राधिका त्रिपाठी II
बांटना चाहिए था गम उनका भी
हम उनसे ही गैर बन बैठे …!
करतूतें उनकी भी कुछ ऐसी थीं!
खैर हम जो बन बैठे वो बन बैठे।
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कोई किसी को अचानक यूं नहीं कहता अलविदा। अचानक उठा और जिंदगी से चला गया। हर घटनाक्रम के पीछे कई वजहें, कई शिकायतें होती हैं। बरसों की उदासियां और अकेलापन होता है। फिर अचानक घट जाता है अलविदा कहने का औपचारिक सा घटनाक्रम…!!
कई सालों की मुस्कुराहटें जब दम तोड़ती हैं होठों पर। हर बात पर आंसू आंखों में भर आते हैं। कुछ कहने से पहले ही कंठ में मौन सध जाता है, दिल बैठने लगता है। निराशा सुबह-शाम झरने लगती है आंखों में। तब जाकर कोई किसी को कहता है- अलविदा। अलविदा मतलब अब हम किसी मोड़ पर नहीं मिलेंगे अगर मिले भी तो अजनबी की तरह मिलेंगे…!!
घंटों की बातें मिनटों तक सिमट जाती हैं और फिर औपचरिक सा प्रश्न, तुम ठीक हो न? उत्तर में- हां मैं ठीक हूं। तब सबसे प्रिय रिश्ते को हम अलविदा बोल रहे होते हैं जिसे हम कभी खोना नहीं चाहते थे कभी और हम उसे खो रहे होते हैं।
हम बरसों-बरस अपने-अपने जीवन साथी, अपने मित्र या फिर अपने प्रेमी या प्रेमिका के साथ बिता देते हैं। कभी-कभी तो हम कई दशक अर्थात पूरा जीवन बिता देते हैं। उसके बाद भी उसे समझ नहीं पाते कि वह कितना अकेला, कितना उदास या कितना सूना है। हम उसकी आंखों से बरसते निराशा के बादल से मुंह मोड़ लेते हैं। और अपनी पीठ दे देते हैं। आखिर क्यों? वो भी इंसान हैं उसे भी चाहिए अपनापन, एक अहमियत। एक दिन वही साथी जब बोलना, शिकायत करना या रूठना छोड़ देता है। और मुसकुराहट की एक लेप होठों पर चढ़ा कर आपकी हर बात में जी, हां, हो जाएगा, … कहता है। तो वह आपको अलविदा बोल रहा होता है। आप उसे धीरे-धीरे खो रहे होते हैं।
…हद है यार। क्या बचपना है तुम्हारा। शाम ढलते ही तुम क्यों फोन करने लगती हो। तुम्हें पता होना चाहिए कि मैं आफिस में हूं। उधर से… अच्छा बस इतना बता दो कि आने में कितना समय लगेगा। नाराजगी से फोन के दूसरी तरफ से जवाब- एक घंटा लग जाएगा। एक घंटा क्यों रस्ता तो पंद्रह मिनट का है न? फिर एक प्रश्न…!!
एक घंटे बाद फिर फोन का बजना और उधर से झल्लाहट भरी आवाज- क्या यार, तुम्हारे पास कोई काम नहीं हैं। अपना काम करो। मुझे जब आना होगा आ जाऊंगा। अब फोन नहीं आना चाहिए…!
जो आपको, सिर्फ आपको चाहता हो, उसे कहीं मत जाने दीजिए कभी मत बदलने दीजिए। वो जैसा है आपका है। उसे वैसा ही अपनाइए उसके अल्हड़पन के साथ स्वीकारिए। हो सकता है वो कुछ समय बाद आपके अनुरूप ढल जाए। लेकिन उसे तोड़ कर किसी समझदारी के सांचे में मत डालिए। हो सकता है कि कहीं कोई टूटा हुआ टुकड़ा वापस न आ पाए। रास्ता भटक जाए। और वह जस का तस पहले की भांति आपके पास वापसी न कर पाए।
घर पहुंच कर गाड़ी पार्क करके वह चिल्लाते हुए… क्या नाटक है तुम्हारा? पांच बजते ही तुम धान बन जाती हो। तुम्हारे पास कोई काम नहीं होता। मेरे पास बहुत काम रहता। कल से फोन मत करना मुझे। जब आना होगा आ जाऊंगा। … फिर धीरे-धीरे आदतें बदलने लगती हैं। चाहे जितनी पुरानी हों।
शाम अब भी होती है, पांच बजते हैं, और रात में चांद उसके लिए लोरी गाता लेकिन वो अपने में खोई-सहमी सी रहती। अब उसका इंतजार हमेशा के लिए खत्म हो गया है। वो उसके आने वाले रास्ते से मुंह चुराने लगती है। वो उसके इंतजार में घड़ी नहीं बनती। मिनट की सुई उसे बस समय बताती। उसके आने का न्योता नहीं देती। एक स्त्री का दिल कितना कोमल होता है।
अब न फोन जाता, न चिल्लाने की आवाज आती। सब कुछ वही है। बस आदतें बदल गई। अहमियत बदल गई। व्यस्तताओं का चोला चढ़ाए अपनेपन की कीमत दांव पर लग गई।
जो आपको, सिर्फ आपको चाहता हो, उसे कहीं मत जाने दीजिए कभी मत बदलने दीजिए। वो जैसा है आपका है। उसे वैसा ही अपनाइए उसके अल्हड़पन के साथ स्वीकारिए। हो सकता है वो कुछ समय बाद आपके अनुरूप ढल जाए। लेकिन उसे तोड़ कर किसी समझदारी के सांचे में मत डालिए। हो सकता है कि कहीं कोई टूटा हुआ टुकड़ा वापस न आ पाए। रास्ता भटक जाए। और वह जस का तस पहले की भांति आपके पास वापसी न कर पाए।
स्त्री-पुरूष के रिश्ते सहज होते हैं। मगह जब जटिल हो जाते हैं तो दूरियां धरती और आकाश जितनी हो जाती हैं। हर स्त्री अपने मन के आसमान पर सपनों का इंद्रधनुष रचती है। यह पुरुष पर है कि वह उसके इंद्रधनुष में कितने रंग भर कर साथ चल सकता है। स्त्री पुरुष संबंध को निभाना भी तो जीवन कौशल है न। तो निभाइए और एक बेहतर तथा सुरक्षित समाज की रचना कीजिए। युवा पीढ़ी नें यह बदलाव दिखता है। आप भी बदलिए।