राधिका त्रिपाठी II
कई पीढ़ियों का जीवाश्म ढो रही हूं मैं अपने कंधे पर। जीवाश्म के वजन से मेरे कंधे आगे की तरफ झुक गए हैं। जैसे झुकती है कोई प्राचीन सभ्यता नवीनीकरण के लिए। और मेरी आंखें गड्ढे में धंस गई हैं। उन धंसी हुई आंखों से मुझे दिखाई देता है सभ्य समाज का विकृत चेहरा। मेरे पैर सदैव बंधे रहते हैं अदृश्य बेड़ियों से जिसे मैं चाह कर भी खोल नहीं पाती। मेरे घुटनों की कटोरियां टूट कर निकलना चाहती हैं बाहर। परन्तु उन्हें एक विशेष मोड़ देकर सभ्यता के साथ जकड़ रखा है। फिर भी दर्द बर्दाश्त करती हूं। हर स्त्री यह दर्द बर्दाश्त करती है।
अपने जिस्म में प्रिय हैं मेरे हाथ। और वही मेरे अपने हैं। बरतन धुलते हुए या सब्जी में नमक डालते हुए मुझे अहसास होता है कि हाथों में जख्म भी हैं। कई जगह अर्धचंद्र आकार के स्याह निशान भी दिखाई देते हैं। मेरे हाथों के घिसे हुए और आड़े तिरछे नाखून मुझ से कोई शिकायत नहीं करते। समय-समय पर मेरी ऊंगलियां आंसुओं को पोंछ कर अपने होने का कर्तव्य निर्वहन करती हैं। ऊंगलियों के खुरदुरेपन से मुझे बेहद लगाव है। हाथों का खुरदुरापन अब चेहरे और जुबान पर छाने लगा है…! यह हर स्त्री का दर्द है।
मेरे लिए तय किया गया है एक दायरा। जिसके बाहर मैं सांस भी नहीं ले सकती। अब मैं थकान से दोहरी हो रही हूं। इस सामाजिक दायरे से निकलना चाहती हूं। लेकिन मैं जानती हूं, मैं क्या कोई भी स्त्री ऐसा नहीं कर सकती। उसके घर की पितृसत्ता ऐसा करने की इजाजत नहीं देगीे। वो देखते रहेंगे थकान से दोहरे होते मेरे जिस्म को और मेरी आंखों में रेंगते हुए सपनों को, परंतु उफ भी नहीं करेंगे। क्योंकि वे भी विकृत समाज का अभिन्य अंग रहे हैं कभी…!
- सुनो, एक वसीयत तुम्हारे नाम करती हूं। यह संसार की हर स्त्री की वसीयत है। इसमें ईश्वर के नाम लिखी अर्जियां हैं उन पुरुषों के लिए जो स्त्रियों के लिए बेहतरीन संसार बनाने वास्ते खुद को समर्पित कर देते हैं। मगर क्या कोई भी पुरुष स्त्रियों की वसीयत आज तक पढ़ पाया है?
मैं इस दुनिया को छोड़ते वक्त दान करना चाहूंगी अपनी आंखें अपनी दोनों बेटियों को। ताकि मेरी आंखों के आसमान में बेफिक्र होकर उड़ सकें वो। और देख सकें अपनी आजादी की निर्भीक उड़ान। भर सकें रंग अपने मन मुताबिक। बेटे को दान करना चाहूंगी अपना अल्हड़पन और खिलखिलाती खनकती हंसी। ताकि वह सभ्य समाज को आईना दिखाते हुए कह सके कि देखो ये हंसी मेरी मां की विरासत है। जिसे मैंने अपनें होठों पर हमेशा के लिए सजाया है…!
मैं धन्यवाद कहना चाहूंगी दिल से अजीज मित्रों को जो मेरे भावनात्मक पल में एक क्षण ही सही, लेकिन मेरा संबल बने। मुझे संभाला। गले से लगाया। मेरे आखिरी समय में मेरी कोई भी इच्छा नहीं होगी। न कोई दु:ख, न कोई अतृप्त भावना। न ही कोई पश्चाताप। क्योंकि मैं जानती हूं कि ये दुनिया मेरे लिए नहीं बनी…। कि ये दुनिया मेरी नहीं और मैं इस दुनिया की नहीं…।
चल चलें कहीं और कहीं और…!!!
स्त्रियों के लिए अपना कहने को कुछ नहीं होता। न जमीन और न ही पैसे रुपए, तो वसीयत का कोई सवाल ही नहीं उठता। उसकी अपनी वसीयत दिल में होती है। सब्जी खरीदने के बाद बचे हुए पैसों को वे जोड़ती हैं। घर खर्च से बचाती है चंद सिक्के। और अपनी भावनाओं की जमा पूंजी। समर्पित करती हैं बुरे वक्त में पति की खाली हथेलियों पर निसंकोच कि इन्हीं सिक्कों को कमाने में तुमने पूरी जिंदगी स्वाहा कर दी। धूप में जले, पांव में छाले लिए मेरे लिए छत बने खुद तपते हुए। कि अब लौट आओ तुम। तुम्हारे स्याह बाल सफेद हो गए। सपने भी ब्लैक एंड वाइट हो रहे…। लेकिन तुम्हारी मुस्कुराहट अभी भी मेरी जान ले लेगी। सुनो, एक वसीयत तुम्हारे नाम करती हूं। यह संसार की हर स्त्री की वसीयत है। इसमें ईश्वर के नाम लिखी अर्जियां हैं उन पुरुषों के लिए जो स्त्रियों के लिए बेहतरीन संसार बनाने वास्ते खुद को समर्पित कर देते हैं। मगर क्या कोई भी पुरुष स्त्रियों की वसीयत आज तक पढ़ पाया है?