मनस्वी अपर्णा II
मेरे एक परिचित का हृदयघात से देहावसान हो गया… मैं उनके घर थी। मेरी ही तरह और लोग भी संवेदना व्यक्त करने आए थे। उनकी बातों से मैंने महसूस किया कि कुछ ही घंटों पहले चलते-फिरते और बोलते एक व्यक्ति को नया नाम मिल गया था-डेड बॉडी। कल तक साथ उठ बैठ रहा व्यक्ति मोर्चरी में अकेला लेटा था, और बाकी सब विलाप में डूबे थे। जाहिर तौर पर प्रियजन के अचानक चले जाने का दुख निश्चित ही कठिन होता है लेकिन मैं मृत्यु से उपजे इस दुख में जीवित रहते हुए मिले सुख की झलक ढूंढ रही थी। मैं सोच रही थी कि अगर कुछ सांसें और मिल जातीं तो क्या जीवन भी मिल जाता?
हममें से कई लोग हैं जो कोरोनो महामारी में मौत के मुंह में वापस आए हैं। उनसे सांसों की कीमत और उपयोगिता जानी जा सकती है, उन्होंने न जाने कितने प्रण लिए होंगे जिंदा लौटने पर जिंदगी को जिंदगी की तरह जीने के, किसी भी तरह की मूर्खता में अमूल्य जीवन को बर्बाद न करने के, वो सब काम करने के जो रोजी-रोटी और परिवार समाज की परवाह में टाल रखे थे उनको करने के। उनके परिवार और इष्ट मित्रों ने भी न जाने कितनी मन्नतें मांगी होंगीं और अब जबकि वो उस मृत्यु शैय्या से उतर कर लौट आए हैं, तो कितने लोग ऐसे हैं जो जीवन को उस तरह जी रहे हैं जैसा उस मृत्यु शैय्या पर सोच रहे थे। या उनके परिवार के लोग इस बात की कितनी कीमत समझ रहे हैं कि जिस व्यक्ति को इतनी मुश्किलों से मन्नतों के बाद वापस पाया है उसको अपना जीवन अपने ढंग से अपनी खुशी में जीने देना चाहिए। उसकी निजता और खुशी का खयाल रखना चाहिए। अब सब भूल गए हैं। वो बस फौरी बातें थीं जो मृत्यु के भय से उपजी थीं सबके सब वापस उसी ढर्रे पर लौट आएं हैं जहां व्यक्ति से ज्यादा कीमत, धन, समाज और नैतिकता की है।
सोच कर देखिए क्या मिला उस व्यक्ति की सांसें वापस लौटा कर? क्या बस सांस लेना जीवन है? ये सवाल अटपटा जान पड़ेगा क्योंकि हम ये मानते हैं कि सांसें मिलना ही तो जीवन का मिलना होता है, इसके विपरीत मृत्यु होती है, लेकिन गौर से सोचिएगा तो खयाल आएगा कि सिर्फ सांस लेना जीवन नहीं होता। हम सभी अभी सांस ले रहे हैं, लेकिन क्या हम में जीवन के लक्षण हैं? हम सब अपने आप को बस ढोए चले जा रहे हैं, परिवार, समाज, रिश्ते-नाते, पद-प्रतिष्ठा, धन औरअपनी महत्त्वाकांक्षाओं के बोझ तले जीवन रोज-रोज मरता है। हम खुद उसे अपने हाथों मारते हैं।
सिर्फ सांस लेना जीवन नहीं होता। हम सभी अभी सांस ले रहे हैं, लेकिन क्या हम में जीवन के लक्षण हैं? हम सब अपने आप को बस ढोए चले जा रहे हैं, परिवार, समाज, रिश्ते-नाते, पद-प्रतिष्ठा, धन और अपनी महत्त्वाकांक्षाओं के बोझ तले जीवन रोज-रोज मरता है। हम खुद उसे अपने हाथों मारते हैं।
जरा गौर कीजिए हम आखिर जीवन मानते किसको हैं? एक पारिवारिक सामाजिक व्यवस्था को जिसमें रहने का ठिकाना हो, भोजन की व्यवस्था हो, कमाई का जरिया हो और सहचर्य हो… बस इन्हीं चीजों के इर्द-गिर्द व्यक्ति की पूरी उम्र गुजर जाती है, कहीं रोटी का झंझट, कहीं नौकरी का जुगाड़, बचे समय में बिखरते रिश्तों की देखभाल… इन्हीं सब के बीच किसी कठपुतली की तरह नाचता व्यक्ति एक वक्त के बाद बिल्कुल रीता महसूस करता है, निराशा में डूबता है। उसके सामने अस्तित्व का सवाल खड़ा होने लगता है, फिर वो अपने इस रीतेपन को भोग-विलास, कला-संस्कृति और आखिर में धर्म-अध्यात्म से भरना चाहता है, इस कहीं न पहुंचने वाली दौड़ से फराग चाहता है क्यूं? क्योंकि हमने जिन चीजों को जीवन मान रखा है वो दरअसल जीवन होती ही नहीं है और कितना भी दौड़ लो। ये राहें कहीं नहीं पहुंचती, इसलिए हमारी कुंठा और नैराश्य बढ़ता जाता है।
जीवन को लेकर प्रत्येक के मायने अलग हो सकते हैं और हमको अपने लोगों के प्रति इतना उदार तो होना ही चाहिए कि वे अपने जीवन को अपने ढंग से जी सके, हम उसके मददगार न सही, उसकी राह का कांटा या रोड़ा बन कर न खड़े हों। अपनी जिम्मेदारियां निभाने के बाद उसको अपने जीवन पर पूरा अधिकार होना चाहिए, उसकी खुशी में हमको जलन या कुढ़न नहीं बल्कि खुशी और शांति जान पड़नी चाहिए।
हमको यह सोचना चाहिए कि कोई व्यक्ति न जाने कब हमारे बीच से चला जाए। फिर बस उसके न रहने पर विलाप किया जा सकेगा जो सच में ही मूल्यहीन होगा, क्योंकि वो जीते जी लगातार आपसे अपने लिए अपनी जिदगी के कुछ क्षण, जरा सी आजादी और अपने लिए थोड़ी सी खुशियां चाहता रहा और आपके अहंकार और कुंठा ने हर कदम हर हाल में उसका रास्ता यथासंभव रोके रखा। यही नहीं उसके जीवन के हर अवसर को खत्म कर दिया। इससे तो बेहतर है कि हम उसके जीते जी उसके जीवन के, उसकी खुशियों के साक्षी और साथी बन जाएं। मेरे विचार में इससे अमूल्य भेंट कोई नहीं होगी जो उसकी सांसों को सार्थकता देगी।