डॉ चंद्रिका प्रसाद चंद्र II
महानता के अनेक विशेषणों के बोझ से दबे अपने देश में मुख्यत: तीन राष्ट्रीय दिवस, कर्मकांड की तरह निपटाए जाते हैं। हम परम्परा और कर्मकांड की लम्बी विरासत को ढोने वाले देश के नागरिक हैं। स्वतंत्र भारत ने भी अनेक कर्मकांडों के साथ स्वाधीनता दिवस, गांधी जयंती, और गणतंत्र दिवस के रूप में देश के कोने-कोने में मनाने की परम्परा अधिक पुरानी नहीं है। इन तीन दिनों किसी भी शासकीय कार्यालयों में कोई काम देश भर में नहीं होता। सभी अतीत के इन दिनों का कुछ क्षण के लिए ही सही, स्मरण करते-कराते हैं। संविधान निर्माताओं ने कठोर श्रम करके, संसार भर का संविधान पढ़कर भारतीय संविधान अंग्रेजी भाषा में तैयार किया। अंग्रेज हमारी पूरी पहचान मिटाना चाहते थे, उन्होंने कभी भी भारत को भारत नहीं कहा, हमेशा इंडिया कहा हमारे संविधान निर्माताओं ने देश की भाषा में संविधान न लिख कर अंग्रेजी के सामने, अंग्रेजों के जाने के बाद भी आत्मसमर्पण कर दिया और पहली ही पंक्ति में भारत की जगह ‘वी द पीपुल आफ इंडिया’ लिख कर भारत का संवैधानिक अधिकार छीन लिया, हमने प्रॉपर नाउन का अनुवाद कर दिया। किसी देश या व्यक्ति के नाम का अनुवाद नहीं होता। सूर्य प्रकाश शर्मा ‘सनलाइट शर्मा नहीं होते। कहते हैं कि इंडिया की राजभाषा क्या हो, इस पर काफी हुज्जत हुई।
आजादी के पहले सुभाष चंद्र बोस, महात्मा गांधी, राजगोपालाचारी, लोकमान्य तिलक, जो हिन्दी भाषी नहीं थे, उन्होंने कहा था कि आजादी के बाद की राष्ट्रभाषा हिन्दी होगी। आजादी मिलते ही बीबीसी की अंग्रेजी ब्रॉडकास्टिंग सर्विस ने महात्मा गांधी से अंग्रेज में उनकी ग्रतिक्रिया पूछी, महात्मा ने कहा-दुनिया से कह दो, गांधी अंग्रेजी नहीं जानता, वह अंग्रेजी भूल गया। इंडिया की राजभाषा तो अंग्रेजी ही होनी चाहिए परन्तु राजभाषा समिति में कुछ थोड़े से भारतीय भी थे, शायद उन्होंने उपर्युक्त पूर्व पुरखों का स्मरण कराया हो और बड़े दबाव में, कई दिन के विमर्श के बाद संविधान सभा ने हिन्दी को राजभाषा मानकर पूवर्जों को भाषा संबंधी श्रद्धांजलि दी, गनीमत थी कि हिन्दी का अनुवाद अंग्रेजी शब्दकोश में नहीं था। वहां हिन्दी के लिए आज की ‘ऐन इंडियन लैग्वेज’ लिखा है, ‘नेशनल लैंग्वेज आफ इंडिया’ नहीं। सभा का विवाद सड़क पर आया। तत्कालीन मद्रास के तमिल भाषी उखड़ गए। सामान्य आन्दोलन था, आजादी की खुशी में दब रहा था। वे लोग राजा जी से नाराज थे कि आपने क्यों पर सहमति दी। इच्छाशक्ति की कमी और सबको खुश करने पर विश्वास करने वाले नेहरू ने साल भर के गणतंत्र को राजभाषा नीति पर हिन्दी की जड़ में जो मट्ठा डाला, यह कह कर कि ‘हिन्दी किसी पर थोपी नहीं जाएगी’ उगने के साथ ही हिन्दी का राष्ट्रीय वृक्ष सूख गया, संविधान के सारे किए कराए संघर्ष पर सदा-सर्वदा के लिए पानी फिर गया।
एक नया कर्मकांड 1953 से 14 सितंबर को ‘हिन्दी दिवस’ के नाम से प्रारंभ हुआ। केन्द्र सरकार कुछ वर्षों से राजभाषा मास और पखवाड़ा मनाने का कार्यक्रम केंद्रीय संस्थानों को कराने के लिए निर्देशित करती है। हिन्दी प्रांतों के केंद्रीय संस्थानों में कुछ प्रतियोगिताएं, कुछ संवाद थोड़े सम्मान के कार्यक्रम हो जाते हैं। एक महीने तक पितरों का भूत हम पर सवार रहता है। जबकि हम पितरों का पिंडदान पंद्रह दिन के पखवाड़े से अधिक की परंपरा के आदी नहीं है, परन्तु उन पूर्वोत्तर राज्यों में, जहाँ हिन्दी बोलने वालों को कुछ वर्ष पूर्व मार डाला गया था। जिस तमिलनाडु ने हिन्दी में कुछ पूछने पर समझते हुए भी सही उत्तर न देने की कसम खा रखी है, वहां हिन्दी दिवस’ पर कैसे केंद्रीय संस्थानों में कार्यक्रम होते होंगे, कौन बताए?
जिस देश में पहली कक्षा से अंग्रेजी पढ़ाने की भाषा नीति लागू हो, उस देश में हिन्दी दिवस मनाना नागपंचमी जैसा त्योहार है कि एक दिन नाग भी पूज लो दूसरे दिन से उसकी बिल में मिट्टी का तेल डाल दो, या जहाँ भी दिखे लाठी से पूज दो। भाषा को चाह कर भी लादने का जो काम अंग्रेज नहीं कर सके, वैश्विक बनने के चक्कर में हमारी सरकारों ने पिछले पंद्रह बीस वर्षों में कर दिए। सैकड़ों बोली-भाषाओं वाले इस देश की संपन्नता के बावजूद अंग्रेज़ी शासक और अन्य भाषाएं शासित की तरह सांस ले रही हैं। जन बोलियों एवं संस्कृत साहित्य का भाव समझने के लिए जर्मन विद्वान मैक्समूलर ने फारसी-अंग्रेजी-जर्मन के माध्यम से प्राच्य वैदिक साहित्य का अध्ययन किया। फादर कामिल बुल्के जैसे अनेक अंग्रेज़, रूसी विद्वानों ने अवधी बोली में लिखित ‘राम चरित मानस’ का न सिर्फ पाठ किया, उसे संसार का सबसे बड़ा ‘चरित काव्य’ भी माना। जिस दिन भाषा समाप्त हो जाएगी साहित्य भी समाप्त हो जाएगा। हजारों वर्षों की भाषा संस्कृत, जन-समाज से विलुप्त होकर कुछ संस्कृत मर्मज्ञों के कारण साहित्य अवश्य बचा हुआ है, भाषा तो समाप्त हो गई। हमारे ज्ञान का असीम भंडार अभी भी वैदिक और लौकिक संस्कृत साहित्य में है, परन्तु उसे पुरातन और कर्मकांडी भाषा कह कर हाशिए पर किया जा रहा है। हमारे देश में योग और आयुर्वेद की औषधियों के लिए दुकानें नहीं थीं सब कुछ जीवन के क्रम में, आस-पास थीं। यूनान, गजनी, अफगान मुगल जो नहीं कर सके वह सब सौ वर्षों में अंग्रेजों ने कर दिया। इतिहास को समझने की दिशा बदल दी। अंग्रेजी में कही गई बात को अधिक नंबर देने का मानसिक दबाव, न्यायाधीशों पर पड़ने लगा। लोकतंत्र के पैसठ वर्षों बाद भी हम अपनी भाषा में न्याय नहीं पा सके। हम नहीं जानते कि हमारा वकील क्या कह रहा है। यदि वह हमारी भाषा में बात करता तो हम समझ पाते कि हमारा पक्ष मजबूती से रखा जा रहा है कि नहीं।
विश्व हिन्दी सम्मेलन की परिकल्पना राष्ट्रभाषा प्रचार समिति वर्धा की थी, अहिन्दी मराठी भाषियों की थी। अनंत गोपाल शेवड़े दादा धर्मीधिकारी काका कालेलकर ने राजभाषा के लिए संघर्ष किया। हिन्दी क्षेत्र से राजर्षि टण्डन और सेठ गोविन्ददास ने हिन्दी की लड़ाई लड़ी। सेठ जी ने अकेले संसद में हिन्दी की बात रखीं टण्डन जी ने हिन्दी साहित्य सम्मेलन के माध्यम से हिन्दी को प्रत्येक-प्रांतों में पहुँचाया। विश्व हिन्दी सम्मेलन के नौ आयोजन हुए। सभी सम्मेलनों में साहित्य के विमर्श प्रमुखता से होते रहे। हिन्दी कैसे विश्वभाषा बने इस पर विमर्श तो होता रहा परंतु जिन माध्यमों से हिन्दी सार्वदेशिक हो, वे कार्यकर्ता अनुपस्थित रहते थे। शायद इसलिए विश्व हिन्दी सम्मेलन के इस दसवें अधिवेशन में पहली बार सरकार ने भाषा केंद्रित कार्यक्रम किया। हिन्दी भाषा को ग्लोबल बनाने की बातें तो पहले भी थी लेकिन जिन्हें लागू करना था वे नहीं होते थे। इस बार वे सभी मंत्रालय थे जिन्हें कार्यान्वित करना था, समस्याओं, संभावनाओं की पड़ताल की गई। प्रत्येक सत्रों में विमर्श-सुझाव और निष्कर्ष थे। अधिकतर लोग भाषा साहित्य नहीं बोली का साहित्य समझते हैं। भाषा यदि बची रहेगी तो साहित्य बचा रहेगा अन्यथा संस्कृत भाषा की तरह हिन्दी भी समाप्त हो जाएगी, बचा रहेगा सिर्फ साहित्य। सारे मंत्रालयों में यदि हिन्दी भाषा का प्रयोग होने लगेगा, दृढ़ इच्छा शक्ति के साथ, तो सपनों की खिड़की खुलती दिखती है। शासन की मंशा तो दिखती है, देखे प्रशासन कितना सहयोग करता है। अंग्रेज चले गए, लोकतंत्र के नए शासक आ गए परन्तु प्रशासन की संवैधानिक प्रक्रिया आज भी वही है।
देश भर के सरकारी हिन्दी स्कूलों के छात्र-छात्राओं को और निजी कान्वेंट स्कूलों को देख लीजिए। बुझे-बुझे से दयनीय चेहरों की भाषा पढि़ए, इन चेहरों में उत्साह और भविष्य की संभावनाएं हैं, कहने की जरूरत नहीं है। सरकारी दफ्तरों में हिन्दी और अंग्रेजी में काम करने वालों की हीनतागं्रथि और आत्ममुग्धता का अंतर स्पष्ट दिखेगा। हिन्दी, विश्व में बोलने वाली भाषाओं में दूसरे स्थान पर थी परन्तु हाल ही में प्रकाशित ‘विकीवीडियो’ की रपट में हिन्दी चौथे स्थान पर पहुंच गईं क्योंकि भोजपुरी और मैथिली को देश में हिन्दी से इतर भाषा मान लिया गया। आठवीं अनुसूची में बोलियों की बढ़ती मांग की राजनीति को कौन हिन्दी भाषी रोकेगा? आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ने खड़ी बोली को मानक हिन्दी मान कर उसमें राष्ट्रभाषा का स्वप्न देखा था, उनके वंशजों ने हिन्दी को कहाँ पहुंचा दिया, फिर भी हिन्दी के विकास में ये सामान्य समस्याएं हैं, क्योंकि विविधता में एकता ही हमारी विशेषता मानी गई है। किशोरीदास वाजपेयी का हिन्दी शब्दानुशासन जैसा व्याकरण कहां है, अंग्रेजी ने सरलीकरण और वैश्विक होने के चक्कर में व्याकरण से मुक्ति पा ली।
डॉ चंद्रिका प्रसाद चंद्र की पुस्तक ‘लोक के आलोक में’ से एक अंश
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