मीना प्रजापति II
जब हम तुलना करते हैं और किसी एक को चुनते हैं तो देखते हैं कि कौन सा काल कम बुरा था। इस कड़ी में अगर वैदिक युग मे स्त्री की स्थिति, परिस्थिति का आकलन किया जाए तो मालूम होता है कि उस कालखंड में स्त्रियों की स्थिति थोड़ी संतोषजनक थी।
वैदिक युग वह युग था जहां महिलाओं को शिक्षा, समानता, स्वयंवर और धार्मिक आजादी प्राप्त थी। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता थी। वे तीरंदाजी से लेकर शास्त्रार्थ में निपुण होती थीं। यही वह युग था जब मैत्रेयी, गार्गी जैसी विदुषी हुईं और कैकयी जैसी रानियां महाराज दशरथ के साथ युद्ध में गईं। विवाहित पुरुष बिना पत्नी के कोई धार्मिक अनुष्ठान नहीं कर सकते थे। वेद, गीता, महाभारत, रामायण जैसे महान ग्रंथ भी इसी काल में लिखे गए। द्रौपदी की दुर्दशा, सीता की परीक्षा और प्रेम का इजहार करने वाली सूर्पनखा की नाक काटने तक के उदाहरण दिखाई देते हैं।कोई भी युग आदर्श हो ऐसा कहा नहीं जा सकता है। वैदिक युग भी विरोधाभासों का युग रहा। की दुर्दशा, सीता की परीक्षा और प्रेम का इजहार करने वाली सुर्पनखा की नाक काटने के उदाहरण भी इसी काल में दिखाई देते हैं। एक राजा की कई रानियां होना और पितृसत्तात्मक व्यवस्था ने महिलाओं की आजादी के पैमाने तय कर रखे थे।
मध्यकाल में स्त्री की दशा
वैदिक युग में जो स्त्री देवी समान थी मध्यकाल आते-आते उपभोक्ता की वस्तु बन गई। पर्दे में छुपाने वाली माशुका और गर्भ में मार देने वाली अजन्मी कन्या बन गई। यही वो काल था जब बाल विवाह, सती प्रथा जैसी कुप्रथाएं भारत में घुस आईं। महिला एक व्यक्ति से ज्यादा संपत्ति और युद्ध में जीतने की वस्तु मात्र बन गई। महिलाओं की सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक और सांस्कृतिक जिंदगी धीरे-धीरे और खराब होने लगी। जौहर, बहुविवाह, विधवा पुनर्विवाह पर रोक और महिलाओं को जनाना क्षेत्रों तक सीमित करने के बावजूद कुछ महिलाओं ने राजनीति, साहित्य, शिक्षा और धर्म के क्षेत्रों में अपनी जगह बनाई। रजिया सुल्तान, चांद बीबी, महारानी दुर्गावती जैसी वीर नारियां भी दिखाई दीं और मीराबाई, अक्का महादेवी जैसी संत भी।
जब समाज में व्याप्त कुप्रथाएं अपने चरम पर थीं तब कबीर, मीरा, रामदास, नानक और कई अन्य समाज सुधारक सामने आए और महिलाओं के हक के लिए एक चट्टान बनकर खड़े हुए। इन समाज सुधारकों के प्रयासों से महिलाओं को धार्मिक आजादी और कुछ हद तक सामाजिक आजादी मिली। पर आर्थिक पहलू की ओर देखें तो अब पूरी तरह से पुरुषों पर निर्भर होने लगीं।
अंग्रेजों का भारत में आगमन और कुप्रथाओं पर अंकुश
अंग्रेजों के भारत में आने के बाद सती प्रथा, बाल विवाह जैसी कई अन्य कुप्रथाओं पर अंकुश लगाया गया और सावित्री बाई फुले जैसी समाज नायिकाओं ने महिला सशक्तिकरण के नए प्रतिमान रचे। लड़कियों के लिए शिक्षा के द्वार खोले गए। इस बदलाव को लाने मे भी सावित्री बाई फुले को भी की चुनौतियों को सामना करना पड़ा। एक समय ऐसा भी था जब बेटी पैदा होने पर उसे गर्म दूध में जला दिया जाता था।
महिलाओं के साथ होने वाले अन्याय को रोकने के लिए ब्रिटिशर्स ने कई कानून बनाए, लेकिन असल बदलाव की बयार लाए राजा राम मोहन राय, स्वामी दयानंद सरस्वती, डॉ. भीम राव अंबेडकर जैसे क्रांतिकारी। यही वह समय था जब महिलाओं ने देश को आजाद कराने के लिए आंदोलनों में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया। देश को औपनिवेशिक ताकतों से आजाद कराने के लिए स्त्री और पुरुष दोनों कंधों से कंधा मिलाकर आगे बढ़े और असमानताओं के खिलाफ पुरजोर आवाज उठाई।
आजादी के बाद प्रगति के नए प्रतिमान
आजादी के बाद महिलाओं ने सशक्तिकरण के नए प्रतिमान रचे। शिक्षा, स्वास्थ्य, मंच हर ओर महिलाओं की भागीदारी बढ़ने लगी, लेकिन पिछले ढाई तीन दशकों में जिस तादात में लड़कियों की सोच-समझ बदली उस तेजी से पुरुषों की नहीं बदली। हम मॉडर्न तो दिखने लगे लेकिन विचार से कितने सशक्त हुए, नहीं आंका। द्रौपदी और सीता जैसे ऐतिहासिक पात्र हमारे प्रेरणा हो सकते हैं लेकिन द्रौपदी के पांच पुरूष जैसे साथी वाली सोच को आज 21वीं सदी का पुरुष स्वीकार नहीं कर सकता।
अब महिलाओं के सशक्तिकरण की बात तो होने लगी, लेकिन उनकी भूमिकाओं में बदलाव नहीं आया। भूमिका मतलब महिलाओं का अपने शरीर पर नियंत्रण, कमाई पर नियंत्रण। कमाई पर नियंत्रण तो नहीं बदला, मगर इस पर वर्कलोड ज्यादा बढ़ गया।
जिन महिलाओं ने मुखर होने की कोशिश की, अपने मन की करने की कोशिश तो वे श्रद्धा या निक्की की तरह बलि चढ़ गईं। या रेप, घरेलू हिंसा का शिकार हो गईं। आधुनिक पुरुष ने लव मैरिज, लिव-इन रिलेशनशिप में रहना तो सीख लिया लेकिन मर्दवादी सोच और आक्रामक मर्दानगी नहीं छोड़ पाया। मर्दानगी सिखाती है कि पुरुष बेहतर हैं, पुरुष बलवान हैं, पुरुष ताकतवर हैं, पुरुष बुद्धिमान हैं, पुरुष शक्तिमान हैं।
जेंडर समानता में पुरुष कहां हैं?
आधुनिक नारी को अगर हम सक्षम, सशक्त और शिक्षित बनाना चाहते हैं तो उससे पहले हमें पूछना पड़ेगा कि जेंडर समानता में पुरुष कहां हैं, महिला हिंसा को रोकने में पुरुष कहां हैं? हम हर बार सशक्तिकरण के नाम पर महिलाओं को ही जेंडर sensitization की ट्रेनिंग देते हैं, लेकिन पुरुष को छोड़ देते हैं। महिलाएं इसलिए नहीं बच रही हैं, क्योंकि पुरुष नहीं बच रहे हैं। महिला सशक्तिकरण बिना पुरुष की सहभागिता से नहीं हो सकती।
साथ ही महिला अधिकारों की पैरोकारी करने वाली महिलाओं को भी यह समझना होगा कि ‘समानंतर पुरुष’ बनकर समानता नहीं लाई जा सकती। ये स्त्री वर्सेज पुरुष की लड़ाई नहीं। ये पितृसत्ता से परेशान पुरुष और स्त्री की जंग है। समानता की ये कोशिश परिवार, राज्य और धर्म को मिलकर करनी होगी। हमें ये समझना होगा कि अगर तेज चलना है तो अकेले चलेंगे, लेकिन दूर जाना है तो साथ चलेंगे।