अभिप्रेरक (मोटिवेशनल)

सभी संभावनाओं के द्वार बंद कर देता छल

मनस्वी अपर्णा II

हम जब भी इतिहास पर नजर डालते हैं तो पाते हैं कि इतिहास का एक बड़ा हिस्सा युद्ध के नाम दर्ज है। इतिहास का कोई भी कालखंड उठा कर देख लीजिए यह युद्ध की गाथाओं से भरा हुआ है, धर्म के युद्ध, अधिकार के युद्ध, स्वतंत्रता के युद्ध, और वर्चस्व के युद्ध…। कभी सोचा है किसी भी व्यवस्था के खिलाफ युद्ध का शंखनाद करने के पीछे सबसे अहम कारण क्या होता है? तर्क और कारण कोई भी हो, मूल में हमेशा छल रहा है, मैं वैश्विक इतिहास को समाहित न करूं और सिर्फ भारत के इतिहास की बात करूं, तो पुराणों में इंद्र के छल की कितनी ही घटनाएं दर्ज हैं।
महाभारत की घटना भारतीय उप महाद्वीप के इतिहास में दर्ज पुरानी से पुरानी घटना है, महाभारत के मूल में भी कौरवों का योजनाबद्ध छल है, रामायण रावण और कैकई के छल के फलस्वरूप घटा है, 1857 का गदर अंग्रेजों के छल की वजह से, बंगाल के नवाब हारे अपने वजीरों के छल के कारण। हमने 1962 और 1965 के युद्ध झेले चीन के छल की वजह से, आज भी हम बहुत सूक्ष्म रूप से रोज छले जा रहे हैं। हमसे सत्तासीनों ने कहा कुछ और कर कुछ और ही रहे हैं।
मानवीय संवेदनाओं को सबसे गहरी वेदना अगर कभी महसूस होती है, तो वह तब होती है जब परोक्ष या अपरोक्ष रूप से, छद्म या घोषित रुप से छली जाती हैं, छल यानी कथनी और करनी में अंतर, छल यानी अपने हितों को साधने के लिए झूठे प्रपंच रचना, छल यानी अपने फायदे के लिए दूसरे की भावनाओं से खिलवाड़, छल यानी एक ऐसा व्यूह जो विश्वास करने वाले के लिए अभेद्य हो। प्रश्न यह उठता है कि कोई छल आखिर करता ही क्यों है? सीधा सा उत्तर है जब कोई मानसिक या शारीरिक रूप से सर्वथा बलहीन होता है, जिसमें सामने से युद्ध की क्षमता नहीं होती, जो अक्षम, दुर्बल और कुंठित होता है वो छल करता है। नहीं तो किसी समर्थ और क्षमतावान को छल की जरूरत ही क्या है? उसका सामर्थ्य ही उसकी पूंजी और शक्ति होता है।
युद्ध की हर क्षति को भुलाया, माफ किया जा सकता है, आमने सामने की टक्कर में हुए प्राणघात को क्षमा किया जा सकता, लूटे गए, हारे गए क्षेत्र, धन, संसाधनों को भी तिलांजलि दी सकती है, लेकिन छल को कभी माफ नहीं किया जा सकता, न ही भुलाया जा सकता है। छल आपकी आत्मा पर लगा दंश होता है, जो सालों साल टीसता रहता है। युद्ध में छल के लिए योगेश्वर श्रीकृष्ण भी आज तक कटघरे मे खड़े किए जाते हैं, भले ही वे इन सब आरोपों प्रत्यारोपों के पार हों, देवासुर संग्राम में किए गए छल को मानवता की भलाई का कलेवर भी भुलवा नहीं पाया। छल नहीं भुलाए जाते चाहे हम उनके लिए कितने ही अच्छे तर्क और कारण गढ़ लें, कितना ही आवश्यक क्यों न बता दें, कितना ही महिमामंडित क्यों न कर दें।
जब भी आक्रोश अपनी सीमा लांघता है तो उसे पार्श्व में छल का दंश होता है। जब भी मानवीयता और करुणा मात खाती है और क्रूरता हावी होती है तब भी पार्श्व में छल होता है। फूलन देवी, पान सिंह तोमर समेत अनेक दस्युओं की कहानी में छल निर्धारक तत्व की तरह मिलेगा, जेलों में बंद अधिकांश कैदी छल को सह न पाने की दशा में आक्रामक होकर बने अपराधी है। सबसे ताजा उदाहरण देखें तो स्त्रियां जो आजकल उन्हें हासिल अधिकारों का पुरूषों के लिए दुरुपयोग कर रही है उसके पार्श्व में भी सदियों का छल है।
…तो अपनी क्षमताएं बढ़ाइए, अपने आप को भट्टी में झोंक कर तपाइए, गलाइए, गढ़िए और फिर भी बात नहीं बनती तो अपनी अक्षमता को, कमतरी को स्वीकार कीजिए लेकिन छल को मत चुनिए यह आपकी हर संभावना को नष्ट कर देगा। दूसरी तरफ किसी के सच को, किसी के अस्तित्व को, किसी की स्वतंत्रता को इतना मत सताइए कि वो छल पर उतर आए, ये दोधारी तलवार किसी के भी हक में भला नहीं है।

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