कुलदीप सिंह भाटी II
पुस्तक का नाम – पिता की नींद
कवि – हरगोविंद पुरी
प्रकाशक – ज्ञानमुद्रा पब्लिकेशन, भोपाल
मूल्य – रुपये 350/-
जब व्यक्ति पेशे से वकील हो तो उसके विमर्श का वितान अपने मुवक्किल के अधिकारों के लिए मज़बूत आवाज़ बनने के साथ ही उसको न्याय दिलाने तक स्वतः ही विस्तार प्राप्त कर लेता है। हालांकि यह वकालत के पेशे का सहज गुणधर्म है और कुछ लोग पेशे की इस पवित्रता को पैसे से जोड़कर इसकी शुचिता पर संदेह प्रकट करते हुए मुझ से असहमत हो सकते हैं किंतु मैं ऐसे कृत्यों और कथ्यों से असरोकार रखते हुए कहूंगा कि ऐसे ही वकील और वकालती पेशेवर लोग जब कलम उठाते हैं तो उनकी शब्द-साधना धन-दौलत के मोहजाल से मुक्त हो अन्त्यज के उत्पीड़न को आवाज़ देने और उनके न्याय के लिये मुखरित होती है।
जी हाँ, ऐसा ही कुछ महसूस हुआ जब मैंने पेशे से वकील श्री हरगोविंद पुरी के काव्य-संग्रह ‘पिता की नींद’ को पढ़ा। यूं तो आभासी पटल (फेसबुक) पर पूर्णतया सक्रिय श्री पुरी को नित प्रतिदिन पढ़ने का सुअवसर मिलता ही रहता है किंतु जब पुस्तकाकार में समाज की विद्रूपताओं, विसंगतियों पर व्यंजना करते हुए श्री पुरी की कविताओं को पढ़ते हैं तो हमारी पूरी की पूरी वैचारिक नग्नता को यकायक वे सामने ले आते हैं।
आज जबकि समाज और राष्ट्र में कलम सरकार के साथ सरक कर सिमट-सी गई है तथा कवि व लेखक जागरण और जन-आवाज़ बनने के अपने उद्देश्य को भूलते जा रहे हैं, वहां श्री पुरी जैसे साहसी कवि का होना साहित्य की आत्मा को बचाये रखने की उम्मीद बंधाता है। ‘दिल्ली चलो’ , ‘राजन! ये आम जन हैं’ , ‘विभाजन’ , ‘तुम्हारा चुप रहना अख़रता है’ , ‘इस समय’ , ‘कसे जाने से’ आदि कविताओं में कवि ने साहसपूर्ण ढंग से सरकारों के अतार्किक निर्णयों और कुप्रबंधन के लिए उनको आड़े हाथों लिया है। ‘विभाजन’ कविता की इन पंक्तियों को देखिए -.
“वे…
अंत में एक दिन
जन आंदोलन को
कर देंगे राजद्रोह घोषित “
कलम को सरकार ही नहीं राजशाही और नेताओं से भी कोई मोह नहीं रखना चाहिए। श्री पुरी ने पूरी ईमानदारी से अपनी निष्पक्षता रखते हुए ‘चापलूसी’ कविता में नौकरशाही को, तो वहीं ‘भला आदमी’ , ‘भय’ और ‘एक दिन जरूर बनोगे घृणा का पात्र’ से तथाकथित सफेदपोश लोगों को उनकी कारगुज़ारियों के लिए सावचेत करते हुए समय रहते संभल जाने की हिदायत दी है।
ऐसा नहीं है कि कवि ने आमजन और पीड़ित पक्ष से वाहवाही लूटने के लिए केवल सरकारों और नौकरशाही व नेताओं को लक्ष्य में रखा हो। कवि ने हर उस विषय को अपने लेखन का केंद्र बनाया है जो किसी तरह से वर्णनीय और समाज की दृष्टि में लाये जाने हेतु आवश्यक हो। ‘बहुत आसान है’ , ‘बच्चे की कविता’ से कवि की बाल मनोविज्ञान के प्रति समझ प्रकट होती है वहीं ‘सुबह’ , ‘लाल रंग का सूरज’ , ‘ठूंठ’ और ‘बबूल’ जैसी कविताएँ कवि के प्रकृति-प्रेम और प्रकृति का मानवीय स्वभाव से सरोकारों की दीठ भी मिलती है। इतना ही नहीं कोरोना में ”महामारी से लौटते हुए मजदूर” की यात्रा को विजय-यात्रा बताने के साथ ही कवि कहता है कि –
“इस सदी की सबसे
कठिन यात्रा रही उनकी”
जपलोक की यात्रा में शामिल लोग आज जबकि केवल कहानियों, कविताओं के पात्र बनने को आतुर है वहां कवि ‘मेरा विश्वास’ में कहते हैं कि –
”मुझे विश्वास था
कि लौटूंगा एक दिन
और भटकन के सारे अवसाद
उलट दूंगा कविता में। “
कवि आश्वस्त करता है कि –
”देखूंगा पीछे मुड़कर
कुछ छूटे ना ऐसा
उन दिनों का
जो आज भी कविता के लिए जरूरी है।”
कवि आज राष्ट्र में सामंती निरंकुशता के लिए लोकतंत्र के चौथे स्तम्भ पर भी सवालिया निशान दागते हैं। जब बाड़ ही खेत खाने लगे तो पहरेदारी कौन करेगा ? इसी संदर्भ में कवि उक्त कविता में कहते हैं –
“मीडिया ने खा रखी है क़सम
सरकार को बचाने की
नाकामी छुपाने की कोशिश में
सवाल दागना भूल गया है
चौथा स्तम्भ
जिसके भरोसे थे लोग
कि वह उनकी आवाज़ बनेगा “
कवि ऊपरी स्तर से सतही तौर तक हरेक क़िरदार को कविता के पात्र के रूप में स्थान देता है। कवि को पढ़ते हुए मुझे अपनी वो बात याद आती है कि ‘जो कहीं स्थान नहीं पाते, कविताएँ उन्हें सहज हृदयंगम कर लेती है’। इसी भावना के अनुरूप कवि ने ‘अनाम शिल्पकारों के लिए’ , ‘बारात में पैसे लूटते बच्चे’ , ‘प्लास्टिक के पोस्टर’ , ‘फेरीवाले’ , ‘कचरा बीनने वालों की दीपावली’ और ‘शरबती गेहूँ और किसान’ आदि शीर्षकों के अंतर्गत कई कविताएँ लिख इस मंतव्य को महत्ता प्रदान की है। स्त्री विमर्श और इनके साहस के लिए लिखी कविताओं में से ही एक जगह कवि लिखते हैं –
“विद्रोह है
एक स्त्री का प्रेम करना…
स्त्रियां,
फिर भी प्रेम करती हैं
रोज मर्यादा टूटती है।
वहीं एक अन्य कविता ‘स्त्री’ में कवि लिखते हैं ”मेरा कुछ पूछना/ मेरे स्त्री होने में/ सबसे ज्यादा खटकता है”।
कवि का प्राथमिक रचाव का विषय होता है , प्रेम । स्वयं कवि के शब्दों में ‘जरूरी चीजों की तरह/ शामिल होता है प्रेम/ जो नहीं होता तयशुदा…” कवि अपनी परिपक्वता के नित नए पड़ाव तय करता हुआ शिखर प्रतिष्ठापित करता जाता है किंतु उसकी आधारशिला टिकी होती है, प्रेम पर। अतः श्री पुरी का भी इस विषय से अछूता रहना सम्भव कैसे हो सकता है। इसी कारण इस संग्रह में आपको ‘तुम्हारे लिए’ , ‘मेरा होना ‘ , ‘तुम्हारा आना’ , ‘तुम’ , ‘प्रेम के बारे में (दो कविताएँ)’ , ‘उम्मीद में’ , ‘प्रेम’ आदि इसी विषय पर केंद्रित प्रेम पगी पातियाँ मिलेंगी जो पाठकों द्वारा पढ़कर अभिस्वीकृत की जा सकती हैं। ‘तुम्हारा आना’ और ‘तुम’ कविताएँ एक तासीर और एक ही सांचे में ढली एक-दूसरे की पूरक कविताएँ हैं, जिनके मध्य इस संग्रह में भले 13 पृष्ठों का अंतर हो किन्तु भाव, शिल्प, कथ्य और बंध से पूर्णतया जुड़ी महसूस होती हैं।
सन् 1984 से 2021 तक के लगभग चार दशकों में लिखी श्री पुरी की इन कविताओं में कवि ने बख़ूबी समय की बदलती चाल और विज्ञान के युग में विज्ञापन की भेंट चढ़ी स्त्री-देह के लिए चिंता व्यक्त की है। इतने समय बाद भी स्थितियां वैसी ही हैं, या यों कहें कि दिनोंदिन विकृत ही हुई हैं। ‘पिता की नींद’ शीर्षक कविता को इस संग्रह का नाम देने के पीछे कवि की रिश्तों के प्रति सदाशयता और संस्कार ही है जो इसे अन्य विषयों या शीर्षक पर तरज़ीह देते हैं।कवि ने ‘माँ’ शीर्षक से भी एक कविता को इसमें संग्रहित किया है। कवि सहज समर्थन की चाह में ‘माँ’ भी इस संग्रह का शीर्षक दे सकते थे किंतु कवि ने बनी-बनाई परिपाटी से इतर इस संग्रह का शीर्षक चुना। कवि इस बहाने हमें संकेत देना चाहता है कि समाज उस विषय / बात पर ध्यान दे जो हमारी अस्वीकार्यता के बोझ तले असमय ही अतार्किक रूप से हाशिये पर डाल दिये जाते हैं। कवि स्वयं ‘आदमी होने का मतलब’ में कहते हैं कि ‘जीवन की जंग खपाने से लड़ी जा सकती है, छुपाने से नहीं ‘। तो हमें कवि के मंतव्य के अनुरूप बढ़ते हुए आगे चलना चाहिये। क्योंकि कवि के शब्दों में –
” मौत के बाद सिर्फ़
याद रखा जाता है
मनुष्य जन्मने के बाद
कितने बन पाए मनुष्य
और क्या थे तुम्हारे
मनुष्यता बचाने के प्रयास।”
(‘कुछ भी नहीं’ कविता से)
अंततः 178 पृष्ठों में संग्रहित 91 कविताओं (हालांकि कुल 92 कविताएँ है किंतु एक कविता ‘बबूल’ का पेज संख्या 144 और 174 पर दोहराव हुआ है, जिसके लिए मुझे कवि महोदय से शिकायत भी है क्योंकि इस वज़ह से आपके पाठक को आपकी एक अन्य बेहतरीन कविता को पढ़ने के सुख से वंचित होना पड़ा , अतः 91 ही उल्लेखित कर रहा हूँ) का यह संग्रह विषय वैविध्य से युक्त समाज और समय का एक ऐसा दस्तावेज़ है जिसमें कथित और घटित हर बात को व्यक्ति दृश्यगत महसूस करता है। वर्तनी की कुछ अशुद्धियों को नजरअंदाज कर यदि इसे पढ़ा जाए तो श्री अवधेश वाजपेयी के कुशल कूची-कर्म से निर्मित आवरण चित्र से सुसज्जित यह संग्रह एक बेहतरीन काव्य-संग्रह है। आज की कविताओं में जबकि कविताएँ हवा-हवाई और कल्पनाओं में विचरण करती हैं, वहां जीवन, जगत, जमीन और जड़ों से जुड़ी इन कविताओं का आना साहित्य के लिए सुखद है। आवश्यकता अनुरूप अलंकारों, उपमाओं और बिम्बों का प्रयोग करते हुए सहज, सरल और प्रांजल काव्य-संग्रह हेतु कविवर को बहुत बधाई और अनवरत और आगमी नव-सृजन हेतु अशेष मंगलकामनाएं।
कुलदीप सिंह भाटी, जोधपुर।