अश्रुत पूर्वा II
बहुत कठिन डगर है पनघट की। हम में से कई लोगों ने ये पंक्तियां न केवल पढ़ी होंगी बल्कि लिखी भी होंगी। इसे लिखने वाले बहुमुखी प्रतिभा के धनी अमीर खुसरो को कौन नहीं जानता। उनकी लोकप्रियता का अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि सभी समुदायों के लोग आज भी उनकी मजार पर अपने श्रद्धा सुमन अर्पित करने जाते हैं। खुसरो की रचनाएं देश से लेकर विदेश में लोकप्रिय हैं। इस लिहाज से उन्हें विश्व कवि माना जाना चाहिए। खुसरो भारत में जन्मे और यहीं रच-बस गए। वे हमारे हो गए।
खुसरो की राष्ट्र प्रेम की भावना पर मशहूर विद्वान सैयद सुलेमान नदवी ने अपने एक भाषण में कहा था कि उन्होंने हिंदुस्तान की खाक को अपनी आंखों का सुरमा बनाया था। वैसे वे नस्ल से तुर्क थे, मगर उनका दिल हिंदुस्तान की मिट्टी से बना था। यों खुसरो के जन्म को लेकर विद्वानों में एकराय नहीं है। तीन मार्च 1253 ई. में उत्तर प्रदेश के जिला एटा के पटियाली में हुआ। मगर कुछ विद्वान उनका जन्म दिल्ली में होने की बात मानते हैं। कुछ ने कहा कि उनका जन्म बुखारा में हुआ। मगर ज्यादातर विद्वान मानते हैं कि उनका जन्म एटा में हुआ और बाद में सात साल की उम्र में वे दिल्ली चले गए थे। खुसरो तीन भाई थे। जब वे पैदा हुए तो इनके पिता एक संत के पास ले गए। उन्होंने खुसरो को देखते ही कहा कि तुम एक ऐसे बच्चे को लाए हो जो खाकानी से भी दो कदम आगे होगा।
…तो बहुत कठिन डगर है पनघट की। यह पंक्ति यूं ही नहीं लिखी खुसरो ने। वे बचपन से मेधावी जरूर थे मगर आगे का जीवन संघर्षमय रहा। पिता मंगोलों के साथ युद्ध में मारे गाए। सात साल की उम्र में पिता का साया उठ गया। तब वे नाना के पास दिल्ली ले गए। जहां उन्होंने ही उनकी पढ़ाई-लिखाई की व्यवस्था की। इसके बाद तो खुसरो की प्रतिभा निखरती चली गई। वे कई विद्वानों के संपर्क में आए। वे इतने कुशल सैनिक थे कि अपनी विद्वता और रण कौशल से सुल्तान शमसुद्दीन अल्तमश के करीब आ गए। जल्दी ही वे शाही सेना के सरदार भी हो गए। खुसरो की मां भारतीय संस्कारो में पली बढ़ी थी तो खुसरो को भी भारतीय भाषाओं के साथ अलग-अलग संस्कृतियां भी विरासत में मिलीं जिसकी छाप उनकी रचनाओं में साफ दिखाई देती है।
बाल्यकाल से ही खुसरो की काव्य में रुचि थी। कहते हैं कि जब ख्वाजा साउदुद्दीन से शिक्षा ले रहे थे तो वे अकसर शेर गुनगुनाया करते थे। एक समय ऐसा भी आया जब खुसरो की बुद्धिमत्ता के ख्वाजा अजीजुद्दीन भी कायल हुए। उस समय वे 20 साल के भी नहीं हुए थे। उन्होंने पहला दीवान लिखा – तोहफ्तुस्सिगर। क्या ही अजीब बात है कि खुसरो साहब का कोई काव्य गुरु नहीं था। अलबत्ता उन्होंने फारसी के कुछ कवियों की शैली जरूर अपनाई। बाद में शेख सादी का प्रभाव उन पर पड़ा। वहीं नीति काव्य के क्षेत्र में खाकानी और सनाई का असर उन पर देखा जा सकता है। आध्यात्मिक क्षेत्र में उनके गुरु निजामुद्दीन औलिया थे। जो भी हो खुसरो के काव्य में भारतीय जीवन-व्यवहार और संस्कृति की झलक मिलती है। और वे एक कवि के रूप में विख्यात हुए।
- बहुत कठिन डगर है पनघट की। ये पंक्ति यूं ही नहीं लिखा खुसरो ने। वे बचपन से मेधावी जरूर थे मगर आगे का जीवन संघर्षमय रहा। पिता मंगोलों के साथ युद्ध में मारे गाए। सात साल की उम्र में पिता का साया उठ गया। तब वे नाना के पास दिल्ली ले गए। जहां उन्होंने ही उनकी पढ़ाई-लिखाई की व्यवस्था की। इसके बाद तो खुसरो की प्रतिभा निखरती चली गई। वे कई विद्वानों के संपर्क में आए। वे इतने कुशल सैनिक थे कि अपनी विद्वता और रण कौशल से सुल्तान शमसुद्दीन अल्तमश के करीब आ गए। जल्दी ही वे शाही सेना के सरदार भी हो गए। खुसरो की मां भारतीय संस्कारो में पली बढ़ी थी तो खुसरो को भी भारतीय भाषाओं के साथ अलग-अलग संस्कृतियां भी विरासत में मिलीं जिसकी छाप उनकी रचनाओं में साफ दिखाई देती है।
खुसरो अपने जीवन में कई शासकों के संपर्क में आए। उन्हें जी हजूरी पसंद नहीं थी। शाही साजिशों से उकता कर ही वे ख्वाजा निजानुद्दीन औलिया की शरण में वे गए। वैसे भी उनकी ख्याति से कई लोग उनसे ईर्ष्या करने लगे थे। कुछ तो उनके शत्रु ही हो गए। कहते हैं कि 1317 में जब दिल्ली का शासक कुतुबद्दीन मुबारक शाह बना तब उसने खुुसरो के लिखे कसीदे से प्रसन्न होकर हाथी के वजन के बराबर सोना पुरस्कार में दिया था। इसके बाद 1320 में शाह की हत्या हो गई। उसकी जगह सुल्तान बने खुसरो खां। फिर गयासुद्दीन तुगलक सुल्तान बने। गयासुद्दीन खुसरो के अंतिम आश्रयदाता थे। उसी के कार्यकाल में खुसरो ने मशहूर तुगलकनामा लिखा।
अमीर खुसरो ने अपनी रचनाओं से भारतीय साहित्य को समृद्ध किया है। साहित्य में उनके योगदान को भुलाया नहीं जा सकता। दोहे, गीत, गजल के इलावा उन्होंने पहेलियां और मुकरियां भी लिखीं। इसके अलावा भी बहुत कुछ रचा। उनका लिखा काफी कुछ मिलता है, मगर हिंदी रचनाओं की कोई पुरानी पांडुलिपि नहीं मिलती है। खुसरो का चर्चित दोहा आज भी औलिया साहब के उर्स पर गाया जाता है-
‘गोरी सोने सेज पर मुख पर डारे केस
चल ‘खुसरो’ घर आपने रैन भई चहुं देश।’
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