आलेख कथा आयाम

गोरसी के गोठ

चित्र क्रमशः- धनेश साहू एवं पीयूष कुमार

पीयूष कुमार ।।

छत्तीसगढ़ी भाषा में डॉ पालेश्वर शर्मा ने ‘गोरसी के गोठ’ अर्थात गोरसी की बातचीत नाम से कहानी लिखी थी। अभी जब इस जाड़े में हमारे घरों में गोरसी का ताप उपज रहा है, ‘गोरसी के गोठ’ याद आने लगी है। गोरसी तापना आग तापने से जरा भिन्न है। आग ज्यादा तपाती है जिससे वहां से हटने पर ठंड तेजी से दबोचती है और आग से दूर होने का मन नही करता। अलग होने पर देह की शक्ति कम हो गयी, ऐसा लगता है जबकि गोरसी के साथ यह नही है। ऐसा इसके कमरे के भीतर उपयोग करने के कारण है।

गोरसी का लगभग सारी जगहों पर इस्तेमाल होता है। बागबाहरा, छत्तीसगढ़ के कवि रजत कृष्ण की सत्तर वर्षीय माताजी ने इसके निर्माण की प्रक्रिया बताई थी। उन्होंने बताया कि गोरसी ‘मटासी’ मिट्टी जो दलहन के लिए उपयुक्त होती है, उसकी सबसे अच्छी बनती है। हालांकि यह जहां जो मिट्टी उपलब्ध है, उसकी ही बनाकर काम चलाते हैं। इसे बनाने ‘पैरोसी’ (पैरा अर्थात पुआल के बारीक टुकड़े) को मिट्टी में मिलाकर सान लेते हैं फिर इसे किसी गोलाकार आकृति जो कि हांड़ी (मटका) या उल्टी तगाड़ी (तसला) पर थपट (थोप) दिया जाता है। तीन-चार दिनों में यह सूख जाता है और इस तरह सर्दियों में काम आता है। इसके अंगार में दूध धीरे धीरे बहुत अच्छा चुरता है। यह लिखते समय यह सोच रहा हूँ कि इसका नाम इसी ‘गोरस’ के चुरोने से ही गोरसी हुआ है।

क्षेत्रीय स्तर पर गोरसी के भिन्न नाम हो सकते है जैसे विदिशा क्षेत्र में यह ‘गुरसी’ कहलाता है साहित्यिक रुचि वाले किसान विनोद कुमार तिवारी कहते हैं, “गाँव में घर घर यह गुरसी होती है मैं सोचता हूँ कि हमारे गांवो ने मिट्टी का उपयोग कर कितना खनिज और उर्ज़ा अब तक बचाई है, सच में वे ही पर्यावरण के असली सरंक्षक थे।” इसी तरह मनोज पाठक बताते हैं कि “गोरसी अवध क्षेत्र में भी बोलते हैं। इसका नाम गोरसी क्यों पड़ा होगा ये विचारणीय प्रश्न है।वैसे उधर दूध को गोरस न बोलकर मट्ठे को गोरस बोलते हैं, उधर पहले दूध को गोरसी में रख दिया जाता था जो धीरे धीरे गरम होता रहता था फिर दूध को दही बनाने के लिए जमाते थे। पहले पैदल यात्रा करने वाले लोग गोरसी को सर पर रखे, चलते-चलते खाना भी पका लेते रहे होंगे, क्योंकि वहाँ की तमाम लोककथाओं में सफर में चलते हुए गोरसी में खाना बनाने का प्रसंग मिलता है।”

शेष यूपी, बिहार, राजस्थान और झारखंड में यह ‘बोरसी’ कहलाता है। लेखिका डॉ सुमिता कहती हैं, “बोरसी तापते समय परिवार की सामूहिकता के रसपूर्ण आख्यानों के क्या कहने।” इसी पर कोरबा के साहित्यकार कामेश्वर पांडेय गोरसी को याद करते कहते हैं, “कण्डे और झिंटी के साथ इसमें धान के भूसे का भी प्रयोग करते थे। एक बार शाम को भर दिया तो दूसरे दिन सुबह तक इसमें आँच रहती थी। सुबह उसी में से अंगार लेकर चूल्हा जलाया जाता था। गोरस से गोरसी होने का अनुमान तो होता है।”

पत्रकारिता की प्रोफेसर रही देविंदर कौर उप्पल ने इस पर नई जानकारी दी थी। उन्होंने बताया था कि दीवाली पर जब हमारे कच्चे घर में, छपाई – पुताई का काम होता तो हमारी मां पुराने घड़ों को, हम भाई बहनों में से किसी से सावधानी से गोलाकार बीच में से कटवाती और फिर मुंह वाले हिस्से को पेंदी बनाकर, मिट्टी की छपाई से नया रूप देकर, 2-3 गुरसी बना लेती थीं। ठंड की रातों में , मां और पिताजी की खाटों के नीचे गोरसी रखी जाती थीं जिसमे रखी आंच धीरे – धीरे उनके बिस्तर को गुनगुना करती रहती।”

सिरसा (हरियाणा) के मित्र बताते हैं , “हमारे यहां खुले में आग तापने को (धुंई) तपना कहते है, और इसे कहते हैं (उठावड़ा) जिसे उठाकर कहीं भी रखा जा सके। इसके अन्य नाम भी है, अंगीठी या ठांगला।” बलिया की शालिनी कपूर जायसवाल भी ‘बोरसी’ को याद करते कहती हैं, “बचपन मे दादी कभी आलू, कभी शकरकंद और कभी छेमी डाल देती थी। धीमी आँच पर पके यह सब इतने सुस्वादु थे कि 20- 22 साल बाद भी याद है। चाय ठंडी न हो इसके लिए चाय का लोटा दादी बोरसी में ही गाड़ देती थी, धुँए का स्वाद मिला वह चाय भी अद्भुत ही था।”

अब गोरसी बनाने का चलन कम होता जा रहा। शहरों में रूम हीटर का इस्तेमाल हो रहा है। रूम हीटर की गर्मी वह सुख नहीं देती जो गोरसी से मिलता है, ठीक फ्रिज के ठंडे पानी की तरह। कस्बाई क्षेत्रों में अब कुम्हार लोग मिट्टी की गोरसी बनाने लगे हैं। यह भी गोरसी का अच्छा विकल्प है। बहुत जगहों पर सिगड़ी को ही ताप लिया जाता है या लोहे की तगाड़ी में ही लकड़ियों को बार कर तापा जाता है। गोरसी की उपयोगिता खपरैल वाले घर मे बेहतर रही है। इसकी वजह यह है कि गोरसी से जो धुंआ निकलता है, वह कार्बन मोनो ऑक्साइड और कार्बन डाई ऑक्साइड का मिश्रण होता है। यह खपरैल में वेंटिलेशन के कारण बाहर निकलता जाता है। चूंकि कस्बों और गांवों में भी पक्के मकान बनते जा रहे हैं सो कमरे में गोरसी सीमित समय तक तापने के लिये उपयुक्त है वरना दम घुटने का खतरा रहता है।

परिवार में गोरसी को घेरे सारे सदस्य और परिवार के किस्से, अनुभव और हंसी ठट्ठा का अद्भुत दृश्य बनता है। अमूमन परिवार, पड़ोसी या रिश्तेदारों के किस्से ज्यादा कहे सुने जाते हैं। गोरसी तापने की प्रक्रिया में परिवार की सामूहिकता, सुख-दुख और पारस्परिक स्नेह का बंधन सुदृढ होता है। रूम हीटर यह आनंद नही देता, वह सोने को प्रेरित करता है। गोरसी में धुआँ भी कम ही होता है। लोक सृजित यह उपकरण ताप देने के साथ ही बातचीत से उत्पन्न लोकरस का सृजन करता है। गोरसी के इन गोठ बात के साथ छत्तीसगढ के कवि शंभूलाल शर्मा ‘वसंत’ की गोरसी पर यह छत्तीसगढ़ी कविता पढ़ा जाना इस मोहक ताप से गुजरना है –

जाड़ अब्बड़ गझा गे, गोरसी ह कंझा गे
माचिस घलो सिता गे, चिमनी घलो बुता गे
नींद नई तो परत हे, कथरी घलो ठरत हे
बूढ़ी दाई काँपत हे बबा बीड़ी ल ताकत हे
लकड़ी कुटा डार दे, गोरसी ल बार दे !

गोरसी का ताप जीवन और रिश्तों में बना रहे, यह कामना है।

About the author

पीयूष कुमार

पीयूष कुमार

पता - वार्ड नम्बर 04, शांतिनगर स्ट्रीट, बागबाहरा

जिला - महासमुंद (छत्तीसगढ़) 493449
लेखन - सह संपादक 'सर्वनाम'। आलेख, समीक्षा, अनुवाद, कविता, सिनेमा आदि विधाओं में लेखन। हंस, संप्रेषण, अक्षर पर्व, सर्वनाम, छत्तीसगढ़ मित्र, शैक्षिक दखल आदि पत्रिकाओं, विभिन्न समाचार पत्रों, और ऑनलाइन पोर्टल, न्यूजसाइट पर प्रकाशन।
प्रकाशन - 'सेमरसोत में साँझ' नाम से कविता पुस्तक भारतीय ज्ञानपीठ से सद्यप्रकाशित।
अन्य - लोकसंस्कृति अध्येता। शौकिया फोटोग्राफी, पुस्तकों के कव्हर हेतु छायांकन।
संप्रति - छत्तीसगढ़ उच्च शिक्षा विभाग के अंतर्गत डिग्री कॉलेज में असिस्टेंट प्रोफेसर
मोबाइल - 8839072306
ई मेल - piyush3874@gmail.com

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