मनस्वी अपर्णा II
मैंने बहुत शिद्दत से महसूस किया है कि हम मनुष्यों में अधिकांश के जीवन का केंद्रीय भाव भय होता है। हमारे अधिकांश निर्णय भय से संचालित होते हैं। अक्सर हमें पता भी नहीं होता कि हम जो कुछ भी कर रहे हैं, जो भी चाह रहे हैं, जो भी कह कर रहे हैं या जो कुछ भी सोच रहे हैं उसके पीछे प्रमुख कारक भय होता है, यहां तक कि हमारी हमारी राजनीति भय आधारित है, हम में से आधिकांश अपने देश का कोई भी कानून इसलिए नहीं मानते क्योंकि हमारी उस कानून के प्रति निष्ठा है, बल्कि हम कानून इसलिए मानते हैं क्योंकि हमको सजा का डर होता है।
हम समाज और परिवार के मानकों पर आधारित तथाकथित अच्छा आचरण करते हैं। इसलिए नहीं कि हम उसे अपने स्तर पर योग्य मानते हैं बल्कि इसलिए कि हमको डर रहता है कि यदि हमने ऐसा नहीं किया तो हम अपमानित किए जाएंगे। बुरे समझे जाएंगे।
हम एक आदर्श जीवन चाहते हैं इसलिए नहीं कि हमको आदर्श जान पड़ता है बल्कि इसलिए क्योंकि उससे इतर कोई जीवन मान्य नहीं होता है और अमान्य होने का हमको डर लगता है… हम किसी के बारे में उसके सामने अच्छा कहते हैं इसलिए नहीं कि हम उसमें अच्छाई देख रहे होते हैं बल्कि हमको उससे बुराई लेने में अपनी छवि खराब होने का डर लगता है।
हमारी राजनीति सदा दूसरा मौका, गद्दी या सत्ता न हड़प लें के भय पर केंद्रित होती हैं। हम ईश्वर की पूजा आराधना करते हैं और तमाम तरह के रीत रिवाज करते हैं इसलिए नहीं कि हम को ईश्वर से प्रेम है या श्रद्धा है, बल्कि इसलिए कि कहीं ईश्वर नाराज होकर हम पर कोई अनहोनी न ला दें इससे भी बढ़ कर शास्त्रों में बताए गए पुण्य के काम हम आंख मूंद कर किए जाते हैं ताकि नरक न जाना पड़े।
- खुशी के लिए अभय बहुत जरूरी है, अभय की अवस्था में हमारा व्यक्तिव विस्तार लिया हुआ होता है जिसमें सब कुछ समाहित कर लेने क्षमता होती है। मुझे सदा ही लगता है कि किसी के भी लिए यदि हम ज्ञात या अज्ञात रुप से भय का कारण बनते हैं तो इससे बुरा कुछ नहीं और किसी को भी हम अपने जीवन में कुछ सर्वश्रेष्ठ दे सकते हैं तो वो है अभयदान…।
जब भी हम या हमारा विचार या हमारा मन भयाक्रांत होता है तो सिकुड़ जाता है अपने आप में ही संघनित होने लगता है और एक सिकुड़ा हुआ व्यक्तित्व, एक सिकुड़ा हुआ हृदय कभी भी शांत, सहज और सरल हो ही नहीं सकता। भय हमसे वो करवाता है जिसके लिए हम अंतर्मन से राजी नहीं होते और ऐसे काम जो अन्यमनस्क अवस्था में लिए जाते हैं वे कभी सार्थक और सुंदर नहीं हो सकते, फिर हम उलझते रहते हैं कि सब कुछ होकर भी, सब कुछ करके भी हम खुश क्यों नहीं है…। और ऐसा इसलिए होता है क्योंकि खुशी के लिए अभय बहुत जरूरी है, अभय की अवस्था में हमारा व्यक्तिव विस्तार लिया हुआ होता है जिसमें सब कुछ समाहित कर लेने क्षमता होती है। मुझे सदा ही लगता है कि किसी के भी लिए यदि हम ज्ञात या अज्ञात रुप से भय का कारण बनते हैं तो इससे बुरा कुछ नहीं और किसी को भी हम अपने जीवन में कुछ सर्वश्रेष्ठ दे सकते हैं तो वो है अभयदान…।
हालांकि ऐसा करना कठिन होता है बहुत कठिन…। क्योंकि मनुष्यता शक्ति और अधिकार का खेल है और शक्ति बिना किसी को भयाक्रांत किए हासिल नहीं की जा सकती, इतिहास इसका गवाह है और वर्तमान इसका उदाहरण… अब तक ऐसा कोई मौका नहीं आया जब शक्ति और सामर्थ्य, प्रेम और अभय से प्राप्त किए गए हो.. लेकिन ये भी उतना ही सच है कि इस शक्ति और अधिकार के खेल ने हमको आज तक कोई सुख नहीं दिया। सुख मिलता हुआ जान पड़ा होगा लेकिन मिला कतई नहीं।
वस्तुत: जीवन का कोई भी निर्णय हो वो भय से संचालित नहीं होना चाहिए, छोटे से छोटा या बड़े से बड़ा कोई भी निर्णय हो वो हार्दिक, आत्मिक या मानसिक अभय की अवस्था में लिया जाए, दूसरे हम अपने आस पास अपने निजी दायरे में जो भी हैं उन सभी को अभय देना सीखें, लोग हमारे स्नेह और अपनत्व से वशीभूूत होने चाहिए भय के वशीभूत नहीं।