अनिमा दास ||
‘मम्मी ‘! एक अंकल आये हैं आपसे मिलने जो कल कॉलेज फंक्शन मेंं मेरी नज़्म सुन कर मुझसे मिले थें । शायद उनका चेहरा आपकी डायरी मेंं रखी उस अखबार की तस्वीर से मिलता है …जो आप कल रात हाथों मेंं लिये सो गई थी …।
इन हसीन वादियों मेंं
चलो खो जाएँ
ओस की मुस्कानों मेंं
गीले हो जाएँ
तुम्हारे शाने पर
मद्धम सूरज की
किरणें होंगीं
मेरे आगोश मेंं
मदहोशियाँ
सहमी होंगीं ….
तुम्हारी ख़ामोशी करेंगी
सरगोशियाँ
सर्द हवा मेंं
कुछ मैं पिघलूंगा
कुछ तुम मचल जाओगी …..
जब भी ये नज़्म सुनती थी …मैं खो जाती थी कल्पनाओं की दुनियाँ मेंं । महसूस करती थी नजदीकियां एक ख़ामोश कमरे मेंं और नज़र ठहर जाती थी बादलों के धीमे कदमों मेंं । मन ही मन मुस्कुरा उठती थी तो मेरे होंठों को जैसे तुम छू कर कहीँ ओझल हो जाते थे और मैं पड़ी रहती अलसाई सी बिस्तर पर ।
काश , वो शाम भी आज की तरह थोड़ी देर गुलमोहर के फूलों मेंं ठहर जाती तो मैं भी गुनगुना लेती जिंदगी को …एक नग्मा मेरी भी तुम्हारे होंठों पर होता ..और तुम भी उस कशिश को सीने मेंं छुपा कर रखते सालों तक । हाँ , मिलन तो हर प्रेम कहानी का सुखद अंत नहीं होता ! ! ! ये कहा था तुमने और तुम्हारी परछाई लंबी साँस लेती हुई दूर तक पसर गई …फीकी हो गई थी । सच मेंं , एक धुआं सा उठ रहा था …दिल के किसी कोने मेंं और आँखें पिघल कर बह गई थी उन वादियों मेंं .उस नज्म को गाती हुई ।
‘मिलन ‘ शब्द को दफ़ना कर उस गुलमोहर की यादों की मिट्टी मेंं …मैं भी बेमन से चली जा रही थी ढलती शाम की ऊँगलिओँ को थाम कर । रात बड़ी वीरान लगी थी उस दिन …और उम्र भी लंबी हो गई थी उस रात की ।
सुबह का अखबार मेंं पहली खबर पढ़ते हुए पापा मेरे कमरे तक पंहुच गये थे । मेरे सिर को सहलाते हुए कहा था , बिटिया, उठ भी जाओ …सूरज तो कब का नहा धो कर रोशनी फैला चुका है …धूप को देखो ..कैसे तुम्हारी खिड़कियों को खटखटा रही है ….अब दिन तो बहुत तेज भाग जाएगा तुम्हारी जिंदगी के कई अनमोल पलों को ले कर …बस तुम यूँ ही नींद मेंं ढूंढ़ती रहोगी शशांक को । शशांक का नाम सुनते ही मैं एकाएक उठ कर बैठ गई । और पापा ने कहा ये देखो अखबार का पहला पन्ना शशांक की तस्वीरों से सराबोर है । निधि , बेटा ! तुमने तो बताया नहीं शशांक IAS ऑफीसर बन गया ! और देखो उसने कहा है कि उसकी सफलता के पीछे सिर्फ़ और सिर्फ़ उसका प्यार ही है जिसने हौसला बढ़ाया है इस ऊंचाई को छूने के लिए । ..निधि , बेटा पर एक बात समझ मेंं नहीं आई …क्या वो तुम्हें प्यार से चंद्रिका बुलाता था ? ? ? मैं …अखबार ले गई पापा के हाथों से छीन कर और कह दिया ..हाँ हाँ ..पापा ..हाँ … मैं बहुत खुश हूँ …! और ऐसा महसूस हो रहा था जैसे खारे पानी से मैं भीग रही थी । पापा , नीरव मुझे एक नज़र देख कर कमरे से बाहर चले गये ।
चंद्रिका ! ! ! कुछ दिन पहले ही शशांक ने मुझे चंद्रिका से केफेटरिया मेंं मिलाया था ये कह कर कि ये गाँव से आई है यहाँ कोचिंग लेने ..मैं व्यस्त रहूँगा कुछ दिन ..हमारे गाँव के सरपंच की बेटी है । मेरे माता पिता के जाने के बाद उन्होंने मुझे शहर भेजा पढ़ने के लिए । आज काबिल हूँ तो इन्हीं के वजह से । बेशक ..तुम्हारे पापा ने मुझे IAS की कोचिंग दिलाई और मेरी मजबूरी को कभी मुश्किल नहीं बनने दिया …और तुम्हारा प्यार मेरे लिए पानी मेंं मीठा पन जैसा । तुम इंतजार करना , चंद्रिका का रहने का इंतजाम कर लूँ ..फिर तुमसे मिलूंगा ।
इंतजार बढ़ता गया …उस गुलमोहर के फूलों मेंं कुछ यादें और वादें सूख कर झर गयें । मैं …शिकायत करना भी भूल गई थी उस दिन । शशांक की सफलता पर गर्व महसूस तो कर ही रही थी और चंद्रिका का हमारे जीवन मेंं अचानक आने ने मुझे स्तब्ध कर दिया था ।
मैं बता भी नहीं पाई थी उस दिन कि उस नज़्म ने मेरे ज़िस्म को छूते हुए मेरे रक्त कणिकाओं को नया जीवन दिया था . और पनप रही थी अनिका ..मेरे कोख मेंं ..जो आज बीस साल की हो चुकी हैं ।
मगर क्यूँ ? आज अचानक इतने सालों बाद ? ? ?
दरवाजा खुला है …खिड़कियाँ भी खुलीं हैं । बस …मेरी साँसें क्यूँ रुक सी गईं हैं ? …
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