कविता

बंद किताबें

प्रणय कुमार II

जब किताबें
बंद रहती होंगी वर्षों से
तब अंदरखाने में
क्या कुछ होता होगा ?
क्या लड़ते- भिड़ते होंगे अनुच्छेद
वर्चस्व के लिए,
क्या वाक्यों में होती होगी
अगड़े- पिछड़े की लड़ाई,
शब्दों के चेहरों पर
आ जाती होगी क्या कुटिलता,
क्या अक्षर
कूदफांद कर
हाशिये पर अपना आधिपत्य जताते होंगे,
क्या मात्राएँ
अश्वमेघ का घोडा बन
ललकारती फिरती होंगी आर्थों को ?
क्या कुछ होता होगा,
वर्षों से बंद पड़ी किताबों के अन्दर ?
अक्षरों, मात्राओं की गुत्थमगुत्था में,
कैसे- कैसे शब्दों,
कैसे- कैसे अर्थों का सृजन होता होगा |
कभी व्याकरण की किताब में अनायास
अबोध की तुतलाहट
खिलखिलाती होगी,
कभी वेदों में
राशन की पर्ची
और उधारी का खाता अंकित हो जाता होगा |
क्या होता होगा
स्याही की उम्र तक बंद
किताबों के अन्दर ?
धीरे- धीरे पिघलते होंगे सभी
अक्षर, शब्द, वाक्य और अनुच्छेद |
धुंधली होती स्याही के साथ
चीखते, चिल्लाते होंगे,
छिपते होंगे
पंक्ति में सबसे पीछे जाकर,
साँस के लिए बार- बार मुंह खोलते
और बिना छोड़े कोई निशान,
पन्नों को
कफन- सा सफेद कर जाते होंगे

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प्रणय कुमार

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