कथा आयाम कहानी

तरक्की की सीढ़ी

 पूर्णिमा सहारन II

जब रंजना आफिस से बाहर निकली, तब पूरा अंधेरा छा चुका था। सड़कें, बिल्डिंगें सब कहीं दूधिया और कहीं पीली रोशनी से जगमगा रही थीं। सड़क पर जैसे तमाम तरह के वाहनों में रेस सी लगी थी। ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे अंधकार ने सबकी रफ़्तार बढ़ा दी हो। चौपहिया, दुपहिया सब सरपट दौड़ रहे थे। जैसे दिन-भर के थके-मांदे पंछी कतारबद्ध उड़ते हुए अपने नीड़ की ओर उड़ चलते हैं ठीक वैसे ही इन वाहनों में बैठे लोग भी थक-हार कर अपने-अपने घरौंदों में शीघ्र-अतिशीघ्र पहुंच कर कुछ सुकून के पल जी लेना चाहते हों।

रंजना ने एक आटो को रोका और उसमें सवार होकर अपने घर की ओर चल दी। आज इस सप्ताह में ये तीसरी बार हुआ था कि रंजना को कुछ जरूरी फाइल पूरी करने के नाम पर आफिस आवर्स पूरे होने के तीन घंटे बाद तक रुकना पड़ा था। करीब डेढ़ महीने से ऐसा ही हो रहा था उसके साथ। आटो में बैठी हुई रंजना की बोझिल आंखों को बाहर की रौशनी चुभती सी लगीं। आंखें बंद करने की तीव्र इच्छा होते हुए भी वह आटो ड्राइवर के कारण चौकन्नी होकर बैठी रही। रात में अकेले आटो में आंखें बंद कर, लापरवाही से बैठना रंजना को उचित न लगा। सड़क की भागम-भाग का हिस्सा बन आटो दौड़ता रहा और रंजना की मंजिल तक पहुंच गया। रंजना ने जब घर पहुंच कर डोर बेल बजाई तो नौ बजने को थे।

आज फिर इतनी लेट?, राघव ने दरवाजा खोलते ही सवाल दाग दिया।

सॉरी राघव, एक जरूरी फाइल आज ही निपटानी थी। उसी को पूरा करने में इतना समय हो गया।

रंजना ने अंदर आकर पर्स मेज पर रखते हुए जवाब दिया और सीधी रसोईघर में घुस गई। जोरों की प्यास लगी थी। पानी पीकर वह भी आकर सोफे पर धम्म से बैठ गई जहां राघव बैठा टीवी देख रहा था। कुछ पल आराम करने के लिए वह सोफे की बैक पर सिर टिका कर, आंखें बंद कर बैठ गई। कई घंटे गर्दन झुकाए और कम्प्यूटर पर काम करते-करते बड़ी थकान लग रही थी।

थक गयीं? राघव ने रंजना के सिर पर हाथ रख, बालों में अंगुलियाँ घुमाते हुए पूछा।
हमम्म… रंजना ने आंखें बंद किए हुए ही जवाब दिया। चाय पियोगी? राघव ने वैसे ही बाल सहलाते हुए पूछा  हां मन तो है पीने का। तुम बनाओगे? रंजना ने आंखें खोल कर मुस्कुराते हुए पूछा हां ! देखना… ऐसी चाय बनाऊंगा कि पीते ही सारी थकान मिट जाएगी। राघव ने सोफे से उठते हुए कहा।

क्या तुमने भी नहीं पी अब तक? रंजना ने रिमोट से टीवी आॅफ किया और आंखें बंद कर, सिर सोफा बैक पर टिकाते हुए पूछा।

मैं तो आने के बाद एक कप पी चुका हूं। अब तो दो घंटे हो गए, अब तुम्हारे साथ दूसरी पी लूंगा। राघव ने किचन से ही जवाब दिया।

रंजना को राघव की ये आदत और स्वभाव बहुत अच्छा लगता था कि वह कोई पुरुषत्व का अहं नहीं दिखाता था। घर के कामों में भी यथासंभव मदद करता था। विवाह को दो वर्ष होने वाले थे और दोनों मिल-जुल कर सब कार्य करके अपनी गृहस्थी की गाड़ी चला रहे थे।

रंजना डेढ़ महीने से ये मानसिक तनाव झेल रही थी। बॉस के बहाने-बहाने से किए गए हाथों और कंधों के स्पर्श को वह काफी समय से नजरंदाज करती आ रही थी परन्तु जब बॉस ने उसकी कमर में हाथ डाला तो रंजना ने विरोध किया और जता दिया कि उसे ये हरकतें पसंद नहीं। उसके सामने तो बॉस ने ‘सॉरी’ बोल कर बात समाप्त कर दी लेकिन परोक्ष रूप से उसे प्रताड़ित करने के प्रतिदिन नए उपाय करने लगा। गाहे-बगाहे उसे छूने के मौके बदस्तूर तलाशता रहता। उसके जिस काम की प्रशंसा होती थी, अब आए दिन उनमें त्रुटियां निकालने लगा था। किसी के भी सामने बॉस उसे बात-बेबात नीचा दिखाने से नहीं चूकता था। रंजना चुपचाप अपमान का घूंट पी जाती और हालात से समझौता करती रहती।

रंजना की बंद आंखों के सामने आफिस की ये घटनाएं  घूम रही थीं। तभी राघव की आवाज सुन कर उसने आंखें खोलीं।

 लो.. गरमा-गरम चाय पियो और बताओ कैसी बनी है? राघव ने एक कप उसकी तरफ बढ़ाते हुए कहा।
तुम तो चाय हमेशा ही अच्छी बनाते हो। सोफे पर सीधी बैठते हुए, कप थामते हुए रंजना ने हल्की मुस्कुराहट होंठों पर लाते हुए कहा।

अब बताओ… क्या सोच रही थी? क्या हुआ आज? राघव ने सोफे पर बैठते हुए पूछा।
वही, जो डेढ़ महीने से चल रहा है।… फिर कुछ क्षण रुक कर रंजना ने अपने मन की बात कह ही दी…

राघव !..मैं सोच रही हूं ये जॉब छोड़ दूं। कहीं दूसरी जगह तलाश कर लूंगी। रंजना ने कुछ झिझकते हुए कहा।

 क्या कहा? पागल हो गई हो क्या? लगी-लगाई जॉब छोड़ कर दूसरी ढूंढोगी? क्या इतना आसान है जॉब मिलना? राघव ने थोड़ा चौंकते हुए कहा।

 ये सब मुझे भी पता है। लेकिन मैंने तुम्हें बताया तो था कि बॉस मुझे जान-बूझ कर परेशान कर रहा है। सबके सामने जैसे बेइज्जत करने के बहाने तलाश करता रहता है।… रंजना ने अपनी स्थिति स्पष्ट करते हुए कहा। बॉस को ये सब करने का कारण भी तो तुमने ही दिया है। थोड़ा उसकी बात मान लेतीं तो क्या हो जाता? राघव ने थोड़ी बेरुखी दिखाते हुए कहा।

क्या हो जाता? तुम्हें नहीं पता कि क्या हो जाता? वो मुझे छूना चाहता था, उसकी नीयत में खोट था! रंजना, राघव की बात सुन कर चौंकते हुए आश्चर्य से बोली।

तुम क्या मोम की बनी हो जो उसके छूने से पिघल जाती? राघव ने ऐसे सामान्य रूप से कहा जैसे किसी अजनबी के विषय में बात कर रहा हो।

तुम मेरे पति होकर ये बात कह रहे हो ? क्या तुम्हें कोई फर्क़ नहीं पड़ता? ये तुम्हारी पत्नी की पवित्रता की बात है!

ये पवित्रता का, किस जमाने का राग अलाप रही हो रंजना? आज के समय में कौन पूछ रहा है पवित्रता को? और जब ये आपकी तरक़्की में बाधा बन रही हो तो क्या इसका ‘अचार’ डालना है?

राघव बोले जा रहा था जैसे इस विषय पर काफी विचार कर चुका हो और रंजना से कहने का मौका तलाश रहा हो।

राघव ! तुम ये सब कैसे सोच पाए? तुम्हारा मन कैसे तैयार हुआ इस बात के लिए? तुम ये मत भूलो कि अपनी पत्नी के विषय में बात कर रहे हो! रंजना ने आक्रोशित होते हुए कहा।

देखो रंजना! तुम कोई पहली औरत नहीं हो जिसे हालात के साथ ये समझौता करना पड़ा हो। और बहुत हैं, जिन्होंने थोड़े समझौते से कितनी सफलताओं के सोपान चढ़े हैं। कितने ही ऊंचे पदों पर हैं और धन-दौलत की भी कमी नहीं है। राघव ने रंजना के आक्रोश को भांप कर थोड़ा नरम लहजे में कहा।

राघव की बातें सुन कर रंजना का चेहरा तमतमा आया उसने क्रोध से बिफरते हुए कहा। अब तुम तरक्की कर रही हर स्त्री पर लांछन लगाने पर उतर आए? तुम्हारा आशय है कि औरत बस इसी सीढ़ी पर चढ़ कर प्रगति कर सकती है? उसकी प्रतिभा, मेहनत कुछ नहीं हैं? तुम इस स्तर तक सोच सकते हो, मैं नहीं जानती थी।  

मेरा ये मतलब नहीं था। तुम गलत समझ रही हो। मैं किसी पर लांछन नहीं लगा रहा हूं और न ही हर स्त्री ने ऐसे सफलता पाई है। लेकिन आज के समाज में ये सब चल रहा है, इससे तो तुम इनकार नहीं कर सकती। राघव ने रंजना का क्रोध शांत करने के उद्देश्य से कहा।  …तो क्या कुछ लोगों की तरह हम भी इसमें शामिल हो जाएं? तुम क्यों ऐसी बात कर रहे हो? मुझे बिल्कुल समझ में नहीं आ रहा है!  रंजना को इन बातों से हो रही उलझन उसके स्वरों में साफ झलक रही थी।

देखो रंजना! मुझे गलत मत समझो। मैं अकारण ही ये बात नहीं कर रहा हूँ। आजकल मेरी जॉब की जो अनिश्चितता बनी हुई है, तुम जानती तो हो। तनख़्वाह पहले ही आधी हो चुकी है। इस फ़्लैट और गाड़ी की किस्तें जो बैंक को देनी हैं, वो तो देनी ही हैं न! और बाकी खर्चे भी चलाने ही हैं। ये गृहस्थी हम दोनों ने शुरू की है तो हम दोनों की जिम्मेदारी है।  तो मैं भी तो जॉब करके तुम्हारा साथ दे रही हूँ, तुम्हारी जिम्मेदारी बांट रही हूं।

हां बांट रही हो। लेकिन अगर थोड़ी समझदारी से काम लोगी तो इन सब परेशानियों से भी बच जाओगी और बॉस की फेवरेट बन गई तो जल्दी प्रोमोशन भी होंगे।
 इस सबको तुम समझदारी कह रहे हो? क्या मेरे स्वाभिमान और सम्मान की तुम्हें कोई परवाह नहीं है? तुम मेरे पति होकर ये सब कह रहे हो? रंजना राघव की बातों से हैरान थी।

हां ! मैं तुम्हारा पति होकर ये कह रहा हूँ। और स्वाभिमान जैसे शब्द किताबों में ही अच्छे लगते हैं। और रही सम्मान की बात, तो तरक़्की एवं धन के साथ वह आजकल स्वत: ही मिलने लगता है। मैं काफी सोच-समझ कर तुम्हें ये स्वतंत्रता दे रहा हूं। मैं तुमसे प्रेम करता हूं और तुम्हारा मेरे प्रति प्रेम भी मैं जानता हूं। अगर मेहनत के साथ इस शरीर की सुंदरता का भी उपयोग कर लिया जाए तो क्या बुरा है…?  

राघव अपनी रौ में कहे जा रहा था और रंजना को बदलते जमाने और बदल गए विचारों का पूर्ण एहसास आज हो रहा था।

…और सिने जगत और मॉडलिंग को ही देख लो, वहाँ भी तो सुंदर शरीरों की नुमाइश ही तो धन कमाने का साधन हैं. जबकि मेहनत उनके कार्य में भी कम नहीं है! …और तुम क्या समझती हो कि कहीं और ऐसी ही मानसिकता के लोग या बॉस नहीं मिलेगा? राघव अपने पक्ष को मजबूती देने के लिए सब प्रकार के तर्क दे रहा था।

राघव का पूरा प्रयास था कि किसी भी तरह वह रंजना को अपने बॉस से समझौता करने के लिए राजी कर पाए। उसे महसूस हो रहा था कि रंजना किसी दकियानूसी की तरह सोच रही है। आज के आधुनिक और स्वछंद समाज के अनुरूप  प्रैक्टिकल होकर विचार नहीं कर रही है। अपने विचार, अपनी सोच रंजना के समक्ष रखकर अब राघव चुप हो गया था। उसके कप में थोड़ी चाय बची थी, जो ठंडी हो चुकी थी।

रंजना ने अब राघव की बातों का कोई उत्तर नहीं दिया। वह अपनी सोच में गुम बैठी थी। रंजना सोच रही थी कि राघव का ये कैसा प्रेम है जो मान और अपमान का अंतर भूल रहा था और एक अंधी दौड़ में शामिल होने को लालायित दिख रहा था। राघव के विचारों से वह आहत हुई थी। दिन भर की थकान और अब इस लंबी बहस से रंजना का सिर दुखने लगा था।

यूं तो रंजना भी एक आधुनिक और स्वतंत्र विचारों की लड़की थी। राघव के साथ उसने प्रेम-विवाह किया था, जिसके लिए बमुश्किल अपने परिवार वालों को राजी कर पाई थी, लेकिन परिवार के मान और पिता के सम्मान को ठेस लगे, ऐसी स्वतंत्रता का विचार कभी न आया था मन में।

आज रंजना ये सोचने को विवश हुई कि क्या आज के दौर में प्रेम, समर्पण, सहयोग की परिभाषाएं भी बदल गई हैं? क्या स्वाभिमान, सम्मान जैसे शब्द सिर्फ पढ़ने और पढ़ाने के लिए ही रह गए हैं? या इन सबकी नई परभाषाएं बदलती परिस्थितियों के साथ, अपनी सुविधानुसार नए रूप में गढ़ ली गई हैं? आज अपने ही पति से ये नए जमाने की, नई परिभाषाएं सुन कर वह स्तब्ध थी।

सोसायटी के बाहर वाला रेस्टोरेंट आज खुला होगा, खाने के लिए कुछ आर्डर कर देता हूं। राघव की आवाज से रंजना की तंद्रा भंग हुई। उसने गर्दन घुमा कर दीवार घड़ी की तरफ देखा, साढ़े दस बज रहे थे।

नहीं!…. रहने दो। फ्रिज में कल रात की बची हुई सब्जी रखी है। मैं बस रोटियां बना लेती हूँ। कल रविवार की छुट्टी है। कल शाम को कहीं बाहर चल पड़ेंगे या बाहर से मंगवा लेंगे। कह कर रंजना सोफे से उठी और थके से कदमों से  किचन की तरफ बढ़ गई।

ठीक है… जैसे तुम्हारी मर्जी, कह कर राघव ने फिर टीवी आन कर लिया और चैनल बदल-बदल कर अपनी पसंद के कार्यक्रम का चुनाव करने लगा। फिर न्यूज चैनल लगा कर बैठ गया। उसके चेहरे से साफ पता चल रहा था कि उसका ध्यान खबरों पर नहीं था वरन वह अपने ही विचारों में गुम था। शायद वह भी रंजना से हुई बातों को अपने मन में दोहरा रहा था। उधर किचन में रंजना यंत्रवत काम कर रही थी परंतु उसके मस्तिष्क में भी राघव की बातें घूम रही थीं। ये क्या कह गया राघव ?

रंजना ने रोटियां बना कर कैसरोल में रखीं और सब्जी गरम करके दोनों चीजें सोफे के सामने सेंटर टेबल पर रख दीं। फिर, दो प्लेट ले आई। अब दोनों टीवी देखते हुए खाना खाने लगे। वे दोनों खामोशी से खाना खा रहे थे और टीवी पर अब भी खबरें चल रही थीं… पता नहीं किस-किस की? पता नहीं कहां-कहां की? और इस तरह, उस दिन का आखिरी काम भी उन दोनों ने निपटा लिया। कई बार पेट भरना भी एक काम भर ही होता है। सुबह-शाम, समय पर पेट की क्षुधा शांत करनी होती है कभी मन से, कभी बेमन।

रंजना सोच रही थी कि राघव का ये कैसा प्रेम है जो मान और अपमान का अंतर भूल रहा था और एक अंधी दौड़ में शामिल होने को लालायित दिख रहा था।

डिनर समाप्त कर दोनों अपने-अपने विचारों के साथ बेड पर आ गए। राघव तो कुछ देर में ही सो गया लेकिन रंजना के विचारों का सैलाब थम नहीं रहा था। जाने रात के किस प्रहर तक वह अपने विचारों के सैलाब में जूझती रही और कब थक कर नींद के आगोश में गई, रंजना को भी पता न चला। अगले दिन रविवार को हफ़्ते भर के रुके काम और आने वाले हफ़्ते की खरीदारी में पूरा दिन बीत गया। सांझ घिर आई थी। सारे कार्य समाप्त कर अब चाय के साथ कुछ सुकून के पल थे। चाय पीते समय राघव सोच रहा था कि शायद रंजना कोई बात छेड़ेगी लेकिन रंजना की मुख मुद्रा से उसे ऐसा कोई आभास न मिला कि वह कोई बात शुरू करने की इच्छुक हो। राघव ने खुद ही बात शुरू की…

 तो… क्या सोचा है तुमने?
किस बारे में? रंजना ने राघव की ओर नजर उठाकर पूछा।
अनजान मत बनो। तुम समझ रही हो कि मैं क्या पूछ रहा हूँ !

राघव! तुम कैसी बात कर रहे हो? मैंने तुम्हें कल ही अपना नजरिया बता दिया था। मेरी नजर में ये गलत है। तुम भी अपने मन से ये बात  निकाल दो। रंजना ने अपना फैसला सुनाने के अंदाज से कहा।

देखो रंजना ! मेरी बात समझने की कोशिश करो… राघव खाली हो चुका कप मेज पर रख कर रंजना की ओर मुंह करके बैठ गया और अपनी बात आगे बढ़ाता हुआ बोला…

… मैं जो भी कह रहा हूं, बहुत सोच-समझ कर कह रहा हूं। तुम्हें इस जॉब में अच्छी सैलरी मिल रही है। और आगे भी बहुत स्कोप है। अभी तो बॉस तुम्हें सिर्फ परेशान कर रहा है, कहीं ऐसा न हो कि आने वाले समय में तुम्हें नोटिस देकर जॉब से ही निकाल दे। प्राइवेट जॉब्स का हाल तो तुम्हें पता ही है। तुम्हारी जॉब छूटना हमारे लिए बहुत बड़ी परेशानी का कारण बन सकता है। और ये क्या पता कि दूसरी जॉब कब मिले? कैसी मिले? और… कौन जाने कि वहाँ ये सब नहीं होगा?

लेकिन राघव, रंजना ने राघव को टोक कर कुछ कहना चाहा लेकिन उसने उसे बोलने का मौका न दिया और उसकी बात बीच में ही काट कर आगे बोलना जारी रखा… लेकिन-वेकिन कुछ नहीं। मेरी बात पर थोड़ा विचार करो। ये हम दोनों की जिदगी है और हमें ही इसे संवारना है। जो हम दोनों के आपसी सहयोग से ही संभव हो सकता है। मुझे तुम पर विश्वास है। जब मैं तुम्हारे साथ हूं तो तुम क्यों सोच में पड़ी हो?

ये गलत है राघव!..  रंजना ने फिर नैतिकता की दुहाई देनी चाही। आज समय बदल गया है। अब कुछ गलत नहीं है। बस हमें स्वयं पर विश्वास होना चाहिए। आज सिर्फ सफलता जरूरी है और उसके लिए सब जायज है।… राघव ने इस समझौते के लिए अपने मन को पूरी तरह तैयार कर लिया था और अब उसका भरसक प्रयास था कि वह रंजना को भी तैयार कर सके। और रंजना सोच रही थी कि सच में समय बहुत बदल गया है। विचार बदल गए हैं, मान्यताएं बदल गई हैं और संस्कार भी बदल गए हैं। राघव के सामने अब उसके सारे तर्क समाप्त हो चुके थे क्योंकि वह उसके विचारों को दकियानूसी और गैर जरूरी समझ रहा था।

राघव का ये वाक्य  ‘हमें स्वयं पर विश्वास होना चाहिए’ … रंजना के मस्तिष्क में बैठ गया, लेकिन विचारों का वेग तो रोके से नहीं रुकता। सागर की लहरों जैसे, उसके मन-मस्तिष्क में एक विचार उठता और बैठ जाता, फिर दूसरा आता और लौट जाता। रंजना के दिमाग में विचार मंथन चलता रहा। रंजना खुद को टटोल रही थी कि क्या वह राघव के कहेनुसार आजकल बह रही इस विपरित धारा के प्रवाह संग बह सकती है? क्या अपनी अंतरात्मा को मार कर, कुचल कर वह इस तरीके से जुटाई सुविधाओं का सुख उठा पाएगी? अपनी नैतिकता, अपने चरित्र का हनन करके क्या आइने में स्वयं को देख पाएगी? स्वयं से ही आंखें मिला पाएगी? क्या उसकी अस्मिता, शुचिता का कोई मोल हो सकता है?  नहीं… कदापि नहीं।

 इस दृढ़ फैसले के बाद रंजना स्वयं का अवलोकन एवं मूल्यांकन करने लगी। क्या उसकी योग्यता में कमी है? क्या उसकी मेहनत में कमी है? क्या वह लगन से अपना कार्य नहीं करती? क्या वह आफिस में दी गई जिम्मेदारियों का अच्छे से निर्वहन नहीं करती? इनमें से किसी भी सवाल के जवाब में वह अपनी कमी नहीं तलाश पाई। लेकिन फिर भी कुछ तो है जिस पर उसे ध्यान देने की आवश्यकता है! इसके बाद जो वह तलाश पाई, वह था उसका कुछ दब्बूपन और सब कुछ खामोशी से स्वीकार कर लेने की आदत। क्या राघव ने भी उसके इस स्वभाव को परख कर, उसके सामने चल रहे इन हालात से समझौता करने का प्रस्ताव रखा था? और अब तो एक-डेढ़ महीने से आफिस में उसका स्वयं का ठंडा और शुष्क व्यवहार भी था। बॉस की छिछोरी हरकत के बाद जैसे रंजना आफिस में हंसना ही भूल गई थी। बस एक तनाव में घिरी अपने काम से जूझती रहती।

आज सोमवार था। रंजना एक फैसला कर चुकी थी। और दिनों की अपेक्षा रंजना आज अच्छे से तैयार होकर आफिस आई थी। बॉस भी आ चुका था। एक नई फाइल के कुछ  पॉइंट्स डिस्कस करने के लिए रंजना बॉस के केबिन में गई। आज एक मुस्कान के साथ उसने बॉस को नई सुबह की शुभकामनाएं दीं। जितनी देर वह बॉस के सामने रही, उसका आत्मविश्वास उसके व्यवहार से झलकता रहा। आज वह बॉस से आंखें नहीं चुरा रही थी बल्कि पूरी सकारात्मकता और दृढ़ता से बॉस के सामने अपनी बात रख रही थी। जिसे देख, बॉस भी आश्चर्यचकित था। वह शायद समझ नहीं पा रहा था कि हर समय तनाव में, सहमी सी और खिंची-खिंची सी रहने वाली रंजना कैसे आज इतनी आत्मविश्वास से भरी हुई दिखाई दे रही थी? आफिस के सहकर्मी भी रंजना के इस परिवर्तन पर कुछ चकित भी थे तो कुछ प्रसन्न भी। कुछ ने रंजना से उसके इस बदले व्यवहार का कारण भी जानना चाहा जिसे रंजना ने मुस्कुरा कर टाल दिया। अच्छे और सकारात्मक वातावरण में एक सप्ताह अच्छा बीता।

आज रंजना स्वयं ये महसूस कर रही थी कि स्वयं पर विश्वास और मधुर मुस्कान से कैसे परिस्थिति और कोई माहौल बदल जाता है। और यह रंजना के दृढ़ फैसले का परिणाम था जो रंजना ने सोमवार को आफिस आने से पहले लिया था कि वह अपना काम पूर्ववत पूरी लगन से करेगी लेकिन बॉस के असभ्य व्यवहार को न तो सहन करेगी और न ही राघव की सलाह पर बॉस के सामने घुटने टेकेगी। उसने निर्णय ले लिया था कि अपने संस्कारों और मूल्यों को तज कर वह तरक्की की सीढ़ी नहीं चढ़ेगीे नौकरी छूटेगी तो कहीं और प्रयास करेगी लेकिन समाज में पनप चुकी इस गंदगी का हिस्सा नहीं बनेगी।

अब भविष्य की चिंता से मुक्त, तनावरहित स्थिर मन से कार्य करती रंजना को आफिस पहले की तरह बोझिल नहीं लगता था। वह आत्म आश्वासन में लिप्त और उत्साह से लबरेज रहती। पूरे आफिस का वातावरण ही उसके लिए बदल गया सा लगता। इन दिनों रंजना की सकारात्मकता और आत्मविश्वास का परिणाम ये हुआ कि अब बॉस के व्यवहार में भी रंजना ने परिवर्तन देखा। जैसे उसकी दृढ़ता और विश्वास से तनी गर्दन के सामने बॉस की उच्छृखंलता सहम गई हो।

आज फिर शनिवार की शाम थी। एक सप्ताह बीत गया था। लेकिन आज, जब शाम को रंजना आफिस से घर जाने के लिए निकली तो सामने ढलते सूरज का केसरी रंग जैसे उसे शाबासी दे रहा था और संदेश दे रहा था कि अपनी भीतरी ऊर्जा को पहचान कर खुलो और खिलो। हमारे आत्मविश्वास, सकारात्मकता और शांति की ऊर्जा उन लोगों पर प्रभाव डाल सकती है जिनसे हम बातचीत करते हैं। हम अपनी ऊर्जा की सुंदरता से लोगों का मन बदल सकते हैं। हमारे आत्मविश्वास और शांतता की आभा सकारात्मक रूप से दूसरों के व्यवहार को प्रभावित कर सकती है।

ढलते सूरज के नीले आकाश की चादर पर फैले कहीं लाल, कहीं नारंगी और कहीं गुलाबी रंग उसके मन को परिंदा बना उड़ा रहे थे। और आज ये उड़ान थकी हुई नहीं थी। उसके पंख, नए उत्साह और जोश से भर कर फड़फड़ा रहे थे।

About the author

पूर्णिमा सहारन

पूर्णिमा सहारन संवेदनशील कथाकार और कवयित्री हैं। उनकी कई कविताएं प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रही हैं। साल 2022 में प्रकाशित उनका कहानी संग्रह टूटते तटबंध साहित्य जगत में चर्चित रहा। पूर्णिमा की कहानियों में आधुनिकता के साथ परंपरा का भी बोध होता है।

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