संगीता सहाय II
पूरे घर में कहकहों के गूंज उठ रहे थे। लड़के और उसके परिवार वालों के बड़प्पन पर सभी कुर्बान हुए जा रहे थे । अब तीस की उम्र पार करती लड़की को इतना अच्छा लड़का, घर-परिवार मिलना तो कोई साधारण बात थी नही…, कोई खास मांग भी नहीं रखी थी उन्होंने! बस शादी का पूरा खर्च देने की बात कही थी।
साथ में लड़के ने यह बात भी कही थी कि शादी के बाद लड़की को नौकड़ी छोड़नी होगी…, क्योंकि उसे घरेलू लड़की ही पसंद है। लड़के की इस मांग पर घर वाले हंस-हंस कर दोहरे हुए जा रहे थे।
पिता कह रहे थे… हमारी बेटी को कौन सा घर का सुख छोड़ कर बाहर का धूल फांकने का शौक है, वह तो यूं ही टाइम पास करने के लिए नौकरी कर रही है। ये वही पिता थे जिन्होंने सदैव अपनी बेटी को, उसके सपनों को पूरा करने के लिए प्रेरित किया था। पर विवाह-मंडी की गलियां लांघते-लांघते अब उनके हौसले पस्त हो चुके थे।
क्या मैंने सचमुच समय बिताने मात्र के लिए दिन-रात एक करके ये नौकरी हासिल की है…? पर मेरी पहचान, मेरी मजबूती का आधार तो यही है। इस नौकरी ने ही तो मेरे घर के बैंक-बैलेंस को इतनी मजबूती दी है कि वो इस शादी के लिए आगे बढ़ सके हैं। इस नौकरी से मेरे बहन-भाई के सपने भी जुड़े हैं। सब-कुछ छोड़ कर क्या मैं खुश रह पाऊंगी….? निर्णय अब मुझे ही करना था…।