संगीता सहाय II
मोबाइल ने हमारे जीवन में इतनी महत्त्वपूर्ण जगह बना ली है कि इसके बिना जीने को हम सोच भी नहीं पाते। हर हाथ में मोबाइल, हर काम में मोबाइल। लोगों से संपर्क बनाना हो, बातें करनी हो, उन्हें उनके कोई खास दिन या विशेष उपलब्धि के लिए बधाई देनी हो, खरीदारी करनी हो, फॉर्म भरना हो, बिल जमा करना हो, पढ़ाई करनी हो, मनोरंजन करना हो या कुछ और काम हो, मोबाइल के बिना गुजारा नहीं। हम काम कर रहे हों या बगैर काम के खाली बैठे हों, हर पल मोबाइल हमारे साथ रहता है। स्थिति ये हो गई है कि इसके बिना दो-चार दिन तो क्या, घंटे-दो-घंटे बिताना भी मुश्किल लगता है।
बीते दिनों कार्यालय जाने की आपाधापी और ट्रेन पकड़ने की हड़बड़ी में मेरा मोबाइल घर पर ही छूट गया। पैसेंजर ट्रेन की बोगी में बमुश्किल विंडो सीट पट कब्जा जमाने के बाद घर का हाल चाल लेने के लिए जब मैंने बैग में हाथ डाला तो मोबाइल नदारद पाया। एक पल के लिए मैं धक्क से रह गई। नया-नकोर मोबाइल के लिए यों भी कुछ ज्यादा मोह होता है। फिर याद आया, सुबह-सुबह चार्जिंग पर लगाया था, भूूलवश बैग में नहीं रख पाई। अब पूरा दिन बगैर मोबाइल के बिताने के अलावा और कोई चारा नहीं था। लगा जैसे कुछ खो सा गया है। ट्रेन में बैठते ही मोबाइल पर उंगलियां घुमाते रहने और उसी में खो जाने की आदत पड़ गई है।
बैग में पड़ा अखबार अपनी बारी आने के इंतजार आठ-आठ आंसू बहाता रहता है। पर उसकी याद किसे रहती है, जब हाथों की परिधि में पूरी दुनिया की खबरों को समेटे रखने का दावा करने वाला आयतनुमा स्लेट समाया हो। ये अलग बात है कि ज्यादातर खबरों तक हम पहुंच भी नहीं पाते और अंतत: अखबार की ही शरण में जाते हैं।
मोबाइल की अनुपस्थिति ने बहुत दिनों बाद मुझे अपने आस-पास के परिवेश को करीब से देखने की मोहलत दे दी। संयोग से एक ही राह के हमसफर बने लोगों में से कोई खड़ी बोली बोलने वाला था तो कोई क्षेत्रीय भाषा में बोलने वाला। कोई पास से ही आ रहा था तो कोई दिल्ली, मुंबई, कोलकाता या विशाखापत्तनम से। दूर से आ रहे यात्रियों की जल्दी घर पहुंचने की व्यग्रता और घरवालों से मिलने की खुशी साफ साफ दिख रही थी।

- मोबाइल की अनुपस्थिति ने बहुत दिनों बाद मुझे अपने आस-पास के परिवेश को करीब से देखने की मोहलत दे दी। संयोग से एक ही राह के हमसफर बने लोगों में से कोई खड़ी बोली बोलने वाला था तो कोई क्षेत्रीय भाषा में बोलने वाला। कोई पास से ही आ रहा था तो कोई दिल्ली, मुंबई, कोलकाता या विशाखापत्तनम से। दूर से आ रहे यात्रियों की जल्दी घर पहुंचने की व्यग्रता और घरवालों से मिलने की खुशी साफ साफ दिख रही थी।
त्योहारी मौसम का चटक, सुर्ख मिजाज हर ओर पसरा था। यात्रियों की भीड़, सामानों से लदे छोटे-बड़े स्टेशनों पर उतरते-चढ़ते लोग। उनके बीच पानी की बोतल, चने, मूंगफली और मुरमुरे आदि बेचने वालों का समवेत स्वर। कभी पेपर, कभी किताब, कभी तौलिया या भागलपुरी चादर या कभी अन्य सामान बेचने वालों का मिला-जुला स्वर सबकुछ एक मेले का परिदृश्य प्रस्तुत कर रहा था। बोगी में खड़े लोग सीट मिलने की आस में आकुल थे और रेलवे की कुव्यवस्था को कोस रहे थे तो बैठे लोग निरपेक्ष होकर दो घंटे के लिए शहंशाह बने राजनीतिक तथा सामाजिक सुधार की चर्चा में व्यस्त थे। वे और ज्यादा से ज्यादा पांव फैला कर, बांहें पसार कर टिकट में लगे पैसे का पाई-पाई वसूल रहे थे। चार लोगों की एक चौकड़ी अपने पैरों पर गमछा बिछा ताश की महफिल जमाए हुए थी।
… कोई मूंगफली तोड़ रहा था, कोई खीरा-ककड़ी खा रहा था तो कोई बड़े ही मनोयोग घर से लाए नाश्ते का आनंद ले रहा था। मेरे पास बैठा एक शख्स रेणुजी की कालजयी रचना ‘देहाती दुनिया’ को पढ़ने में कुछ ऐसा तल्लीन था जैसे वो इस भीड़ का हिस्सा ही न हो। उसका अंदाजेबयां खुद को भीड़ से अलग घोषित करने के लिए व्याकुल था। कॉलेज जाने वाले लड़कियों का चहचहाता एक समूह किताबों से ज्यादा अपने मेकअप और ड्रेस को लेकर फिक्रमंद था।
मेरे सामने की सीट एक नवविवाहित जोड़ा बैठा था। दोनों दिन-दुनिया से बेखबर अपने आप में खोये हुए थे। लड़की के जींस-टॉप के साथ उसकी चूड़ियों भरे हाथ और चेहरे पर खिली सल्लज मुस्कान और लड़के का उसके प्रति अतिशय परवाह अनायास ही उन्हें लोगों का केंद्र बना रहा था। उनके बगल में बैठा एक पढ़ाकू लड़का इन सबसे दूर अपनी किताबों में खोया था। बीच-बीच में अपने पास बैठी महिला मित्र से विभिन्न प्रश्नों में वाद-विवाद भी कर रहा था।
सीट के दूसरे छोर पर बैठे एक बुजुर्ग व्यक्ति जिन्हें एक लड़की ने थोड़ी देर पहले ही अपनी जगह दी थी, वे बड़े ही इत्मीनान से पूरा अखबार फैलाकर पढ़ने में तल्लीन थे और बीच-बीच में किसी खबर विशेष पर अपनी टिप्पणियां भी देते जा रहे थे। अपने आप में बहुलता और विविधता के अनगिनत रंगों को समेटे भारतीय रेल का यह डब्बा भारत की वास्तविक छवि ‘अनेकता में एकता’ की बहुरंगी खूबसूरती को दर्शा रहा था। यह छवि आंखों में बस कर, मन में पसर कर मेरे लेखक मन को नए-नए विषय दे रहा था। कह रहा था मुझसे, कुछ देर परे हट कर उस आभासी तिलिस्म से, एक बार फिर जीवन को देखो करीब से।