इला कुमार II
या देवी सर्व भुतेषु श्रद्धा रूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै,नमस्तस्यै,नमस्तस्यै नमो नमः।।
देवी की प्रार्थना का यह श्लोक कई अन्य स्तुति श्लोकों के बीच स्थित है,सभी श्लोक दो-दो पंक्तियों में बने हुए हैं और लगभग अट्ठाईस श्लोकों तक पसरे हुए हैं।दुर्गासप्तशति के पन्नों पर देवी माहत्म्य के पाँचवें अध्याय में ये श्लोक एक तरह से क्रमिक उपासना तत्व को प्रकाशित करते हैं।इसका मूल मार्केण्डेय पुराण से जुड़ा हुआ है,जिसमें सुरघु-कथा है,शुम्भ-निशुम्भ की कथा है और देवी के कई रूपों के द्वारा महिषासुर,रक्तबीज वगैरह अनेक असुरों के वध के अनेक विलक्षण वर्णन हैं।
ऊपर इंगित श्लोक में देवी स्तुति करते हुए भक्त कहता है कि वे मातृरूप हैं,स्वाध्याय रूप हैं,वे लक्ष्मी और वे तुष्टि रूप हैं,सुख रूप हैं यानि कि सभी रूपों के अन्दर देवी हैं,इसे ऐसे समझा जा सकता है कि ये जो भाव हैं मातृ,क्षमा,शांति,स्वाध्याय,लक्ष्मी,सुख आदि-वे सभी देवी के ही रूप हैं।ये देवी के प्रक्षेपण ही हैं।आराधना करने का यह जो भारतीय तरीका है वह अद्भुत है,वह मानों पूरे समाज को,पूरी पृथ्वी को,अपने अंदर समेट लेने की क्षमता रखता है और सभी तरह के भावों को एक साथ कवर कर लेता है।
कैसी है यह कवरिंग ?
विराट भाव की आराधना करते हुए कुछ मूर्त तत्वों को निरूपित करने की अनूठी विधि भारतीयों के पास है,इसमें संदेह नहीं। हमें, खासकर हम भारतीयों को इन कवरिंग की बातों को अच्छी तरह समझ लेना चाहिए कि हर रूप में देवी की,अपने आराध्य की उपस्थिति के बारे में जान कर ही उपासना की शुरूआत होती है,हमें भी श्रद्धा और उपासना के बारे में गहराई से विचार करना चाहिए और पूर्ण विश्वास भी करना चाहिए। जब हम आराधना करने की इस खास पद्धति पर केन्द्रित करते हैं तो पूरी बात जानें या ना जानें लेकिन उपासना तत्व के बारे में यह समझ में आता है कि पूरा ब्रह्मांड ही सभी बातों,सबों को अपने अंदर समेटता हुआ नज़र आता है,और अपने इस फैलाव के कारण हमें चकित भी करता है।
देखा गया है कि पूजा-उपासना हमारे अपने नितांत निजी ‘औरा’ को दृढ़ करता है और हमारे अंदर एक किस्म के स्थायित्व की स्थापना करता है।उपासक ‘ओऽम..ओऽम’ कहें या रामकृष्ण की तर्ज पर ‘माँ ! माँ !’पुकारें या फिर“या देवी सर्वभूतेषु” जैसे श्लोक उच्चरित करें, वे सभी अपनी उपासना के बीच उसी विराट के विभिन्न रूपों ओर उन्मुख रहा करते हैं और इसे ही इंगित करते हैं।
सही पूछा जाए तो यह भाव भारतीय शास्त्रों के अंदर पूरी तरह पसरा हुआ है कि जो सूक्ष्म है वह सबों के अंदर उपस्थित है,हवा की तरह,आकाश की तरह और उसी सूक्ष्म (लेकिन अनन्त विराट) की ओर मन को उन्मुख करके हम पूजा करते हैं,उपासना करते हैं,परिक्रमा करते हैं, साधना करते हैं।चाहे जिस पद्धति से हम करें। ‘पूजा’ के बीच चाहे जो कर्मकांड प्रयुक्त किया जाए. उसका भाव बहुत विराट हुआ करता है,वह हमें अणु से अनन्त की ओर ले जाता है।संग से असंग की ओर जाता है।
भारतीय समाज में पूजा-अर्चना का बहुत बड़ा महत्व है,हर घर में एक पूजा का स्थान अवश्य होता है और हर व्यक्ति भगवान के आगे सिर जरूर झुकाता है,यह एक तरह से हमारी परम्परा है और हम इसका पालन भी करते हैं।
नवरात्र का समय देवी उपासना से सम्बन्धित है। नवरात्र शुरू होता है पितृ-पक्ष (यानि पुरखों का पक्ष) के बाद,तो क्या यह मान लेना चाहिए कि‘देवी’भी हमारी पूर्वजों की श्रेणी में आतीं हैं? युग-महायुग बीत गए हैं,कहना मुश्किल है कि देवी माता कभी हमारी पूर्वज थीं या नहीं?लेकिन मन में तो वे हैं और यह बात बहुत महत्वपूर्ण है,जो पूरे समाज के लिए मायने रखती है और समाज के अलग-अलग वर्गों को जोड़ती भी है।
वास्तव में ‘देवी’ चाहे जिस रूप में पूजीं जाएँ-अम्बिका रूप में,जगदम्बिका या चंडिका रूप में, शिवदूती या ब्रह्माणी या महेश्वरी के रूप में,या फिर वैश्नवी,वाराही,काली,चामुंडा या दुर्गा के रूप में-हर रूप में उनकी आराधना नवरात्र में होती है।कुछ लोग दुर्गासप्तशति का पाठ करते हैं तो कुछ लोग रामायण या सुंदरकाड पढ़ते हैं ,लेकिन इन दिनों लोग पूजा अवश्य करते हैं,माता को याद करते हैं।
यहाँ पर हमें बीत चुके लंबे-लंबे कालखंडों पर दृष्टि डालना उचित लगता है और हम भारतीय इस तथ्य पर विश्वास करते हैं कि हमारी यह सृष्टि चौदह (14) मन्वन्तरों वाली है।पहले के मन्वन्तर बीत चुके हैं-स्वायम्भु मन्वन्तर,स्वारोचिष मन्वन्तर,औतभी मन्वन्तर,तामस मन्वन्तर, रैवत मन्वन्तर और चाक्षुष मन्वन्तर..और यह वैवस्तव मन्वन्तर चल रहा है।
यह कल्पना सच में बृहद कथ्य को रचती है कि एक मन्वन्तर में इकहत्तर (71) चतुर्युगी होते हैं यानि कि चार-चार युगों के एकहत्तर सेट!और हर एक चतुर्युगी (43,20,000 वर्ष) में सतयुग, त्रेता, द्वापर और कलियुग होते हैं।
यह याद रखने वाली बात है कि यह वैवस्तव मन्वन्तर का अट्ठाइसवाँ कलि है यानि कि हम इस चतुर्युगी के कलियुग में रह रहे हैं जिसके पाँच हजार से कुछ ज्यादा वर्ष बीत चुके हैं.. यह तथ्य ठीक से जान लेने पर हमारे कंठ में कुछ अटकने सा लगता है,एक घबड़ाहट और डर मन पर हावी होने लगता है कि मनुष्य की खूब लम्बी आयु की तुलना में युगों-महायुगों और मन्वन्तर में पैठे वर्षों की गणना कितनी ज्यादा है ! ऐसे में कई विचार हमारे बगलगीर हो उठते हैं और मन को दिलासा देने के क्रम में भय मिश्रित श्रद्धा का भाव हमें घेरने लगता है –
“चितिरूपेण या कृत्स्नमेतद व्याप्य स्थिता जगत्”
नमस्तस्यै,नमस्तस्यै,नमस्तस्यै नमो नमः”