विभय कुमार ” दीपक ” II
1. नये शब्द
ढूंढ रहा था,
कुछ प्यार भरे
नये शब्द
तुम्हारे लिये।
क्योंकि
जो भी
प्रचलित शब्दावली है,
प्यार की,
इश्क़ की,
मोहब्बत की,
प्रेम की,
प्रीत की,
उल्फ़त की,
सबमें प्रयुक्त शब्द
हो चुके हैं
काफ़ी पुराने।
मन नहीं किया
उन्हें दोहराने का
तुम्हारे लिये।
तुम नयी तो
तुम्हारे लिये
कहे जाने वाले
शब्द / सम्बोधन भी
नये ही होने चाहिये ” दीपक “।।
2. आवाज़ की ज़द में
गगनचुंबी इमारतों में,
रहने वाले
अगर दिल के
भाव भी
ऊँचे रखें
उनमें उच्च विचारों को
संरक्षित करें,
सुरक्षित करें
तो क्या ही
बात हो।
सार्थक हो जाये
ये ऊँचाई।
सिर्फ नारियल ही
न तोडें,
तोडें नीचे झुककर
घासों में उगे
पीले फूलों को भी।
महत्ता उतनी ही दें,
उन्हें भी।
न हो जायें
इतनी दूर कि
कोई आवाज़ ही
न पहुँच सके ,
उन तक ” दीपक “।।
3. परछाइयाँ
लम्बी होतीं,
छोटी होतीं,
बनती – बिगड़ती,
दिखतीं – छिपतीं,
कभी होतीं,
कभी नहीं होतीं
परछाइयाँ।
साथी अपनी
अपने से जुड़ीं।
अपने जैसे
रूप और आकार की।
लेकिन
होती हैं
रंग में ,
काली परछाइयाँ।
परछाइयों पर
मत करना
भरोसा कभी भी
न करना इनका एतबार
क्योंकि
कभी भी- कहीं भी “दीपक”,
मौके -बेमौके
साथ छोड़ देती हैं,
परछाइयाँ ।।
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