सुजाता राज्ञी II
बहुत पहले शायद तब मैं आठवीं कक्षा में थी,दिल्ली दूरदर्शन के किसी कार्यक्रम में लेह -लद्दाख पर एक डॉक्यूमेंटरी फिल्म देखी थी। तभी से वह पत्थरीला सौंदर्य मेरे सपनों में बस गया था । सितम्बर 2017 में मेरा यह सपना पूरा हुआ । लेह, लद्दाख साम्राज्य की राजधानी हुआ करता था । यह हमारे देश का सबसे बड़ा जिला है जो पूर्वी जम्मू – कश्मीर राज्य के उत्तर में स्थित है । लेह हवाई अड्डे का नाम कुशोक बूकुला रिनपोछे है जो 19वीं सदी के एक भारतीय राजनेता और भिक्षुक थे।एयरपोर्ट पर उतरते ही लगा मानों छोटी -छोटी पहाड़ियों की टुकड़ी ने हमें घेर लिया हो। ऊपर नीला आकाश चमक रहा था, साफ और विशुद्ध नीला। पहली बार मिलावट रहित यह नीला रंग देखकर आप दंग रह जाएगें और आपने जो कुछ देखा उसकी पुष्टि करने के लिए फिर से आसमान की ओर नजर उठा कर देखेगें और देखते रह जाएगें शायद तब तक, जब तक वह अनोखा नीला रंग आपकी आँखों में भर न जाए। महानगर के बाशिन्दों को ऐसा सुर्ख नीला रंग कहाँ नसीब होता है । नीले रंग का यह अद्भुत शेड सिर्फ एक ही चित्रकार के पास है।
एयरपोर्ट से होटल जाते समय मैंने देखा कि सड़क पर लोग बहुत कम हैं । बिलकुल शांत शहर और हल्की ठण्डी हवा और वही अनोखा नीला आकाश और संग चलता धूसर पहाड़ । चारों तरफ नि:शब्दता थी बस हवा में लहराते और सीधे खड़े पेड़ो के पत्तों में ही हरकत थी लेकिन वह भी चुपचाप, बिना शोर किए,बस धीमी -धीमी सरसराहट । होटल की सबसे खूबसूरत बात थी कमरे की खिड़की । खिड़की से जो दृश्य नजर आता था वह एक सुनियोजित पेंटिंग जैसा था । एक ऐसा चित्र जिसके दृश्य का चुनाव फ्रेम को ध्यान में रख कर किया गया होता था बड़े सलीके से रंग-योजना की गई हो । सामने बर्फ से ढका पहाड़, फिर बिलकुल अनुशासित सैनिक की तरह खड़े लम्बे और तने हुए हरे -हरे पेड़ । इनके बाद गहरे हरे रंग के पेड़ों का झुरमुट और उस पर टके लाल रंग के सेब और सेब के पेड़ो के पैरों तले गाजर -गोभी का हरा -भरा खेत और सबसे ऊपर वही चमकता नीलम सा विशाल गगन । एक बार फिर अपने कंगाली का एहसास हुआ कहां फ्लैट की खिड़की से टुकड़े-टुकड़े में नजर आता धूमिल आकाश और कहां रोशनी से भरा सम्पूर्ण,अनंत,चमकीला नील गगन । मुझे साँस लेने में तकलीफ हो रही थी लेकिन मुझपर वो नीला रंग हावी था । मैं उसे इतना निहारना चाहती थी कि वो मुझे बन्द आँखों से भी नजर आए।
अगली सुबह हम खारदुंग-ला (दर्राया पास) होते हुए नुब्रा घाटी की ओर निकले । लद्दाख का स्थानीय भाषा में अर्थ है ‘दर्रों की भूमि’ यहाँ कई विश्वप्रसिद्ध दर्रें हैं जो प्रकृति की चुनौती भरे रास्तों में सफर करने वाले रोमांच के शौकीनों की पसंदीदा जगह है । लद्दाख जम्मू-कश्मीर राज्य में ही आता है । लेकिन जहाँ कश्मीर की खूबसूरती इसकी हरियाली है,वहीं लद्दाख की खूबसूरती इसकी बीहड़ चुनौतियों में है। स्कूल में जब भूगोल में समुद्रतल से ऊँचाई, अंक्षाश और देशांतर आदि याद करना पड़ता था तो यही लगता था कि कौन फुर्सितिया है जो पहाड़ो को नापता फिरता है ।और चलो अपने शौक के लिए पहाड़ो को नाप भी लिया तो इसे बच्चों की किताब में छपवाना कहाँ की बुद्धिमानी है । पहाड़ो की ऊँचाई और मनुष्य के जीवन में क्या संबंध है यह पहली बार खारदुंग-ला में जा कर ही समझ में आया । यह लेह से लगभग 40 कि.मी. दूर है । रास्ता मुश्किल था, दोनों तरफ वीरान पहाड़ियाँ, ऐसा लगता था मानों यहाँ कोई युद्ध हुआ हो या किसी प्राकृतिक आपदा में सबकुछ उजड़ गया हो, जीवन का नामोनिशान नहीं । मेरे हमराही मुझे प्रश्नवाचक दृष्टी से देख रहे थे ‘यही दिखाने लाई हो ?’ एक जगह फिल्म की शूटिंग हो रही थी । इस दर्रे की पक्की सड़क का निर्माण बीआरओ द्वारा किया गया है । वहां समुद्र तल से इसकी ऊँचाई 18,380 फीट लिखी गई है।बीआरओ द्वारा खारदुंग-दर्रा को दुनिया का सबसे ऊँचा मोटरेबल रोड होने का दावा किया जाता है जो कि विवादास्पद है । गुगल की रिपोर्ट माने तो केवल भारत में ही खारदुंग-ला से ऊंची सडकें हैं जिनमें तीन तो लद्दाख में ही हैंमारसिमिक-ला ,फोटी -ला और काकसांग-ला। सियाचीन ग्लेशियर जाने का एक मुख्य मार्ग होने के कारण यह व्यापार के साथ-साथ सीमा सुरक्षा की दृष्टि से भी अत्यंत महत्वपूर्ण है । तिब्बती भाषा में‘रोहतांग’ का अर्थ है ‘शवों का ढेर’। इस मार्ग के बनने से पहले व्यापार के सिलसिले में तिब्बतियों को इस दर्रे के मुश्किल रास्ते को पैदल पार करना होता था। कई बार बर्फीले तूफानों के चपेट में आकर अनेक व्यापारियों की इसी दर्रे में मौत हो जाती थी इसलिए इसे ‘शवों का ढेर’ नाम से जाना जाता है । गाड़ी से बाहर आकर खड़े होते ही बर्फीली हवा और कम ऑक्सीजन का सामना करना पड़ता है। इसी दर्रे से होकर नुब्रा घाटी का रास्ता निकलता है ।
कहते हैं खेती के मौसम में नुब्रा घाटी में कुछ खेती होती है। उस समय यह घाटी निश्चित ही सुन्दर लगती होगी। यह सियाचीन ग्लेशियर से निकली नुब्रा नदी की घाटी है जहाँ श्योक नदी भी बहती है । यहां हुंडर का रेगिस्तान एक अद्भुत नजारा है । यह नुब्रा सामाज्य की राजधानी हुआ करता था। डिस्किट मोनेस्ट्री से लगभग 8 कि.मी की दूरी पर सफेद बालू का रेगिस्तान है। बर्फ के रेगिस्तान में बालू का रेगिस्तान,एक और अजूबा । पहली नजर में देखने पर यह कृत्रिम लगता है । जैसे शहरों में मेले में दो चार ऊँटों के साथ कुछ बालू के टिले भी बना दिए जाते हैं ठीक वैसा ही। चारों तरफ ऊँचे पहाड़ों से घिरे इलाके में कुछ दूर तक चाँद के आकार के सफेद बालू के ढेर नजर आते हैं। पहाड़ का पानी पारदर्शी होता है लेकिन लद्दाख में नदियों के पानी का रंग धूसर है । ऐसा लगता है मानो पानी में सिमेंट घुला हो और बालू सिमेंट के टीलों जैसा लगता है । यहीं पर दो कुबड़ वाले ऊँटों का डेरा हैं। यहां एक मजेदार घटना घटी। मैंने ऊँट के एक छ: महीने के बच्चे की फोटो अपने बच्चों के साथ लेनी चाही। वो बार-बार अपना मुँह फेर लेता । परेशान होकर मैंने कहा “छोड़ो, शायद इसे फोटो खिंचवाना पसंद नहीं है ।” बच्चे ऊँट की सवारी करने निकल गए । धीरे-धीरे अँधेरा होने लगा और चांद नजर आने लगा । तभी अचानक लगा मेरे कान के पास कुछ है । मैंने पीछे देखा तो वही बच्चा मेरा ध्यान अपनी तरफ आकर्षित करने की कोशिश कर रहा था । उसकी भाषा मैं नहीं समझ सकती थी लेकिन मेरे अन्तर्मन को लगा जैसे वो कह रहा है-‘अब मेरी फोटो लो ।’ यकीन मानिए, इसके बाद उसने एक फिल्म स्टार की तरह खड़े होकर मेरे बच्चों के साथ अपनी फोटो खिंचवाई । उसके बालसुलभ नखरे पर हमसब बहुत देर तक हंसते रहे ।
हमारा अगला पड़ाव द्रास था । द्रास जाते समय कारगिल में रूकना पड़ा । द्रास जाने का उद्देश्य प्राकृतिक सौन्दर्य का दर्शन नहीं था । इस तीर्थ तक जाए बिना लेह-लद्दाख की यात्रा अधूरी रह जाती । वहां जाने पर मालूम हुआ कि कारगिल -युद्ध,कारगिल में नहीं लड़ा गया था, इसकी वास्तविक रणभूमि तो द्रास थी । कारगिल के रास्ते आप पश्चिम की तरफ निकल जाए तो पाकिस्तान सीमा है और पूरब की ओर निकले तो चीन की सीमा है । द्रास की ओर जाते समय काराकोरम एवं लद्दाख दोनों पहाड़ियां देखने को मिलती हैं । हमारे सारथी श्री फुंचुक ने बताया कि काराकोरम का लद्दाखी भाषा में अर्थ है मिश्री और गुड़ । काराकोरम पहाड़ का रंग कहीं मिश्री जैसे धूसर सफेद है तो कहीं गुड़ जैसा लाल । कहीं-कहीं हरे पहाड़ भी नजर आते हैं । इस रास्ते में दोनों ओर नुकीले पहाड़ नजर आते हैं और बीच में घुमावदार, चिकनी, पक्की,काली सड़क । ऐसा लगता है मानो किसी अनंत सफर में निकले हो । जहां- जहां रास्ते में पहाड़ पर पहाड़ की छाया पड़ती थी वहां धूप नहीं थी, लेकिन जैसे ही घुमाव आता या पहाड़ों का गलियारा खत्म हो जाता तीखी धूप जलाने को दौड़ती, तो ठीक उसी समय ठण्डी हवा कंपाने भी लगती है।
हमराही ने नाम पर पूरे रास्ते में काली सर्पीली सड़कों पर जैतूनी ट्रक ही रेंगते हुए नजर आते थे। भारतीय सेना ठण्ड की तैयारी कर रही थी । इन ट्रकों को देखकर कारगिल -युद्ध के दौरान टेलीविजन पर समाचार में जो देखा था वह भयावह दृश्य आँखों के सामने सजीव हो उठा । यही वह रास्ता है जहां से शहीदों का कारवां गुजरा था । कारगिल-युद्ध के शहीदों के स्मारक पर माखनलाल चतुर्वेदी की प्रसिद्ध कविता ‘पुष्प की अभिलाषा’ लिखी हैं -‘मुझे तोड़ लेना वनमाली! उस पथ पर देना तुम फेंक,मातृभूमि पर शीश चढ़ाने, जिस पथ जावें वीर अनेक’… यह कोई धार्मिक स्थल नहीं है लेकिन आपका सर किसी अंत:प्रेरणा से झुक जाएगा और हाथ अपनेआप जुड़ जाएगें, फिर आप अपनी अंजुली भरने के लिए आस-पास फूल ढूढने लगेंगे ।
भारत के पश्चिमी सीमा की रक्षा के लिए द्रास में प्रकृति ने अत्यंत दुर्गम पहाड़ों की श्रृंखला खड़ी की है । द्रास समुद्रतल से 10990 फीट की ऊँचाई पर है । विजय-स्मारक के पास तैनात फौजी ने हमें बताया कि हम जहां खड़े हैं वहां जाड़े में 10 फीट बर्फ पड़ती है और ऊपर, जहां से आक्रमण हुआ था वहां 20 फीट से ज्यादा बर्फ पड़ती है । इसे साइबेरिया के बाद दुनिया का दूसरा सबसे ठण्डा,आबादीवाला क्षेत्र माना जाता है । जाड़े में यहां का तापमान-60 डिग्री सेल्सियस तक रिकार्ड किया गया है। हमारे देश को इस सीमा पर सुरक्षा के लिए अपने कोष का बहुत बड़ा हिस्सा खर्च करना पड़ता है। उस धन को यदि हम देश के विकास में लगा पाते तो भारत की सूरत ही कुछ और होती । बुजुर्गों ने सही कहा है अगर पड़ोसी अच्छा न हो घर की उन्नति रुक जाती है । कारगिल युद्ध का घाव हमारे लिए चेतावनी थी इसलिए आज प्रकृति की हर चुनौति को धत्ता बता कर हम जैसे हाड़माँस के जीव हर मौसम में फौलाद की तरह द्रास सीमा पर हमेशा तैनात रहते हैं। विजय-भूमि से रवाना होने से पहले मैंने पीछे मुड़कर देखा,लगा जैसे कुछ छूट गया हो, कुछ बाकी रह गया हो । चमकीले नील गगन में केसरिया,सफेद और हरी पट्टी शान से लहरा रही थी,मैंने ईश्वर से प्रार्थना की ‘झण्डा ऊँचा रहे हमारा ।’
द्रास से लौटते समय हम पांगोंग त्सो (झील) की ओर बढ़े । समुद्र तल से लगभग 4500 मीटर की ऊंचाई पर स्थित यह खारे पानी की झील है। इसका एक हिस्सा भारत में और दो तिहाई हिस्सा तिब्बत में है, जो अब चीन के कब्जे में है। पांगोंग त्सो को लद्दाख का नीला कोहिनूर कहूँ तो अतिश्योक्ति न होगी । इसका रास्ता निर्माणाधीन होने के कारण हिचकोलोभरा है। नदी है मगर हरियाली नहीं। बंजर धरती में सफर करते-करते लगता है मानो आँखे भी पथरा जाएगी। धूसर पहाड़ो के बीच में से नीले पानी की यह झील जब प्रकट होगी तो आप पलकें भपकाना भूल जाएगें, आपको लगेगा ये क्या हुआ, इतना सारा नीला पानी, कौन सनकी है जो झील के पानी में नीला रंग मिलाता है?
मैं पानी को अपनी मुट्ठी में भरकर धीरे से खोलती हूँ, ये क्या ! कहां गया नीला पानी, मेरी हथेली का रंग,हाथ की रेखाएँ पारदर्शी पानी के पीछे साफ-साफ नजर आ रही थीं । मैं संदेह से फिर झील को देखती हूँ । ये क्या ! पानी ने अपना रंग बदलना शुरू कर दिया कहीं फिरोजी तो कहीं बैंगनी, कहीं आसमानी, कहीं फिर से नीला, कहीं और ज्यादा नीला, मैं एक कदम पीछे हट गई । मेरी कल्पना को पंख लग गए, मुझे दिन में वहाँ नीली परियां उड़ती हुई दिखने लगी, उनके साथ नीली तितलियां उड़ रही थी, कहीं नीले फूल पर बैठ परियां हंस रही थी । लगा जब यहाँ सब शान्त और स्थिर हो जाता होगा तब जरूर कहीं अनहद संगीत भी बजता होगा । सच में, जादुई है यह नीली झील। लेह की धरती बंजर कहाँ है । उसके आँचल में जो नगीना है वो किसी और के पास कहां। धूसर पहाड़ों पर लगनेवाले नीली धूप के मेले में और भी कई चमत्कार हैं लेकिन गिनती के पन्नों में अनंत गगन की कहानी कहाँ समा पाएगी ।
यहां के लोग बड़े सरल हैं। इनकी बहुत कम जरूरतें हैं। आर्थिक रूप से सम्पन्न लोगो के घर भी मिट्टी के होते हैं । यहाँ बारिश बहुत कम होती है इसलिए ईंट भी मिट्टी की बनी होती है। रास्ते में एक स्थानीय बुजुर्ग महिला से बात हुई । वो सम्पन्न महिला थीं लेकिन अपने घर के बाहर बैठकर फल और मेवा बेच रही थीं । हमने उनकी पूरी दुकान खरीद ली । खुश होकर उन्होंने हमें अपना पूरा घर घुमाया। हम अजनबी सैलानियों से कोई भय नहीं, कोई दुराव-छिपाव नहीं । उन्होंने अपनी उम्र 84साल बताई । इस उम्र में भी उनके पूरे दाँत सलामत थे । जरूरत का हर सामान उनके घर पर मौजूद था। मेरा मतलब कार, फ्रीज,टीवी, वाशिंग मशीन या माईक्रोवेब से नहीं है। उनके घर के आगे सब्जी उगती है, दूध के लिए गाय है, बादाम, आलुबुखारा, और सेब घर में ही उगते हैं, ऊन के लिए बकरी है। जाड़े में खाने के लिए बाहर धूप में सेब,टमाटर, गोभी के टुकड़े सूख रहे थे। एक जगह बकरी के कतरे हुए बाल भी रखे थे जिनसे ऊन बना कर जाड़े में गर्म कपड़े बनाए जाने थे। मैंने उनसे पूछा अम्मा, आपलोग पूरे दिन इतनी मेहनत करते हैं लेकिन जाड़े में जब चारों ओर बर्फ जम जाती है तो दिन कैसे कटता है। उन्होंने हँसते हुए उत्तर दिया-“जाड़े में हम कुछ नहीं करेगा, बस आराम करेगा। कभी हम निमक का चा पीएगा, तो कभी चीनी का, कभी दूध डाल के चा पीएगा तो कभी बिना दूध का” और खिलखिलाकर हंस पड़ीं। उनकी हंसी में बच्चों सी निश्छलता थी और आँखों में स्वालम्बन की चमक । वहां से निकलते समय वे हमें दरवाजे तक छोड़ने आई और बड़े स्नेह के साथ एक पत्थर मेरे हाथ में थमाकर कहा “इससे धनिया की चटनी बनाकर खाना।” अपनी हथेली में उस स्नेहासिक्त पत्थर को थामकर मैं नि:शब्द हो गईऔर लद्दाखी में मैं इतना ही कह पाई-‘जुले (नमस्ते), फिर जरूर मिलेंगें ।
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