अश्रुत पूर्वा II
यह कोई 1947 की बात है। गुरुदत्त बेरोजगारी के आलम में थे। उनका एक अनुबंध टूट गया था। उस समय गुरुदत्त बंबई के माटुंगा में परिवार के साथ रहते थे। यही वह समय था जब गुरुदत्त ने अंग्रेजी में लिखने का अभ्यास शुरू किया। वे अंग्रेजी साप्ताहिक इलस्ट्रेटेड वीकली आफ इंडिया में लघु कथाएं लिखने लगे। यह शायद ही कोई जानता हो कि संघर्ष के उन्हीं दिनों गुरुदत्त ने आत्मकथात्मक शैली में ‘प्यासा’ फिल्म की पटकथा लिखी थी। हालांकि मूल रूप से यह पटकथा ‘कशमकश’ शीर्षक से लिखी गई। जबकि फिल्म‘प्यासा’ 1957 में आई।
गुरुदत्त जब याद आते हैं तो न केवल एक शानदार फिल्म निर्देशक के रूप में बल्कि एक भावुक अभिनेता के रूप में भी उनकी छवि सामने आती है जो देश-दुनिया के बदलते तेवर से निराश है। वे हिंदी सिनेमा के अकेले निर्देशक हैं जिसने कलात्मक फिल्में बनाने का न केवल जोखिम लिया बल्कि इसे व्यावसायिकता से जोड़ा भी। यही नहीं वे अपने अभिनय से वेदना का चितेरा भी बने। गुरुदत्त का पूरा जीवन संघर्ष भरा रहा। जिसकी छाप उनके अभिनय और फिल्म निर्देशन में दिखाई पड़ती है।
आर्थिक कठिनाइयों के कारण गुरुदत्त जरूर स्कूली शिक्षा पूरी नहीं कर पाए मगर संगीत, नृत्य, अभिनय और निर्देशन में उन्होंने अपने दौर में दिग्गजों को चमत्कृत कर दिया। प्रभात कंपनी ने उनको बतौर कोरियोग्राफर तक रखा था। पीएल संतोषी की ‘फिल्म हम एक हैं’ में उन्होंने नृत्य निर्देशन भी किया। मगर एक समय ऐसा भी आया कि उन पर अभिनय करने का दबाव डाला गया।
प्रभात में काम करने के दौरान ही उनकी देवानंद और रहमान से दोस्ती हुई। उनके सहयोग से गुरुदत्त ने हिंदी सिनेमा में अपनी पहचान बनाई। इन सबके पीछे उनकी समाज के प्रति गहरी चेतना, स्त्री-पुरुष के जटिल मगर भावनात्मक संबंध के प्रति उनकी परख और उनके भीतर बैठा एक कथाकार था जो निर्देशक की कुर्सी पर भी बैठता है। कुछ फिल्मों से उन्हें बेशक नाकामी मिली हो मगर वे सिनेमा की कालजयी कृतियां हैं।
उनकी फिल्म ‘प्यासा’ को टाइम मैगजीन ने दुनिया की सौ कालजयी फिल्मों में जगह दी थी। यों हर फिल्म किसी भी निर्देशक की अपनी ही होती है। मगर गुरुदत्त ‘प्यासा’ और ‘कागज के फूल’ के सबसे करीब थे। ‘कागज के फूल’ की नायिका से तो उन्हें प्यार हो गया था। नतीजा हम सब को पता है। यही वह कारण है जिससे उनके वैवाहिक जीवन में गहरा तनाव आया, और वह उनकी मौत की वजह बना।
पत्नी मशहूर गायिका गीतदत्त से दूरियां और अंतत: वहीदा रहमान की धीरे-धीरे बढ़ती उपेक्षा से गुरुदत्त अकेले पड़ गए। और यह सदमा एक रात भारी पड़ गया। पिछली नौ जुलाई को उनकी जन्मतिथि थी मगर सिनेमा उद्योग ने भी उन्हें कहां याद किया। बतौर अभिनेता और फिल्म निर्देशक गुरुदत्त फिल्म बाजी, चौदहवीं का चांद, साहिब बीबी और गुलाम, आर-पार, मिस्टर और मिसेज 55 के लिए सदैव याद किए जाएंगे।
अंत में फिल्म कागज के फूल के एक गीत के साथ समापन। इस फिल्म के बहुचर्चित गीत- वक्त ने किया क्या हसीं सितम तुम रहे ना तुम, हम रहे न हम, को शायद गुरुदत्त ने अपने लिए ही कैफी से लिखवाया था। गाया पत्नी ने और इसे समर्पित किया अपनी खास नायिका और मित्र वहीदा पर। प्रेम त्रिकोण में उलझी अपनी प्रेम कहानी की पटकथा भी तो आखिर गुरुदत्त ने ही लिखी थी। गुरुदत्त सचमुच बहुत याद आएंगे। अपनी फिल्मों से, उनकी कहानियों से और उनमें फिल्माए गीतों से-
जाएंगे कहां सूझता नहीं
चल पड़े मगर रास्ता नहीं
क्या तलाश है कुछ पता नहीं
बुन रहे हैं ख्वाब दम-बदम…
वक्त ने किया क्या हसीं सितम
तुम रहे ना तुम हम रहे ना हम..।