डाॅ. यशोधरा शर्मा II
( हमारे नानाजी रेल सेवा में थे गाजियाबाद से स्थानांतरित होकर हाथरस जंक्शन आए और यही स्थापित हो गए। दशहरा अवकाश में माँ के साथ हम जाते थे नानी के घर। ये अदभुत राम लीला हम बच्चों के लिए बेहद ‘ग्लैमरस’ थी। इस मंच पर छोटे भाई और मैने भी अपनी नन्ही मुन्नी नृत्य कला का प्रदर्शन किया था और एक-एक रुपए का पुरस्कार भी लिया था। बचपन की ये रामलीला अभी तक हमारी स्मृतियों मे है ।)
रेल की दो जोड़ी समानांतर पटरियां खेतों के बीच में से आकर यहाँ रुक गईं थीं। कई गाड़ियों का मिलन होता था यहाँ, तो यह था जंक्शन। एक रेलवे स्टेशन का प्रारूप बताता हुआ, प्राय: सभी सुविधाएं थीं, टी स्टॉल, बुक स्टॉल, जल की आपूर्ति के लिए खेंचू यानी हैंड पाइप।
चार-पाँच जर्जर से खंबो पर टिका एक प्रतीक्षालय स्थानीय भाषा मे मुसाफिर खाना भी था। यात्रियों के साथ-साथ जो श्वान, गाय और शूकरों की भी शरण्य स्थली था।
रेलवे स्टाफ के अधिकारी,कर्मचारी सभी के लिए पद के अनुरूप आवास भी थे। मूवी हॉल तो था नही कोई। प्रोजेक्टर पर कभी-कभी फिल्म दिखाई जाती थी। हवा पर्दे को उड़ाती रहती और हीरो हीरोइनो की मुखाकृति अजीब सी बन जाती.. कहीं आँख तो कहीं नाक। गानों के सुर भी अजीब से कँपकँपाते हुए हिल जाते,फिर भी हर्षित होते सब।
नाजुक सा गोपाल बना ‘सीता’। उसकी पत्नी घूँघट की ओट से अपनी सखि सहेलियों को बताती – “हमारे जे सीता बने है। हमने कह दई तुम लाली पोडर, साड़ी बिलोज सब लै जाओ हमारे सीता माता।”
बरेली से स्थानांतरित हो कर,संगीत,नाटक,कविता- प्रेमी,टी.सी मौर्य बाबू जंक्शन आ गए और कहा कि-रामलीला का मंचन होगा इंस्टीट्युट में। लेकिन खर्चा? मंडली बहुत पैसा लेगी? तुरंत निदान..चंदा होगा,रेलवे कोष से भी मिलेगा और रेलवे स्टाफ ही लीला का मंचन करेगा।
आनन फानन में पर्दे,पात्रों की पोशाकें,मुखौटे,पेट्रोमेक्स,क्योंकि जंकशन था अभी विद्युत विहीन। साठ के दशक की बात है। पात्रों का चुनाव भी हो गया! गौर वर्ण उन्नत मस्तक नुकीली नाक,डोरी लाल शर्मा ‘राम’,मोटे थुलथुल के.सी. शर्मा साहब ‘हनुमान’,भंयकर सी आकृति लेकिन दिल के नरम डी. के. गुप्ता ‘लंकापति रावण’,नाजुक सा गोपाल बना ‘सीता’। उसकी पत्नी घूँघट की ओट से अपनी सखि सहेलियों को बताती-“हमारे जे सीता बने है। हमने कह दई तुम लाली पोडर,साड़ी बिलोज सब लै जाओ हमारे सीता माता। और राम प्रकाश बने ‘लक्ष्मण’। अन्य पात्र भी तैयार अभिनय के लिए। ‘राजा दशरथ’ का अभिनय भी लंकापति को ही करना था। दो एक कुली, वेंडर्स भी खुश विश्वामित्र,ताड़का,त्रिजटा आदि पात्रों अभिनय करके।
राम लीला का प्रारम्भ होने का समय सायं सात बजे और पाँच बजे से ही बाल बच्चों के साथ अपना टोसा (खाना) बाँध कर चारों ओर के गाँवो से झुण्ड के झुण्ड चले आते-ऐ राम लीला है रही है ‘इट्टीटूट’ पै। हस्त निर्मित चीमटे जैसे देसी पटाखे की तेज आवाज के साथ पर्दा खुलता।हारमोनियम तबला ढोलक आदि वाद्य और वादक भी निकट के गाँवों से आ गए थे.. ‘श्री राम चद्र कृपालु भजमन’ वंदना के साथ मंचन प्रारम्भ ।
अब लंका ‘पजर’ गई और लंका वासी काली पोशाके पहने रो-रो कर विलाप कर रहे है- “तुझसे लुंगा रे, तेरे बाप से लुंगा, जला जो जो सामान। खाट की जल गयीं पाटी और सिर की जल गयीं जुँऐ।” हारमोनायम की टूँ-टूँ के साथ।
राम जी को वनवास,माँ कौशल्या से आज्ञा ले रहे हैं,गाते हुए-“राज के बदलेएएएएऽ माता मुझको ओओओऽ मिल गया हुकुम फकीरीईईईऽका…! नौ नौ आँसू और दर्शक दीर्घा से भी सुबुक सुबुक के स्वर। प्रौढ महिलाओं के स्वर-जे मंथरा दासी बड़ी हरामजादी है,जाने ही भड़का दई कैकयी’ दूसरी का स्वर-“जे हरामजादी कैकयी चों भड़क गई?जाकी हि माथे की फूट गईं का?”
रावण का,एक हाथ से तलवार और दूसरा हाथ हवा में लहराते हुए-‘मै राही भटकने वाला हूँ कोई क्या जाने मतवाला हूँ’… गाते हुए मंच पर प्रवेश होता। न जाने ये गाना क्यों चुना गया था लंका पति के लिए!! अपने सिंहासन पर आसीन होते ही कमनीय काया वाले ‘फिल्टर बाबू’, (जल के फिल्टर विभाग में बाबू का काम करने के कारण नाम ही ‘फिल्टर’ हो गया था। वैसे नाम तो गोपाल दास था) राज नर्तकी बन कर रावण को इंगित कर करके ‘दिल लूटने वाले जादूगर अब मैने तुझे पहचाना है’ नृत्य के कमाल का धमाल दिखाते। जनता मुग्ध हो हो कर कामुक भाव से अश्लील वाक्य उछालती। कभी-कभी सिक्के भी।
लंका दहन का मंचन,मंच के पीछे रेलवे का बड़ा सा स्टोर रूम,सभी पर्दे ऊँचे करके कबाड़े में अग्नि प्रज्जवलित की जाती ‘अरे हटियो रे! भजियो रे! लंका पजारनी (जलानी) है! कोई अर्थ नही रखता कि दर्शक सुन रहे हैं। अब लंका ‘पजर’ गई और लंकावासी काली पोशाके पहने रो-रो कर विलाप कर रहे है-‘तुझसे लुंगा रे,तेरे बाप से लुंगा,जला जो-जो सामान। खाट की जल गयीं पाटी और सिर की जल गयीं जुँऐ।’ हारमोनायम की टूँ-टूँ के साथ।
अशोक वाटिका उजाड़ते हुए कुछ फल, हनुमान जी ने दर्शक दीर्घा में फेंक दिए वहाँ युद्ध !!!”मेरे बालक ने लपको है केला,तू कहाँ बीच में?”दूसरी-“मोए दयो है बजरंग बली ने,नेम (नियम) से दीया जलात हुँ बजरंग बली को..।”
यह काबिले तारीफ था कि कोई अपने संवाद याद नही करता था। जोर-जोर से ‘प्रोम्टिंग’ होती थी। बच्चा चीखा-‘देखियो रे चाचा राजा जसरथ तो बे बैठे बीडी फूँक रहे है।’अशोक वाटिका उजाड़ते हुए कुछ फल,हनुमान जी ने दर्शक दीर्घा में फेंक दिए वहाँ युद्ध !!! ‘मेरे बालक ने लपको है केला,तू कहाँ बीच में?’ दूसरी-‘मोए दयो है बजरंग बली ने,नेम (नियम) से दीया जलात हुँ बजरंग बली को..।’ मेघनाथ का वध और मौर्य बाबू नीली साड़ी (नीली साड़ी हर महिला पात्र पहन लेता था) लपेट कर विलाप करते- ‘धरती से गगन तक ढूँढू रे मेरे पीया गए तो कहाँ गए?’ महिलाएँ फूट-फूट कर रोती थीं हिचकियाँ ले-ले कर।
रामलीला, प्रेम प्रसंगो के लिए भी उपयुक्त स्थान थी। घूँघट की आड़ से षोडशी वधुओं के और तिरछी नजरों से षोडशियों के नयन तीर भी चल जाते थे।अधिक साहसी युगल अंधकार का लाभ उठा कर खेतों की शरण भी चले जाते थे और जनता को ज्वलंत चर्चा का विषय मिल जाता था- ‘देखो सरबती की छोरी ने राम लीला थोड़ी देखी,सराब के ठेका वाले संग चली गयी। मैने तो खूब देखी।’अब इनसे कौन पूछे कि तुम क्या देखती रहीं? खैर चलता है यह सब भी।
क्रमश: ‘रावण दहन’ अगले अंक में..