समीक्षा

हमारे जीवन को समृद्ध करने फिर लौटेगी गोरैया 

अश्रुत पूर्वा II

एक समय था जब आंगन में आकर गोरैया फुदकती थी। चहचहाती था। बालकनी या मुंडेर और छत पर आकर बताती थी कि उसे भूख लगी है। हम सबकी रात भर की मीठी नींद इसी गौरैया की चहचहाहट से खुलती थी। और एक खुशनुमा दिन की शुरुआत होती थी। अब अलार्म से झल्लाहट होती है। सच कहें तो गोरैया से हम सबके जीवन का एक अटूट रिश्ता था। एक सामाजिक रिश्ते जैसा। अब जैसे लोग बदले, माहौल बदला तो उसे यह सब शायद रास नहीं आया। उसने हम सबसे मुंह फेर लिया। यों कहें कि वो हम सबसे रूठ गई।

बीते दो से ढाई दशक में जिस तरह भारत का पर्यावरण दूषित हुआ है उससे न केवल मनुष्यों पर बल्कि पशु-पक्षियों पर भी गहरा असर पड़ा है। नन्हीं गोरैया भी कहां बच पाई। महानगरों और शहरों में लाखों गाड़ियों से निकलने वाले धुएं और शोर प्रदूषण का उस पर प्रभाव पड़ा। हर घर में एअरकंडीशनर से निकल रही गरम हवाओं, मोबाइल टावरों से निकल रही तरंगों-विकिरणों ने तमाम पक्षियों को बेहाल कर दिया। गोरैए ने शहरों से मुंह फेर लिया। आखिर घुटन की इंतहा होती है।

फोटो साभार: पिक्सल्स.कॉम

इसी रूठी गोरैया को मनाने के लिए लेखक संजय कुमार ने शायद यह किताब लिखी है- अभी मैं जिंदा हूं…गोरैया। सचमुच गोरैया जिंदा है। वह हमसे बस कुछ दूर हो गई है। किताब की भूमिका में वाइल्ड लाइफ ट्रस्ट आफ इंडिया नई दिल्ली के संरक्षक प्रमुख डॉ. समीर कुमार सिन्हा ने लिखा है- क्या सच में गौरैया विलुप्ति की ओर बढ़ रही थी या बढ़ रही है? इंटरनेशनल यूनियन फॉर कंजर्वेशन आफ नेचर की रेडलिस्ट देखने पर यह बात साफ होती है कि गोरैया की संख्या में कमी जरूर हो रही है, लेकिन यह लुप्तप्राय या संकटग्रस्त नहीं है। यह जरूर है कि अब यह उन्ही जगहों पर दिखती है जहां इसके लिए सही अधिवास है। शहरी क्षेत्र में इसके अधिवास में चिंतनीय क्षरण जरूर हुआ है, लेकिन गांवों में स्थितियां बेहतर हैं।  

  • अभी मैं जिंदा हूं…गोरैया
  • रूठी गोरैया को मनाने के लिए लेखक संजय कुमार ने शायद यह किताब लिखी है-अभी मैं जिंदा हूं…गोरैया। सचमुच गोरैया जिंदा है। वह हम से बस कुछ दूर हो गई है। लोग बदल गए। मकान-फ्लैट बदल गए। वे इस तरह बन रहे हैं कि उसमें इस नन्ही चिड़िया के लिए कोई जगह ही नहीं।
फोटो साभार: पिक्सल्स.कॉम

कोई दो राय नहीं कि शहरों में फैल गए कंक्रीट के जंगलों में बन गए लाखों अपार्टमेंट और छोटे-छोटे फ्लैटों में इस छोटी सी चिड़िया के लिए कहीं कोई कोना नहीं, जहां वे अपने लिए जतन से घोंसला बना सकें। कई तो शीशे से ढक गए हैं जिनसे टकरा कर छोटी सी यह चिड़िया घायल हो जाती है।

अब बात संजय कुमार की। वे सरकारी अधिकारी हैं। वे पत्रकार भी रहे। पर्यावरण और पक्षियों के प्रति बेहद संवेदनशील संजय साल 2007 से गोरैया संरक्षण की दिशा में सक्रिय हैं। शुरू में इनके घर पर दो गोरैया आती थी। उन्हें दाना-पानी की तलाश में भटकते देखा तो गोरैये के लिए पहल की। पत्नी डॉ. लीना ने भी हाथ बंटाया। दाना-पानी मिलने पर गोरैये की संख्या बढ़ने लगी। आज उनके फ्लैट की बालकनी पर बड़ी संख्या में गोरैया आती हैं और अपनी चहचहाहट से खुशियां भर देती है।

फोटो साभार: पिक्सल्स.कॉम

गोरैया संरक्षण को संजय कुमार ने अभियान ही नहीं बनाया बल्कि उसे जीवन का हिस्सा भी बनाया। उन्होंने मीडिया का सहारा लिया। लेख लिखे। फोटो प्रदर्शनी लगाई। गोरैये की तस्वीरें खींच कर सोशल मीडिया पर डाली। कई लोग साथ जुड़े। फिर यह किताब सामने आई। संजय यह बताना चाहते हैं कि गोरैया मरी नहीं, वह जिंदा है। गोरैया भी यही कह रही है कि आप मेरे भाई-बहनों का ख्याल रखिए। मेरा अस्त्तिव खतरे में है। मगर मैं जिंदा हूं्। मुझे बचाने की पहल करें। ये वादा है कि मैं आपके घर-आंगन को अपनी चहचहाहट की खुशियों से भर दूंगी।

संजय कुमार की किताब में 23 छोटे-छोटे अध्याय हैं। सभी अध्याय पठनीय और भाषा के स्तर पर धाराप्रवाह। तीसरे अध्याय ‘आइए रूठी गोरैया को मनाएं’ में गोरैया खुद आपसे संवाद कर रही है-घरों में बसेरा बसाने वाली मैं गोरैया अभी जिंदा हूं…मुझे बचा लें…कई इलाकों से गायब हो चुकी हूं। यह भ्रम नहीं। सौ फीसद सत्य है। … इसी अध्याय में संजय कुमार बताते हैं कि अकेले कुछ नहीं होता, गोरैये को दाना-पानी तो दिया ही, उनके साथ घंटों समय बिताने लगा। दाना-पानी रखने के दौरान वे थोड़ी दूर चली जातीं लेकिन जैसे ही दाना-पानी भर देता तो हटते ही चुगने, पानी पीने आ जाती। कह सकता हूं कि वे पहचानने लगीं।

संजय कुमार की यह किताब बताती है भारतीय शहरी जीवन में आए बेतहाशा बदलाव ने गोरैये को हम सभी से दूर कर दिया है। लोग बदल गए। मकान-फ्लैट बदल गए। वे इस तरह बन रहे हैं कि उसमें इस नन्ही चिड़िया के लिए कोई जगह ही नहीं। पशु-पक्षियों को बचा हुआ भोजन देने की परिपाटी खत्म हो गई। अब इसे फ्रिज में रख दिया जाता है। कीटनाशकों के प्रयोग से भी नुकसान हुआ। कीड़े खत्म हो गए तो गोरैए का आहार भी खत्म हो गया। अब वो क्या करे?

कीटनाशकों के इस्तेमाल से सब्जियों और अन्य फसलों पर से कीड़े गायब हो रहे हैं। गोरैया इधर उधर से अपना पेट तो भर लेती है, मगर अपने बच्चों के लिए प्रोटीनयुक्त आहार कहां से लाए?

फोटो साभार: पिक्सल्स.कॉम

देश के छह मेट्रो शहरों में इनकी संख्या में कमी पाई गई है। लेकिन देश के बाकी शहरों, कस्बों या गांवों में ऐसा नहीं है। यही वजह है कि गोरैया के संरक्षण के प्रति जागरूकता की आवश्यकता महसूस हो रही है। दिल्ली और बिहार सरकार ने इसे राजकीय पक्षी घोषित कर दिया है।

संजय कुमार की यह किताब गोरैया संरक्षण का एक बड़ा संदेश देती है। इसका हर अध्याय पठनीय है। हमलावर पक्षी कैसे गोरैया के बच्चों का शिकार करते हैं। या फिर बघेरी की आड़ में कैसे लोगों को इसे बेच दिया जाता है और ये इंसानों का आहार बन जाती हैं। पानी की तलाश में किस तरह भटकती है गोरैया। क्या-क्या उसके आहार हैं? वह किस तरह सृजन करती है। यह सब लेखक ने अपनी पुस्तक में विस्तार से बताया है। तेरहवें अध्याय में इसका मनोहारी वर्णन किया गया है। एक सौ सात पेज की यह किताब गोरैया के बारे में वह सब कुछ बताती है जो आप जानना चाहते हैं। हर पेज गोरैया के चित्रों से सुसज्जित है। अंत में प्रसिद्ध कवयित्री महादेवी वर्मा की इस कामना को आमीन कहें कि हमारे शहरी जीवन को समृद्ध करने गोरैया फिर लौटेगी।     

पुस्तक- अभी मैं जिंदा हूं…गोरैया
लेखक- संजय कुमार
प्रकाशक-अनन्य प्रकाशन, नई दिल्ली
मूल्य- तीन सौ रुपए

     

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ashrutpurva

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