यदि धन गया, कुछ नहीं गँवाया। और मैं धन-धान्य की माया से ऊपर उठ जाता । लगभग दो महीने की खिलाई के बाद मैंने पाया कि मेरी दुनिया अब थकी और उदास नहीं रह गई है। दफ्तर से लौटती मेरी टाँगें अब काँपती नहीं थीं, बल्कि वे फुदकती थीं। शाम की चाय के बाद मैं गुनगुनाते हुए बाज़ार जाता और दुकानदारों से ताज़ी ताज़ी बातें किया करता । रात आठ बजे के बाद भी मैं चिड़चिड़ाता नहीं-यह देखकर पत्नी और बच्चे परम प्रसन्न थे। मेरी सेहत के चमत्कार से पत्नी में भी फुर्ती आ बसी थी । हाँ, कभी-कभी फंड की मासिक किस्तों की कटौती की याद दिलाकर वह मेरा मूड ख़राब ज़रूर कर देती। मैं पत्नी को सेहत का महत्त्व बताता। कहता कि स्वस्थ शरीर में स्वस्थ आत्मा वास करती है-ऐसा कहा गया है। अब मेरी आत्मा भी स्वस्थ होती जा रही थी। अपने मुकाबले मुझे मित्र, सहयोगी और पड़ोसी काफी दुर्बल लगने लगे थे।

मैं सेहत संबंधी भाषण देने में पारंगत हो रहा था। किसी-किसी को तो मैं अपने साथ ज्यूस पिलाने भी ले जाता। इस दौरान उसे अनार के ज्यूस के गुणों को सविस्तार बताता। यह भी उद्घाटित करता कि अगली बार जुगाड़ होने पर मैं ज्यूसर-मिक्सर ग्राइंडर का सेट लूँगा ताकि करेला, चीकू, पालक और आँवले आदि का ज्यूस घर में ही तैयार कर सकूँ। इसी बीच मैं अपनी शारीरिक प्रगति की ओर साथी का ध्यान आकृष्ट करता। शीशे में बार-बार अपना चेहरा निहारता तो पहले के मुकाबले सुर्खी ज्यादा लगती । आँखों में आत्मविश्वास की तेज चमक होती ।

पाँचवाँ महीना लगते न लगते सारा पैसा धराशायी हो चला था और सेहत की ताज़ा उपलब्धि यह थी कि पहनने वाले ठंडे-गरम जितने भी कपड़े मेरे पास थे, वे सब शरीर पर इतने तंग हो चुके थे कि अब उन्हें पहनना संभव नहीं रह गया था। यह एक अप्रत्याशित स्थिति थी, जिससे निपटने के लिए फिर से धन की आवश्यकता थी। मैं उन टिप्पणियों से परेशान रहता, जो मेरी इस जोकरनुमा हो गई पोशाक के लिए की जाती थीं। पहले मेरे कमज़ोर शरीर पर तो लोग तरस खाकर रह जाते थे, मगर अब तंग कपड़ों के लिए वे बाकायदा मेरा मजाक उड़ाते । सलाह देते कि मुझे डाइटिंग की ज़रूरत है। मगर सच्चाई मैं जानता था। यह भी कि अब मेरे पास उतने पैसे भी नहीं थे कि शरीर की इस नई-नवेली माप के हिसाब से एक-दो जोड़ी कपड़े बनवा सकूँ ।

फंड से कुछ पैसा फिर से निकाला गया और आनन-फानन में, शरीर के नए भूगोल के हिसाब से कपड़े बनवाए गए। अब फंड की अच्छी-खासी किस्त की कटौती तनख़्वाह से हो जाती। महीने भर की सूखी रोटी और जलमग्न दाल का भी पूरा न पड़ता। मेरे दिन फिर थकने लगे । रातें फिर कराहने लगीं। टाँगें काँपने लगीं और जल्दी ही नए कपड़े भी बेगाने हो चले। कपड़े प्रासंगिक बने रहें, इसके लिए मैं सीना फुलाता, मगर मेरी साँसें उखड़ जातीं। मैंने यह प्रयोग छोड़ दिया। ज्यूस वाली दुकान की दिशा से मुँह मोड़ लिया। शीशे को अपना दुश्मन बना लिया और शरीर को भुरभुराकर झरते हुए देखता रहा ।

मेरे कपड़ों की वाक़ई बुरी हालत थी। कमीज़ पहनता तो लगता कि ओवरकोट का ऊपरी हिस्सा है और पैंट किसी पहलवान के घर से चोरी की गई लगती। एक शाम दुखी होकर मैंने पत्नी से कहा, “पुराने ही कपड़े निकाल दो ताकि उन्हें फिर से अपनाया जा सके।” मगर बर्तनों के बदले पत्नी उन्हें पहले ही बेच चुकी थी।

मैंने बत्ती बुझा दी। अँधेरे में सोचने की रफ्तार बढ़ जाती है। अंधेरे में घटित एक चमत्कार अभी तक मैं देख चुका था। शायद अगला चमत्कार भी अँधेरे में ही कहीं छिपा था ।

About the author

राजकुमार गौतम

राजकुमार गौतम
जन्म: 2 अप्रैल, 1954 कनखल (हरिद्वार)।
शिक्षा: बी०ए० (मेरठ विश्वविद्यालय) ।

प्रकाशन : कहानी-संग्रह 'काले दिन' (1981),
'उत्तरार्द्ध की मौत' (1985), 'आधी छुट्टी
का इतिहास (1986/1995). दूसरी
आत्महत्या' (1987), 'आक्रमण तथा अन्य
कहानियाँ' (1990) उपन्यास : ऐसा
सत्यव्रत ने नहीं चाहा था' (1985/1998)
व्यंग्य-संग्रह : 'वरच' (1989/1997).
'अंगरेज़ी की रँगरेज़ी' (1994) संपादन
'आठवें दशक के कहानीकार (1977)
तथा 'सीपियाँ' (1980) (कहानी-संग्रह)।
नाट्य रूपांतर 'सूत्रगाचा' (मूल मनीषराय )
(1986) सहयोगी कृतियाँ: 'अंतर्याण'
(इण्टरव्यूज) (1988). 'सामना' (कहानियाँ)
(1988) (धीरेन्द्र अस्थाना तथा बलराम के
साथ) ।

सम्मान :

आधी छुट्टी का इतिहास हिंदी अकादमी,
दिल्ली द्वारा (1986) और 'आक्रमण तथा
अन्य कहानियाँ' उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान
द्वारा (1990)।

अन्य हिंदी की विविध विधाओं के संपादित संकलनों
में कहानियाँ, व्यंग्य, लघुकथाएँ, कविताएँ
आदि संकलित । उपन्यास 'ऐसा सत्यव्रत
ने नहीं चाहा था कुछ समय तक ओसाका
विश्वविद्यालय (जापान) के पाठ्यक्रम में
शामिल पिछले लगभग 25 वर्षों से
पुस्तक समीक्षा के क्षेत्र में भी सक्रिय ।
फिलहाल दिल्ली में।

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