पुस्तक समीक्षा

समाज, राज और सभ्यता विमर्श की अनूठी पुस्तक

ज्योतिष जोशी II

बर्ट्रेंड रसेल की पुस्तक ‘ Authority and the Individual’ का हिंदी अनुवाद – ‘सत्ता और व्यक्ति’ श्री नन्दकिशोर आचार्य ने किया है। रज़ा पुस्तकमाला की इस पुस्तक का प्रकाशन सेतु प्रकाशन ने किया है। प्रस्तुत है इस उल्लेखनीय पुस्तक पर एक संक्षिप्त परिचयात्मक टिप्पणी –

नोबेल पुरस्कार विजेता, जन बुद्धिजीवी, इतिहासकार, राजनीतिक कार्यकर्ता और समाज के आलोचक के रूप में विख्यात ब्रिटिश नागरिक बर्ट्रेंड आर्थर विलियम रसेल ने अपने 97 वर्ष के लंबे जीवन काल ( जन्म 18 मई,1872- निधन- 2 फरवरी,1970) में बड़ी संख्या में पुस्तकें लिखीं जिनका सम्बन्ध दर्शन, गणित, तर्कशास्त्र, भाषाविज्ञान, राजनीति तथा मनुष्य जीवन और उसके सभ्यतामूलक विकास से है। उनकी कुछ मुख्य पुस्तकों में अथॉरिटी एंड द इंडिविजुअल के अतिरिक्त द वैल्यू ऑफ फिलॉसफी, एडुकेशन एंड द सोशल आर्डर, पोलिटिकल आइडियल्स, व्हाई मेन फाइट,फ्री थॉट एंड ऑफिसियल प्रोपेगैंडा,अनपॉपुलर  एशेज,प्रिंसिपल्स ऑफ मैथमेटिक्स,मिस्टिसिज्म ऑफ़ लॉजिक, द एनालिसिस ऑफ माइंड, व्हाट आई बिलीव,द प्रोब्लेम्स ऑफ फिलॉसफी,द कॉनक्वेस्ट ऑफ हैप्पीनेस,व्हाई आई एम नॉट ए क्रिश्चियन, ए हिस्ट्री ऑफ वेस्टर्न फिलोसॉफी आदि शामिल हैं। रसेल बीसवीं सदी के ऐसे विचारक के रूप में जाने गए जिन्होंने संसार को अधिक उदार और स्वायत्त बनाने की सीख दी और सभी सभ्यताओं और धर्मों में एक सौमनस्य की उम्मीद की। वे ऐसे विचारक भी रहे जिनका दुनिया भर के उन नेताओं और बौद्धिकों पर प्रभाव रहा, जो समता, स्वतंत्रता और न्याय के साथ नैतिक समाज बनाने का स्वप्न देख रहे थे।

ऑथिरिटी एंड इंडिविजुअल यानी सत्ता और व्यक्ति पुस्तक उनके छह व्याख्यानों पर आधारित है। इसमें पहला व्याख्यान है- ‘सामाजिक साहचर्य और मानव प्रकृति’। इसमें रसेल ने विस्तार से सामाजिक साहचर्य को मानव के स्वभाव में देखते हुए उसके क्रमिक विकास को परखा है। सभ्यता के विकास की परवर्ती अवस्था पर बात करते हुए रसेल दो मतवादों की चर्चा करते हैं। वे कहते हैं- ‘ हमारे अपने समय में भी  दो विशाल मतवाद मानवता के बहुत बड़े हिस्से की निष्ठा के अधिकारी हैं। उनमें से एक साम्यवादी मतवाद को तो तीव्र मतान्धता और किसी पवित्र ग्रन्थ की मूर्ति-पूजा जैसा लाभ प्राप्त है। दूसरा, थोड़ा कम निश्चित किंतु शक्तिशाली मतवाद ‘ जीवन की अमेरिकी शैली ‘ कहा जा सकता है, जो कई देशों से आए आप्रवासियों द्वारा निर्मित है,जिसमें कोई जैविक एकता नहीं है,लेकिन उसकी एकता यूरोपीय राष्ट्रों जितनी ही मजबूत है।’ इस कड़ी में रसेल बौद्ध और ईसाई मतों के दर्शन को सामने रखते हुए विश्व बंधुत्व के उनके उपदेशों के समानांतर  एक दिलचस्प विरोधाभाषी स्थिति की चर्चा करके मानव स्वभाव की विडंबना और विश्व की धार्मिक मामलों की विसंगति को सामने रखते हैं। वे लिखते हैं- ‘ यदि हम एक ईश्वर की संतान हैं, तो हम सब एक परिवार हैं। लेकिन इस मत को सिद्धान्ततः स्वीकार करनेवाले लोगों ने व्यवहार में हमेशा यही समझा कि उनके मत को स्वीकार नहीं करनेवाले लोग ईश्चर की नहीं, बल्कि शैतान की संतान हैं और इस प्रकार अपने कबीले से बाहर के लोगों को शत्रु मानने की पुरानी पद्धति मतवाद को अधिक उग्रता देते हुए लौट आयी।’ 

इस व्याख्यान में रसेल मानव के विकास की प्रक्रियाओं पर बात करते हुए अनेक स्तरों पर उसके समाजों के विरोधाभासों की चर्चा करते हैं और स्पष्टता से कहते हैं कि वह खुशी जैसी चीज से लगातार दूर होता चला गया। मनुष्य सभ्य हुआ, उसने अपने विकास के पैमाने निश्चित किए, उसने एक दूसरे से श्रेष्ठ होने और अपराजेय होने के लिए युद्ध भी किए पर असल चीज इससे हासिल नहीं हो सकती थी और न हो पाई, जाहिर है, वह उसकी प्रसन्नता थी, खुशी थी। उन्हीं के शब्दों में- ‘ युद्ध के अलावा आधुनिक सभ्यता, सुरक्षा पर भी अधिकाधिक ध्यान देती जा रही है, लेकिन मैं किसी भी तरह आश्वस्त नहीं हूँ कि सभी संकटों की समाप्ति खुशी उत्पन्न कर सकती है।’
दूसरे व्याख्यान – ‘ सामाजिक साहचर्य और शासन ‘ में अनेक सभ्यताओं की चर्चा करते हुए वे एक विश्व राज्य की प्रस्तावना करते हैं जिसमें शत्रुता न हो और साहचर्य बढ़े। वे कहते हैं- ‘ पृथ्वी का आकार क्योंकि सीमित है,इसलिए इस प्रवृत्ति का समाहार, अबाध रहने पर , एक विश्व राज्य की रचना में ही होना चाहिए। लेकिन क्योंकि तब कोई बाहरी शत्रु नहीं होगा जो साहचर्य को बढ़ाए, इसलिए पुरानी मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया उपयुक्त नहीं रहेगी। विश्व शासन के मामलों में देशभक्ति के लिए कोई अवकाश नहीं रहेगा, इसलिए स्वहित और सद्भावना में ही, जहां घृणा और बल के प्रबल प्रोत्साहन की उपस्थिति नहीं रहेगी, प्रेरक बल पाना होगा। ‘

प्रस्ताव बुरा नहीं है, पर यह असम्भव है क्योंकि सभ्यताएँ, धर्म, जातीयताएँ और देशों के गर्वोदीप्त भाव एक राज्य की व्यवस्था में अपना विलय कर लें, यह सर्वथा सम्भव नहीं लगता।

तीसरे व्याख्यान -‘ वैयक्तिकता की भूमिका ‘ में रसेल ने समाजों की वैयक्तिकता पर चर्चा करते हुए ऐसे व्यक्तियों के महत्व को प्रतिपादित किया है जो उसे एक सार्थकता दे सकें। वे कहते हैं- ‘ यदि किसी समुदाय को विकास करना है तो उसे ऐसे असाधारण व्यक्तियों की आवश्यकता पड़ती ही है, जिनकी क्रियाशीलता उपयोगी होते हुए भी ऐसी नहीं होती जिसे सामान्य कहा जा सके। अत्यंत व्यवस्थित समाज में ऐसे लोगों की क्रियाशीलता में अनुचित रूप से बाधा पैदा करने की एक प्रवृत्ति होती है, लेकिन दूसरी ओर यदि समुदाय किसी प्रकार का नियंत्रण न रखे तो वैयक्तिक पहल एक सार्थक आविष्कर्ता भी पैदा कर सकती है तथा एक अपराधी भी। समस्या संतुलन की है, स्वतंत्रता का अभाव जड़ता लाता है तथा उसका अतिरेक अव्यवस्था।’

इस व्याख्यान का समापन अंश बहुत महत्वपूर्ण है जिसमें वे शासन के विकेंद्रीकरण की बात करते हैं। उन्हीं के शब्दों में-‘ मेरा तात्पर्य यह नहीं है कि हम आधुनिक व्यवस्था के उन हिस्सों को नष्ट कर दें जिन पर विशाल जनसंख्याएँ निर्भर हैं, लेकिन मेरा आशय यह है कि व्यवस्था को बहुत अधिक लचीला, स्थानीय स्वायत्तता द्वारा मुक्त और अपनी निर्वैयक्तिक विशालता के माध्यम से मानव आत्मा के प्रति कम दमनकारी होना होगा, जो कि वह अपनी असहनीय तीव्र बुद्धि और केन्द्रीयकरण के कारण हो गयी है और जिसके साथ हमारे विचार और अहसास क़दम से क़दम मिलाकर चलने में असमर्थ हैं।’

‘ तकनीकी द्वंद्व और मानव-प्रकृति ‘ नामक चौथे व्याख्यान में रसेल अंधाधुंध तकनीकी विकास और औद्योगिक क्रांति को सभ्यता के एक बड़े संकट के रूप में देखते हैं और इसमें मनुष्य के परनिर्भर होने को एक त्रासदी की तरह समझते हैं। मशीनीकरण वहीं तक उपयुक्त समझा जाना चाहिए जहां तक वह मनुष्य को और उसके समाजों को अर्थहीन न कर दे। यहां उन्होंने भारत का उदाहरण देते हुए गाँधीजी के विचारों को महत्व दिया है जो ग्राम्य उद्योगों को पुनर्जीवित करना चाहते थे। रसेल कहते हैं-‘ विश्व के जिन भागों में उद्योग अभी शैशव की अवस्था में है, वहां हमारे द्वारा अनुभूत विकरालता से बचने की अभी भी सम्भावना है। उदाहरण के लिए, भारत पारम्परिक रूप से ग्रामीण समुदायों का देश है। यह एक त्रासदी होगी यदि अपनी कुछ बुराइयों सहित जीवन की इस पारम्परिक शैली को अचानक और हिंसक तरीके से नगरीय उद्योगवाद की बड़ी बुराइयों में बदल दिया जाय, क्योंकि वे उन व्यक्तियों द्वारा लागू होंगी जिनका जीवन स्तर पहले से ही दयनीय रूप से निम्न है। गांधी जी ने इन खतरों को भांपते हुए हथकरघे की बुनाई को पूरे महाद्वीप में पुनर्जीवित करने के प्रयत्नों द्वारा घड़ी को ठीक करने का प्रयास किया। वह आधे सही थे, क्योंकि विज्ञान द्वारा प्रस्तावित लाभों को खारिज करना समझदारी नहीं होगी, इसके बजाय उन्हें उत्साहपूर्वक स्वीकार करके भौतिक समृद्धि को बढ़ाने के साथ साथ शुद्ध हवा, लघु समयदाय में हैसियत का बोध, जिम्मेदारी तथा सुनिष्पादित कामों में गौरव बोध आदि सामान्य विशेष सुविधाओं को बचाए रखना चाहिए जो एक विशाल श्रमिक बस्ती के श्रमिक के लिए विरल है। ‘

अपने पांचवें अध्याय -‘ नियंत्रण और पहल : अपने अपने क्षेत्र ‘ में उन्होंने विस्तार से एक प्रगतिशील समाज में केंद्रीय नियंत्रण के साथ साथ वैयक्तिक और सामाजिक पहल की जरूरत को रेखांकित किया है। इसमें वह यह महत्वपूर्ण बात कहते हैं जिसपर आज विचार करने की बड़ी जरूरत है-‘ यदि मैं सही हूँ तो सत्ता और पहल के अपने अपने क्षेत्रों को शासित करनेवाले सिद्धांतों को मोटे तौर पर मानव प्रकृति का निर्माता विभिन्न प्रकार की अंतः प्रवृत्तियों के अनुसार निरूपित किया जा सकता है। एक ओर हममें अपनी सम्पदा के स्वामित्व और दूसरों की सम्पदा को अपने अधिकार में करने की अंतः प्रवृत्ति होती है। दूसरी ओर हममें सृजनात्मक अंतः प्रवृत्तियां भी होती हैं-वे अंतः प्रवृत्तियां जो विश्व में कुछ ऐसा बनाने में रुचि रखती हैं जो सर्वथा नया और उधार में न लिया गया हो। वे प्रवृत्तियां कुछ सामान्य रूप भी ले सकती हैं,जैसे गृह उद्यान अथवा मानवीय उपलब्धि के शिखर का प्रतिनिधित्व भी कर सकती हैं जैसे शेक्सपियर और न्यूटन में। मोटे तौर पर कहें तो स्वामित्ववाली अंतः प्रवृत्तियों का कानून द्वारा नियमन और नियंत्रण शासन के सारभूत प्रकार्यों से सम्बंधित है, जबकि सृजनात्मक अंतः प्रवृत्तियों को, यद्यपि कि शासन भी उन्हें प्रोत्साहित कर सकता है, व्यक्तिगत और समूहगत स्वायत्तता से ही अपनी मुख्य प्रेरणा प्राप्त करनी चाहिए।’

अपने छठवें और समापन व्याख्यान – ‘ व्यक्ति और सामाजिक नैतिकी ‘ में रसेल ने विस्तार से राजनीतिक व्यवस्थाओं और विचारधाराओं पर बात की है और उनकी बद्धमूल खामियों को उजागर किया है। इसमें वे जीवन, समाज और व्यवस्था में समता, स्वतंत्रता और नैतिकता के प्रश्न उठाते हैं और इनमें अधिकाधिक सन्तुलन की बात करते हैं। अपने विमर्श में वे प्रजातंत्र को राज्य से जोड़ते हुए एक महत्वपूर्ण तथ्य की ओर संकेत करते हुए वे कहते हैं-

‘ दार्शनिकों और राजनेताओं में कुछ लोग ऐसा सोचते हैं कि राज्य केवल नागरिकों के कल्याण के साधन के रूप में नहीं, बल्कि स्वयं अपनी उत्कृष्टता रख सकता है। मैं इस विचार से सहमत होने का कोई आधार नहीं पाता। राज्य एक अमूर्त संस्था है, वह सुख या दुःख का अनुभव नहीं कर पाता। उसकी कोई न आशा होती है, न भय। जिन्हें हम उसका उद्देश्य मानते हैं, वे वस्तुतः उन व्यक्तियों के उद्देश्य होते हैं जो उसे निर्देशित करते हैं। जब हम अमूर्तता में नहीं, बल्कि ठोस तरीक़े से सोचते हैं तो राज्य की जगह कुछ व्यक्तियों को पाते हैं जो अधिकांश लोगों से बहुत अधिक शक्तिशाली होते हैं, इसलिए राज्य का गौरवगान वास्तव में एक शासकीय बहुमत का गौरव गान हो जाता है। कोई भी लोकतांत्रिक व्यक्ति इस मूलतः अन्यायसंगत सिद्धांत को बर्दाश्त नहीं कर सकता।’
मानव सभ्यता के विकास और उसके उपरांत अस्तित्व में आईं विचारधाराएं, धर्म की सत्ता और विभिन्न शासन प्रणालियों के बीच मनुष्य की नियति और लोकप्रिय तंत्र के रूप में विकसित हुए प्रजातंत्र के अधिनायकवाद में बदल जाने के समय में रसेल की यह पुस्तक जिन सूत्रों के सहारे अपने समय का एक प्रत्याख्यान रचती है, उसमें निश्चय ही गम्भीर विचार-विश्लेषण की संभावनाएं हैं। कह सकते हैं कि रज़ा पुस्तकमाला के अंतर्गत सेतु प्रकाशन से छपी यह पुस्तक पठनीय और विचारणीय है, इसमें कोई संदेह नहीं।

About the author

ज्योतिष जोशी

साहित्य, कला, संस्कृति के सर्वमान्य आलोचक के रूप में
प्रतिष्ठित ज्योतिष जोशी ने आलोचना को कई स्तरों पर
समृद्ध किया है।
इनकी प्रकाशित पुस्तकें हैं-सम्यक्, जैनेन्द्र संचयिता, विधा
की उपलब्धि : त्यागपत्र, आर्टिस्ट डायरेक्टरी, कला विचार,
कला परम्परा, कला पद्धति, प्रतीक-आत्मक (दो खण्ड),
(सम्पादन), जैनेन्द्र और नैतिकता, आलोचना की छवियाँ,
उपन्यास की समकालीनता, पुरखों का पक्ष, संस्कृति विचार,
साहित्यिक पत्रकारिता, विमर्श और विवेचना, भारतीय कला
के हस्ताक्षर, आधुनिक भारतीय कला के मूर्धन्य, आधुनिक
भारतीय कला, रूपंकर, कृति आकृति, रंग विमर्श, नेमिचन्द्र
जैन (आलोचना), सोनबरसा (उपन्यास) तथा यह शमशेर
का अर्थ |
कई प्रतिष्ठित सम्मानों से सम्मानित

हिन्दी अकादमी, दिल्ली के सचिव रह चुके श्री जोशी इन
दिनों केन्द्रीय ललित कला अकादमी (संस्कृति मन्त्रालय,
भारत सरकार) में हिन्दी सम्पादक हैं।

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