कहानी

आधे-अधूरे होने का एहसास’

राजगोपाल सिंह वर्मा ||

प्रेम ऐसा अहसास है जब होता है तो सब बंधनों को पहले चोरी छिपे, थोड़ी सौम्यता से, और फिर निर्ममता से तोड़ डालता है, सब वर्जनाएं दरकती हैं, और अंततः टूट कर अलग हो जाती हैं, ढह जाती हैं सब दीवारें, धर्म, सम्प्रदाय और आर्थिक अवलम्बन की, बावजूद अनंत काल से चली आ रही सब अनचाही बेडियों के! और उम्र…? प्रेम में उम्र तो बेमानी होती है.

तो प्रेम हो गया था उन दोनों में, आंखों-आंखों में, नजरें मिली, कुछ बातें… औपचारिक-सी, और जल्दी ही दोनों ने कुछ खोज निकाला, जिसकी न जाने कब से तलाश कर रहे थे वह शायद मन ही मन! कुछ समय बाद लगा कि जैसे वाकई कुछ पा ही लिया हो, उन दोनों ने! अद्भुत बन गई थी, प्रेम कहानी उनकी, बातचीत से मित्रता और मित्रता से प्रेम…आत्मिक प्रेम, कुछ ही दिनों में! विवाहित स्त्री-पुरुष के मध्य पनप रहे वर्जित प्रेम की यह कहानी कम उम्र वाले प्रेम जैसी ही आतुरता लिए, पर रूहानी इश्क़-की सी थी, दोनों की धड़कनों में सुना जा सकता था उसमें!

दोनों की पसंद-नापसंद बहुत मिलती थी. राशि भी एक थी दोनों की. तुला. मात्र दो वर्ष और चार दिन का अंतर था उन दोनों में. यह पता चलने के बाद जब पहली बार मिले तो भी यह एक आश्चर्य की बात नहीं थी उसके लिए. अपनी गोल-मटोल आंखें नचाती हुई वह बोली,

“यह तो दिखता ही है, बताने की भी जरूरत है क्या?”

… और फिर रंग, पहनावा, मूवीज, तथा रहन-सहन, अमृता प्रीतम और ओ’ हेनरी…रेखा, अमिताभ बच्चन और गुलजार… सब कुछ अप्रत्याशित रूप से सिनक्रोनाइज होने लगता. हद तो तब हुई जब उसे भी गुलमोहर और बुरांश के पुष्पों से होने वाले रोमाँच के मेल का भी पता चला.

ऐसे ही किसी संदर्भ पर वह चहक उठी,

“रियली? वी आर मेड फ़ॉर…!”,

वह अधूरा ही बोल सकी, क्यूंकि जानती थी कि यह सच नहीं. वे दोनों अलग-अलग बंधनों और विपरीत परिस्थितियों में अपनी-अपनी राह के सफर तय कर रहे थे.

“चलो मिले तो सही, भले ही आधे-अधूरे!”,

ऐसा कहकर पुरुष स्त्री की संवेदनाओं को ढांढस बंधाता, जैसे बोलने की कोशिश में हो कि, ‘अब मैं हूँ न..!’

एक ही बात थी जो उस प्रेम को परिणति तक ले जाने से रोकती थी. तमाम प्रतिबंधों से जो बांधती थी उन्हें… यह कि दोनों विवाहित थे. नहीं, प्रेम विवाह नहीं थे, दोनों अलग-अलग सामाजिक बन्धनों में परंपराओं की बलिवेदी पर आहुति देकर तपे थे! और दो विवाहित स्त्री-पुरुष इतर प्रेम की सोचें भी, यह तो बहुत ही खतरनाक है! विवाह की संस्था के विखंडन का भय, सब संस्कार, रूढ़ियाँ और परंपराओं के ढहने का वृहद खतरा! नहीं.. नहीं, भला यह कैसे हो सकता था!

पर जब प्रेम का अंकुर पनपता है तो बाधाओं से बचते हुए, कुछ को तोड़ते हुए, कुछ को अनदेखा करते हुए, बेपरवाह सा, वह पल्लवित होता ही जाता है. दिन बीतते गए, प्रेम अपने स्तर से बढ़ता गया. बंधन पहले ढीले हुए, फिर टूटे, सामाजिक वर्जनाएँ किनारे होने लगी, बेपरवाह होकर, या उच्छ्रंखल-सा बन, धड़कनों में समा गया वह प्रेम, दिल मचलते थे दोनों के सिर्फ एक दूसरे के लिए…मगर कुछ था जो इस प्रेम को बाधित करता था.

हाथों में हाथ डाले, दुनिया की बाधाओं से दूर, वह जब अल्लसुबह कैंटोनमेंट के कस्तूरबा पार्क में जॉगिंग करते टकरा जाते तो बात कुछ यूं होती–

“आज सोचा था मैंने कि तुम लाइट ग्रीन में ही आओगी!”

“और मुझे पक्का पता था कि तुम ग्रे जॉगिंग सूट ही पहनोगे!”

और दोनों खिलखिला कर हंसते. 

सवेरे की ठंडी हवाएं और कस्तूरबा पार्क की हरीतिमा उनके नासा छिद्रों को सुगंधित और पलकों से पार… आँखों से महसूस कराते हुए प्रेम का अनचाहा-सा राग भर देती. ऐसे में पार्क के बीचोंबीच बड़े से फाउंटेन से अठखेलियाँ करती पानी की बौछारें कृत्रिमता का बोध नहीं कराती. लगता कि वह उन दोनों के प्रेम को समान रूप से महसूस कराने की प्रतिबद्धता निभाना चाहती हैं. तभी वह कभी पुरुष की ओर अपना रुख करती, पर दूसरे ही पल स्त्री को भिगो देती.

सवेरे का वह समय… लगभग एक घंटा, न जाने कब, पंख लगा कर उड़ जाता. फिर अपने-अपने घर जाकर दोनों जिंदगी की कुछ औपचारिकताएं पूरी करते. ठीक दस बजे वे ऑफिस में होते. एक दूसरे के पास, पर फिर भी थोड़ा दूर!

पर, कुछ था जो स्त्री के मन के नितांत विपरीत था.पुरुष के हाथ की अंगुली में जो अंगूठी थी, वह स्त्री के हृदय को व्यथित करती थी! उस अंगूठी में उसे पर-स्त्री होने का प्रमाणपत्र नन्हे स्वर्ण-अक्षर में जड़ित-सा दिखता था. वह अंगूठी उसे प्रेम की कानूनी परिधियों में जिंदगी का प्रेम-सुख भोग रही स्त्री की प्रसन्नता के प्रत्यक्ष प्रमाणपत्र की तरह दिखती थी. जैसे चिढाती हो उसे, हालांकि जानती वह भी थी कि पुरुष का प्रेम उसके लिए आत्मिक है, मन से है और समर्पण से लबरेज है!

देखा जाए तो उन दोनों का प्रेम केवल ‘समय’ था. वह समय जो दोनों एक दूसरे के साथ बिताते थे, तब वह एक दूसरे को समझते…पर जितना जानने की कोशिश करते उतने ही असहज होते जाते. मन के तार झंकृत होते. अच्छा लगता सब कुछ, पर जितना पुरुष-स्त्री पढते उन भावों को, उससे अधिक उन दोनों से परिचित लोग खोज निकालते. कितना समय है लोगों के पास यह जानने का, कि कोई किसी से प्रेम क्यूँ करता है…, और वह भी बिना किसी वैधानिक स्वीकृति के. शायद वह लोग भी आपसे किसी स्तर का प्रेम दर्शा रहे होंगे.

यूँ तो स्त्री और पुरुष बुनियादी रूप से भिन्न हैं… हर स्तर से, शारीरिक, मानसिक, अनुभूतिगत, व्यवहारिक और संवेदनागत, लेकिन देखा जाए तो उनकी यह विपरीतता जरूरी है. इन विपरीतताओं से मिलकर ही तो निश्छल निर्मल जीवन की धारा बह पाती है, निर्बाध! वे विपरीत हैं, इसलिए उनमें आकर्षण सम्भव है और कलह की भी संभावनाएं निहित हैं! उनके बीच सुलह नहीं हो पाती है, बस एक समझौता रहता है. उनकी विपरीतता के कारण तनाव भी बना रहता है और विपरीतता के कारण ही एक दूसरे से आकर्षण भी!

सब जानते हैं कि पुरुष अधूरा है, स्त्री के बिना; स्त्री अधूरी है, पुरुष के बिना. पुरुष पूरा होना चाहता है स्त्री के साथ. स्त्री भी पूरी होना चाहती है पुरुष के साथ. लेकिन प्रवाह अनूकूल न हो, परिस्थितियों पर दृष्टि में विविधता हो, असहमति हो तो एक निश्चित कलह की संभावनाएं भी शिद्दत से उपस्थित रहती हैं.

“क्या तुम मुझे टाइम पास समझते हो?”,

लगभग चिल्लाते हुए उसने पुरुष को कहा एक दिन. वह तैयार नहीं था, इस विवाद के लिए, बोला,

“पूरा प्रेम करता हूँ तुमसे, कुछ भी अपूर्ण नहीं. पर कुछ जिम्मेदारियां और अग्नि साक्षी वचनों का निर्वहन भी मेरे लिए उतना ही शाश्वत है!”

पुरुष अडिग हुआ तो कडुआहट बढ़ी… दोनों ओर से.

“हाँ, मेरी सब प्रतिज्ञाएं तो छलावा थीं न? अग्नि के समक्ष मेरा जाना अर्थपूर्ण नहीं था न? और यदि मैं तुममें अपना भविष्य खोजती हूँ, तो मैं बहुत बुरी हूँ न? बोलो?”,

“यह कब कहा मैंने!”, 

पुरुष ने बात रखी. हालांकि वह जानता था कि इस प्रश्न का उत्तर देना भी आवश्यक नहीं था. यह खीज उसे अक्सर होती थी, पर कुछ प्रश्नों के जवाब नहीं होते. जब प्रेम प्रगाढ़ होने लगा, तो वह स्थिरता की माँग करने लगा… परन्तु इसके विपरीत मिली अस्थिरता.

कहते हैं कि स्त्री और पुरुष के बीच कोई स्थिर संबंध निर्मित हो ही नहीं सकते…सब संबंध अस्थिर होंगे. क्षण भर पहले जहाँ प्रेम है, क्षण भर बाद वहीं निस्पृह स्थिति या उदासीनता अथवा ऊहापोह बन जाये, यह स्वाभाविक है. इसको बदलने का भी कोई उपाय नहीं है जब तक कि व्यक्ति आत्मलोकन की यात्रा पर न निकल जाए.

शरीर से समझें, तो फिर भीतर की बात भी समझ में आ जाएगी क्योंकि शरीर का जो ढंग है, वही भीतर के व्यक्तित्व का भी ढंग है. पुरुष आक्रामक है, स्त्री अनाक्रामक है. पुरुष सक्रिय है, स्त्री निष्क्रिय है. पुरुष प्रेम करता है, स्त्री प्रेम सहेजती है. स्त्री सामान्यतः पुरुष से नहीं कहती कि मैं तुम्हें प्रेम करती हूं. प्रतीक्षा करती है कि पुरुष उससे कहे. स्त्री उसके निवेदन पर ‘हाँ’ या ‘न’ करेगी, लेकिन निवेदन नहीं करेगी, यह लगभग निश्चित है, और जो स्त्री किसी पुरुष से निवेदन करेगी कि मुझे तुमसे प्रेम है, उस पुरुष की उत्सुकता उस स्त्री में नहीं हो सकती, यह भी निश्चित ही मानिए, क्योंकि वह स्त्री, पुरुष जैसा व्यवहार कर रही है और अपने प्रेम निवेदन के विश्वास पर संशय का अवसर दे रही है.

बस ऐसा ही हुआ था. शायद प्रेम निवेदन तो पुरुष का ही था, पर शुरुआत स्त्री की थी. उसके छरहरेपन, कसाव और मोटी-मोटी आँखें जिन्हें वह अकसर नचाया करती, किसी को भी आकर्षित… नहीं, प्रभावित करने की पर्याप्त क्षमता रखती थी. ऐसा नहीं था कि उसका शारीरिक आकर्षण ही प्रेम को बढ़ावा देता हो, बौद्धिक दृष्टि से वह एक परिपक्व विचारक कहला सकती थी. वह यूनानी विचारक अरस्तू और प्लेटो की गूढ़ अवधारणाओं पर घण्टों चर्चा कर सकती थी, और चाणक्य के अर्थशास्त्र तथा हिटलर की ‘मेन काम्फ’ के मुख्य उद्धरण उसे चमत्कारिक रूप से स्मरण होते थे.

इन सब सोच के साथ वह अंगूठी व्यथित करती थी उस स्त्री को, जो सब कुछ भूलकर उस पुरुष के जीवन में समाहित करना चाहती थी स्वयं को… अपने हर लम्हे को, जीना चाहती थी, उसकी और अपनी खुशियों, उदासियों, परेशानियों और तमाम छोटी-छोटी सुख-दुख की बातों के बीच! वह स्वीकार करती थी उसे उसके खुद के भी अधूरेपन के साथ. 

एक दिन वह शहर के व्यस्ततम मार्किट में ले गई उसे, एक प्रसिद्ध ज्वेलर की दमकती शॉप पर. वहाँ उसने अपनी आंखों में आये कुछ चमकते भावों से कहा,

“मैं चाहती हूं, एक अंगूठी पहनो तुम, कुछ अपनी… कुछ मेरी पसंद की, वह भी मेरी तरफ से उपहार स्वरूप!”.

विचित्र स्थिति थी वह. वैसे भी स्वर्ण आभूषण पुरुषों के लिए कोई विशेष महत्त्व नहीं रखते, केवल रस्म अदायगी होती है उनको धारण करना. वह तैयार नहीं था इस भेंट के लिए. पर, अब भला इन्कार कैसे हो. 

किसी से प्रेम में है वह, और वह प्रेम से कुछ दे रहा है, तो कैसे कहा जाय कि यह स्थिति सहज नहीं है, प्रेम में लेना-देना प्रेम को कम करता है, और स्त्री से पुरुष कुछ ले, और हमेशा वरण करे उसका…यह तो प्रेम के ह्रास की पराकाष्ठा है. हाँ, स्त्री सब कुछ कर सकती है, यदि वह प्रेम करती है, तमाम वर्जनाओं के बावजूद, पर पुरुष के पास न जाने कितने बहाने होते हैं, उस प्रेम को अधूरा बनाये रखने के लिए.

अंततः कुछ असहजता में अंगूठी स्वीकार हुई, पहनी गई पर क्या हुआ ऐसा फिर, जिससे संबंध और भी जटिल होते गए, और यह अनपेक्षित भी नहीं था.

उससे पहले वह अंगूठी उस स्त्री ने उतरवाकर सहेज ली थी, जिसे वह अप्रेम की निशानी मानती थी. बोली,

“तुम नहीं समझ पाओगे स्त्री मन! बस इतना समझो कि वह अंगूठी मेरे प्रेम का तिरस्कार-सा करती दिखती है मुझे। मुझे तुम्हारे अप्रेम के प्रबल भाव दिखते हैं उसमें, सो, तुम मुझे थोड़ा भी प्रेम करते हो, तो यह पहना करो। मुझे अच्छा लगेगा। और वह अंगूठी रहेगी मेरे पास सुरक्षित, ताकि तुम थोडा उस मोह बंधन से निकल सको !”

पुरुष का प्रेम भी स्त्री में कुछ अलग खोज चुका था उसमें. इसलिए इस फैसले के परिणामस्वरूप उत्पन्न होने वाली तमाम जटिलताएँ भी उसे असहमत होने से न रोक सकीं. कोई समझ सकता है क्या इस दर्शन को, जो बताता हो कि एक प्रेम का रिश्ता किसी अंगूठी पहनने, या न पहनने से कैसे ऊहापोह में होकर अपना आकर्षण खो सकता है. वह अंगूठी पहनी उसने, मन से पहनी पर उलझन बनी रही. अपने चेहरे पर भी मुस्कान और स्नेह के भावों में कुछ मिलावट-सी दिखी स्वयं को भी उसे !

कहते हैं कि मूल रूप से प्रेम का मतलब है कि कोई और आपसे कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण हो चुका है. यह स्थिति दुखदायी भी हो सकती है, क्योंकि इससे आपके अस्तित्व को खतरा है. जैसे ही आप किसी से कहते हैं, ’मैं तुमसे प्रेम करता हूं’, आप अपनी स्वतंत्रता खो देते हैं. आपके पास जो भी है, आप उसे खो देते हैं. जीवन में आप जो भी करना चाहते हैं, वह नहीं कर सकते. बहुत सारी अड़चनें हैं, लेकिन साथ ही यह आपको अपने अंदर खींचता चला जाता है. यह एक मीठा जहर है, बेहद मीठा जहर. यह स्वयं को मिटा देने वाली स्थिति है.

लेकिन उस स्त्री का क्या जिसको आपने विधि-विधान से स्वीकार किया. हो सकता है कि स्वीकारते समय कोई दबाव काम कर रहा हो आपके ऊपर, कोई ऐसा अनिर्णय हो, जो आपको किसी परिस्थिति विशेष में करना पड़ा. फिर भी, वह श्लाघ्य हुआ क्या ? या फिर वह तर्क अब कहाँ विलुप्त हो गया.

यह भी उतना ही सही है कि आप यदि स्वयं को नहीं मिटाते, तो आप कभी प्रेम को जान ही नहीं पाएंगे. आपके अंदर का कोई न कोई हिस्सा मरना ही चाहिए. आपके अंदर का वह हिस्सा, जो अभी तक आप था, उसे मिटना होगा, जिससे कि कोई और चीज या इंसान उसकी जगह ले सके. अगर आप ऐसा नहीं होने देते, तो यह प्रेम नहीं है, बस हिसाब-किताब है, लेन-देन है. वैधानिक प्रेम में चाह कर भी नहीं हो पाया था ऐसा अहसास जो इस वर्तमान और अवैधानिक स्नेह से उपज रहा था. लेकिन यह प्रेम कुछ अतिरिक्त भी माँग रहा था, न जाने क्या. 

प्रेम की यह भावना सब तर्कों और परम्पराओं को भी उलझन में डाल चुकी थी… प्रेम का स्थान संशय लेता जा रहा था. दोनों स्त्रियाँ प्रेम नहीं, संशय और थोडा उम्मीद– नाउम्मीदी में जी रही थी. एक प्रसन्न होती तो दूसरी उदासियों के घेरों में दिखती. हर दिन. या फिर दोनों ही उदास होती. निश्चित रूप से दोनों एक साथ प्रसन्नता के भावों से सराबोर तो कभी भी नहीं रह पाई. और फिर वह पुरुष भी कैसे रहता प्रसन्न.

अंततः जो खतरा था, वह सामने आ ही गया. घर पर उस अंगूठी को छिपाए रखना और बाहर धारण करना, फिर घर पर छिपाना, यह खेल-चक्र अधिक दिनों तक नहीं चल पाया. एक से प्रेम और एक से प्रेम का दिखावा. आखिर कब तक चलता. पर मजबूरियां भी बहुत कुछ निर्धारण करती हैं. आपकी प्रेम की भावनाएं भी मजबूरियों के वशीभूत होती हैं, आपके चाहने, या न चाहने से कुछ नहीं होता.

घर पर संशय के घने बादल छा गये थे. अब जिद्द यह कि नई अंगूठी की कोई जरूरत ही नहीं. वही पहनो. मानो अंगूठी पहनो तो प्रेम रस का निर्बाध प्रवाह होना निश्चित है. वरना प्रेम है ही नहीं. जद्दोजहद के बाद स्त्री ने वापस कर दी वही अंगूठी. फिर से पुरानी अंगूठी अंगुली में आ गई. थोडा शान्ति हुई घर पर. पर, बाहर वह अंगूठी पहन कर जाने का साहस नहीं हुआ. मिलने से पहले वह अंगूठी निकाल कर जेब में रख लेता. और बाद में पुन: धारण करता. पर, फिर वही हुआ, जिसका डर था. एक बार भूलवश वह अंगूठी अंगुली में ही रह गई. और फिर स्त्री की उदासियों की बारिश में स्वयं भी पुरुष के अश्रु नीर रुक न सके. पर, दोनों एक दूसरे के मन के इस भाग की जटिलताओं को पढ़ नहीं पाए.

अब अधिक सतर्कता रहती हर बार. पर अवसर मिलते ही स्त्री की निग़ाह अंगुली के उस स्थल पर होती जहाँ अंगूठी उतारने के बाद त्वचा के दबाव के निशान दिखते हैं. अगर आप लम्बे समय से कोई अंगूठी धारण नहीं कर रहे, तो वह निशान नहीं होते, यह सामान्य सी बात है. तब, उसका प्रेम कहीं ठहर-सा जाता, तब वह उदास होकर वह उस हथेली में प्यार की कुछ बनती-बिगडती रेखाएं देखने की और पुरुष को कुछ स्नेह देने की असफल-सी कोशिश करती. प्रेम अब अंगूठी पहनने या न पहनने, या पहले भी पहनने की संभावनाओं के मानकों पर निर्धारित हो गया था.

प्रेम को किसी परिभाषा में बांधना कितना मुश्किल है, यह उससे पूछो जिसने कभी प्रेम को पल-पल जिया हो और फिर भी प्रेम उससे छिटकता रहा हो. बंधन में नहीं, उन्मुक्त, अपने मन से. जब बंधन में हुआ तो सब अच्छा लगना उसकी अपरिहार्यता हुई. उसकी मुस्कुराहटों में सिर्फ प्रेम दिखता है, और क्रोध में कोई अप्रेम भी नहीं. लिखने वालों ने तो बहुत कुछ लिखा है. इकबाल ने कहा था कि “ये बाज़ी इश्क़ की बाज़ी है, जो चाहे लगा दो… डर कैसा ।”

पर, क्या इतना ही आसान है किसी को प्रेम करना, और किसी से दूर हो जाना. आप जान भी नहीं पाते जो हो जाता है, और जब दूर जाते हैं, तो भी आप चाहते कब थे. आपने तो उस प्रेम को अपना चरम सौंप दिया. फिर भी वह प्रेम सफल नहीं हो पाया तो आप मात्र ५० प्रतिशत ही दोषी होंगे न ! वही तो आपका शत प्रतिशत था. अब दूसरी ओर की अपेक्षाएं तो आप एक सीमा में ही समझ सकते हैं.

अंततः पर-स्त्री के मन में अंगूठी से पनपी अप्रेम की भावना प्रबल हुई. चौदह वर्ष का समय लगा इसे समझने में. दोनों को. किसी को किसी से शिकायत भी नहीं. बहुत मुश्किल होता है ऐसे प्रेम संबंधों का जुड़ना, पर टूटना और भी दुखद होता है. फिर टूट कर भी वह लम्हे इर्द-गिर्द घूमते ही रहते हैं. जितना भूलने की कोशिश करो, उतने ही टकराते हैं यादों से. यूँ कहिये कि मन अभी भी वहीँ अटका रहता है. पुरुष का वह जानता है. स्त्री का वह जाने. हो सकता है उसने लिखा भी हो अपनी डायरी के कुछ पन्नों में.

बहुत जटिल होती है मन की रसायनिकी … जितना जानो किसी को, पास आओ, उतनी ही उत्कंठा बढ़ती जाती है, और जानने की, और जो पा जाओ पूरी तरह, तो अक्सर उत्कंठा निश्चिन्तता से बदल कर उपेक्षा और फिर तटस्थता में बदल जाती है. दूर जाने की सोचो, तो दूर जाकर भी दूर न जा सको. हर दृष्टि से अधूरा ही रहता है प्रेम!

…जब भी किसी पुरुष की अंगुलियों में अंगूठी दिखती है तभी न जाने क्यूँ उससे जुड़े किसी प्रेम-अप्रेम का घुंधला किस्सा भी उसकी आँखों मे दिखने की कोशिश में रहता है मन. पर, कितनी विचित्र बात है कि इन चौदह सालों में धूमिल हुए कुछ अनचाहे-से रिश्तों में कभी पश्चाताप की ग्लानि से पीड़ित नहीं होता पुरुष. स्त्री होती होगी, तभी वह एक अंगूठी में अपने प्रेम के मानक ढूंढती रही, इतने समय तक! और यही उसकी नियति भी है… कभी पति में ढूंढती रही प्रेम, और उकता कर जब प्रेमी में ढूँढा, तो वहाँ भी अधूरापन ही मिला. 

पर, याद पति को ही किया उसने अपने पड़ाव के लिए. सामाजिक बंधनों का निर्वहन अधिक सरल है शायद. फिर, यदि असामाजिक रिश्तों को सामाजिकता का चोला पहनना होता तो आज के समय में विवाह की बुर्जुआ संस्था भारत जैसे पुरातन देश में कब की विलुप्त न हो गई होती! 

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राजगोपाल सिंह वर्मा

“बेगम समरू का सच” नामक औपन्यासिक जीवनी का प्रकाशन. इस पर उत्तर प्रदेश राज्य कर्मचारी साहित्य संस्थान, लखनऊ द्वारा ‘पं महावीर प्रसाद द्विवेदी सम्मान’ और एक लाख रु की पुरस्कार राशि प्रदत्त. पुस्तक का प्रकाशन अंग्रेजी में भी हो रहा है.
ऐतिहासिक विषयों पर कई किताबें प्रकाशित और प्रकाशनाधीन. दो कहानी संग्रह प्रकाशित.
कमलेश्वर स्मृति कथा पुरस्कार-२०१९ आयोजन में श्रेष्ठ कहानीकार घोषित.
राष्ट्रीय समाचारपत्रों, पत्रिकाओं, आकाशवाणी और डिजिटल मीडिया में हिंदी और अंग्रेजी भाषा में लेखन, प्रकाशन तथा सम्पादन का अनुभव. कविता, कहानी तथा ऐतिहासिक व अन्य विषयों पर लेखन. ब्लागिंग तथा फोटोग्राफी में भी रुचि.

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