आलेख कथा आयाम

नाम में कुछ तो है?

डाॅ. चन्द्रिका प्रसाद चन्द्र II

अंग्रेजी के प्रसिद्ध नाटककार शेक्सपीयर ने अपने एक नाटक के नाम को लेकर कहा-नाम में क्या रखा है, यह काम मैं पाठकों और दर्शकों पर छोड़ता हूँ और नाम दिया ‘ऐज यू लाइक इट’ (जैसा तुम चाहो )। पहले उन्होंने नाटकों के नाम चरित्रों के आधार पर रखा था-जूलियस सीजर-मैकबेथ, ऑथेलो, मरचंट ऑफ वेनिस, जिन के नाम में बहुत कुछ रखा था। शीर्षक देने के असमंजस में उन्होंने कहा होगा कि नाम में क्या रखा है। नाम में बहुत कुछ है। भारतीय परम्परा में नाम रखने का काम घर के बुजुर्ग आने वाले व्यक्ति के समय परिस्थिति अपनी सोच समझ के अनुसार करते रहे हैं। जरूरी नहीं कि नाम के अनुसार व्यक्ति के गुण भी हों। कुछ समाजों में भदेस नाम उसके उलट कार्य करके बड़े बनते हैं। अर्थात् नाम सिर्फ पहचान नहीं एक स्थापना भी है। अपने देश का नाम ही देखिए कभी जहाँ तक आर्य थे आर्यावर्त कहलाया। आर्य दक्षिण में जब तक नहीं पहुँचे थे दक्षिणावर्त कहते थे। राजा भरत के नाम यह भारत कहलाया। मुगलों के शासन काल में हिन्दुस्तान हुआ तो अंग्रेजों ने इसे इंडिया कहा। अंग्रेजों का राज्य लगभग संसार भर में था अतः वैश्विक स्तर पर भारत, इंडिया के नाम से जाना जाता है। नाम में अर्थ और भाव न होता तो ‘भारतीय’ कहते ही हम देश-भक्ति के भाव से न भर जाते। हिन्दुस्तानी शब्द में भले ही हिन्दुओं के स्थान का बोध होता हो परंतु इस नाम के आते ही हमारे रीति-रिवाज परम्पराएँ व्यवहार और आतिथ्य के साथ एक विशिष्ट बोध का अहसास होता है जिसने विविधता की एकता स्पष्टतः महसूस होती है- ‘मेरा जूता है जापानी, ये पतलून इंगलिस्तानी सिर पर लाल टोपी रूसी, फिर भी दिल है हिन्दुस्तानी। एक नारा जयहिंद हमें आजाद हिन्द का सिपाही बना देता है और सैल्यूट में हाथ अनायास सिर तक पहुँच जाता है, पैर थम जाते हैं। जब हमें इंडियन कहा जाता है तब लगता है, हमारी नागरिकता पूछी जा रही है। वैसे भारत गाँवों में और इंडिया देश के महानगरों में बसता है, अब भारत पिछड़ेपन की निशानी और इंडिया ग्लोबल की कहानी है। ये है नाम की कुछ विशिष्ट पहचान, जो हमें सोचने को विवश करती है। समय और शासकों के अनुसार आज का रीवा कभी तुर्वषु वरुणांचल, करुष, रेवाखंड, बघेलखंड, रीमा की ऐतिहासिक यात्रा करते हुए यहाँ तक पहुँचा। गाँव, शहर, नगर लोगों विशेषकर राज-परिवारों से जुड़े लोगों के नाम पर रखने की परम्परा आज भी कायम है। नाम बदलने की प्रक्रिया सदियों से रही है। जयसिंह नगर, पुष्पराज गढ़, वेंकट नगर, रघुराज नगर, गुलाब नगर से लेकर लोकतंत्र के नायकों ने भी अपने परिवार के अनेक सदस्यों के नाम रखकर उनको अमरता प्रदान कर दी। हमारे शहर में नेहरू परिवार की तर्ज पर श्रीयुत नगर, सुंदर नगर, अरुण नगर नाम इस बात के प्रमाण है कि नाम में कुछ नहीं बहुत कुछ है। नाम की महिमा गोस्वामी तुलसीदास से अधिक कौन जानता है। नाम के लिए ही आदमी जीता-मरता है। वह चाहता है जब वह न रहे, उसका नाम तो रहे। उसके वंशज, अनुयायी उसका नाम लेकर हुँकार भरते अपनी बाँह सूंघते रहें, तौलते रहें। इन परिवार जनों ने अपना नाम देकर समाज का बड़ा उपकार किया, वह कृतज्ञ है।

नाम बदलने के इस क्रम में स्थापत्य कला, संस्कृति, चित्रमूर्तियों के शिल्प को ध्यान में रखना होगा। संगीत के उन घरानों की रक्षा करनी होगी, जो हमें मुस्लिम घरानों से मिली है। नृत्य और संगीत के वाद्यों एवं रागों को बचाना होगा। हमें उन कलाओं को औरंगजेबी सोच से बचाना होगा। राग ‘मिया मलहार मिया की तोड़ी’ इत्यादि अनेक रागों का नाम बदल दें, ये गुनाह होगा। हमारी कलाएँ हमें मनुष्य बनाती है, वे जाति धर्म के लिए नहीं होतीं।

नाम रखने और बदलने की परम्परा बहुत पुरानी है। यह श्रृंखला, व्यक्ति स्थान के महत्व और पहचान के रूप में अक्सर समाज में आदृत और निरादृत होती रही है। इस पर मतभेद होते रहे हैं। बाम्बे बम्बई होते हुए मुम्बई, मुम्बा देवी के कारण, मद्रास चिन्नमा और चेन्नास्वामी की स्वीकार्यता के कारण चेन्नई हो गया। कलकटेगा से कलकत्ता होते हुए कोलकाता हुआ परंतु त्रिलोचन शास्त्री की कविता ‘कलकत्ता पर बजर गिरे’ कलकत्ता की सदैव याद दिलाती रहेगी। गुड़गाँव गुरुग्राम हुआ। मद्रास तमिलनाडु हुआ और प. बंगाल बांग्ला होने की राह पर है। अन्य अनेक शहरों के नाम बदले परंतु कोई प्रश्न या विवाद नहीं खड़ा हुआ। शास्त्र, पुराणों, काव्यों में हजारों वर्ष पहले गंगा-जमुना के संगम स्थल को प्रयागराज नाम दिया गया था। जिला नामक शब्द तब नहीं थे प्रयाग राज क्षेत्र था। सम्राट अकबर को ऐसा क्या और क्यों सूझी कि इस क्षेत्र को इलाहाबाद कहकर इलाही की स्थापना करनी पड़ी, जबकि इतिहास (वर्तमान) उसे सेक्यूलर साबित करने में लगा है। उसने दीन-ए-इलाही धर्म की बात की जिसे मानसिंह जैसे राजपूतों ने भले स्वीकार किया हो, मुसलमानों ने नहीं स्वीकार किया। प्रयाग शब्द में एक पवित्रता का बोध हिन्दू मानस में है। इतिहास में सत्ता के बल पर पाँच सौ वर्ष पूर्व हुए नाम परिवर्तन की वापसी से जिनको आपत्ति है, वे भारत की सांस्कृतिक धरोहर के संरक्षक नहीं हो सकते। उनकी संस्कृति अकबार नामा से शुरू होती है। उनसे पूछा जाय कि इतिहास में हुई इस जबर्दस्त स्थापना के संशोधन पर हंगामा क्यों? जब प्रयागराज इलाहाबाद बना था तब कैसे जनता के स्वर दबाए गए होंगे? इसकी चर्चा इतिहास में नहीं हैं। अवध और अयोध्या भारत के आध्यात्मिक पौराणिक और काव्यमय इतिहास हैं। मथुरा वृन्दावन और काशी का नाम नहीं बदला गया परंतु अयोध्या फैजाबाद का एक टुकड़ा हो गया। ऐसा लगता है कि फ़ैज़ साहब के आने के बाद अयोध्या अस्तित्व में आया। स्थानों के नाम बदलने का धतकरम मुगलों ने अधिक किया, सूरियों (शेरशाह) या लोदियों (इब्राहीम सिकंदर) ने नहीं। दक्षिण भारत में टीपू सुल्तान ने मैसूर के राजा को हराकर बादशाहत की परंतु मैसूर का नाम अपने पिता हैदर अली के नाम पर नहीं रखा। महाराष्ट्र के औरंगाबाद की पहचान अजन्ता एलोरा की गुफाओं से है, यदि औरंगाबाद जिला का नाम बदलकर अजंता एलोरा कर दिया जाय तो क्या बुरा है? जूनागढ़ का नबाव जो स्वतंत्र राष्ट्र बनाना चाहता था, भागकर पाकिस्तान चला गया, उसने प्रभास-सोमनाथ का नाम नहीं बदला। सर सैयद अहमद खान का अलीगढ़ मुस्लिम कॉलेज, आज एएमयू है उससे किसी को आपत्ति नहीं, कभी वहाँ सिर्फ मुस्लिम पढ़ते थे, अब सभी जाति के लोग शिक्षा ग्रहण करते हैं। काशी हिन्दू विद्यालय अब बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय (बी एच यू) कहलाता है जबकि इसकी स्थापना के पीछे महामना का हिन्दू मन था, जिससे अकबर इलाहाबादी का कोई विरोध नहीं था, भले ही सैयद के विरोध के कारण उन्हें कुछ कट्टर काफिर कहते थे। बिना किसी दुराग्रह के सभी को साथ लेकर इतिहास में हुई इस नामकरण की छेड़छाड़ को सुधारना होगा। भारत को हिन्दुस्तान, तुर्किस्तान, पाकिस्तान के तुक से अलग सोचना होगा।

नाम बदलने के इस क्रम में स्थापत्य कला, संस्कृति, चित्रमूर्तियों के शिल्प को ध्यान में रखना होगा। संगीत के उन घरानों की रक्षा करनी होगी, जो हमें मुस्लिम घरानों से मिली है। नृत्य और संगीत के वाद्यों एवं रागों को बचाना होगा। हमें उन कलाओं को औरंगजेबी सोच से बचाना होगा। राग ‘मिया मलहार मिया की तोड़ी’ इत्यादि अनेक रागों का नाम बदल दें, ये गुनाह होगा। हमारी कलाएँ हमें मनुष्य बनाती है, वे जाति धर्म के लिए नहीं होतीं। कुतबमीनार, जामामस्जिद (दिल्ली-भोपाल) ताजमहल हुमायूं का मकबरा इत्यादि के बरक्स स्थापत्य में प्राचीनता के नाम पर कुछ नहीं है। खजुराहो और कोणार्क के मंदिरों की तरह इनके सौंदर्य में वृद्धि करके ही हम भारतीय संस्कृति के एकता की बात कर सकते हैं। हमारे जिले के मुस्लिमबहुल गाँव के नाम भी हिन्दू संस्कारों की सभ्यता पर केन्द्रित हैं। जिले में दो नाम मुस्लिम संस्कृति पर है जहाँ एक भी मुसलमान नहीं है, आलमगंज और महमूदपुर। नाम बदलने की कभी कोई आवाज हिन्दू समाज से नहीं आई। जिन स्थानों के नाम बदलने से हमारी संस्कृति की पहचान पर प्रश्न चिन्ह उठता है, उस गलती को समझकर बदलिए। ढेर सारी दिल्ली की सड़कों के नाम अंग्रेजों ने दोनों को लड़ाने के लिए ही रखे थे। राष्ट्रपति भवन के गार्डेन को मुगल गार्डेन कहने का क्या औचित्य है? दिल्ली में लुटियंस की जमीन ब्रिटेन से नहीं आई, वह टीला दिल्ली का है। मुगलों का नाम तो इतिहास से खारिज नहीं किया जा सकता। मुगलों को दावत देकर बुलाने और उनसे स्वेच्छया राज्य बचाए रखने के लिए रोटी-बेटी का रिश्ता बनाने वालों का नाम भी उजागर करने की हिम्मत दिखानी होगी। मद्रास, कलकत्ता, बम्बई, गुडगाँव लोगों के दिल से नहीं गए। एक पीढ़ी नहीं भूल पाएगी। विक्टोरिया टर्मिनस का नाम भले बदल गया हो, दिल से वी.टी. नहीं गया। गुलाम देशों के समूह राष्ट्र मंडल के सदस्य हम आज भी हैं ताकि हमारी आने वाली पीढ़ियाँ अपनी औकात पर रश्क करे कि हमारी हैसियत और स्थिति विश्वस्तर पर कैसी है। सिर्फ नाम बदलने से कुछ नहीं होता परंतु नाम में कुछ तो है। कुछ न होता तो इतना हंगामा क्यों होता? यह विचारणीय है। और यह किसी एजेन्डे में भी नहीं है।

साभार : ‘का कही का ना कही’ आलेख संग्रह से।

About the author

डॉ चंद्रिका प्रसाद 'चंद्र'

डॉ. चंद्रिका प्रसाद "चन्द्र"
जन्म : 12 फरवरी 1942
जन्म स्थल: ग्राम गौरी, तहसील हनुमा, जिला रीवां
शिक्षा : एम.ए., पीएचडी
सम्मान : 1. रामपुर नैकिन सीधी सारस्वत सम्मान,
2. गौतम रचना तना सम्मान
3. रणसिंह स्मृति सम्मान, नईगढ़ी
प्रकाशित पुस्तक : हिमालय की पुकार ( काव्य संग्रह),थोर का सुख (बघेली कहानी संग्रह ),लोकायन (निबंध संग्रह )
प्रकाशनाधीन : हिंदी-बघेली कहानी संग्रह, 3 निबंध संग्रह।

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