कथा आयाम कहानी

वंचित

रण विजय II

ऐसा पहली बार नहीं हो रहा था, पिछले 2-4 वर्षों में यह रीतापन उसे बार-बार महसूस होने लगा था। अशोका होटल के बार में एक कोने में चार दोस्त आज फिर बैठे थे, अँधेरी रोशनी तथा धुएँ से सुगंधित माहौल में। बार की नियति में अँधेरे में रहना ही है। रुक-रुककर कहकहे किसी-न-किसी कोने से आते थे। संसार रोज यहाँ उत्सव-सा ही होता है। आदमी लाख उदासियों का बोझ लेकर आये, पर धीरे-धीरे हलका हो जाता है। पहले हँसकर, और कभी-कभी बेहद करीबी मित्रों से रोकर। परंतु ये हर बार अपना कर्तव्य मुकम्मल (पूरा) करता है। विनीत और उसके अन्य तीन मित्र आज कई वर्षों बाद मिले हैं। इन लोगों ने बैंक की नौकरी अधिकारी के रूप में एक साथ ही ज्वॉइन की थी। इस बात को अब 20 वर्ष हो गये हैं और जिंदगी की दौड़ में भागते-भागते ऑर्गेनाइजेशन बदलते हुए फिर वापस उसी ऑर्गेनाइजेशन में सीनियर पोजीशंस पर आ गये हैं। विनीत ने ज्यादा तरक्की की है पर उसके अन्य मित्र भी ज्यादा पीछे नहीं हैं।

आज दिन में एक ग्लोबल सेमिनार था, बैंकों के भविष्य के ऊपर। जिसमें सम्मिलित होने के लिए ये लोग आये थे। माहौल सुबह से ही बनने लगा था। उन पुराने दिनों की खातिर, यादों को ताजा करने के लिए मिलना ही होगा, रात में। सेमीनार की भीड़ में बहुत सारे परिचित, प्रतिद्वंद्वी और हमराही मिले। जिनके चेहरों पर परिचय की मुस्कान, घृणा, वितृष्णा या पहचान की चमक के पूर्व ही ओढ़ा हुआ रूखा अजनबीपन देखने को मिला। कॉरपोरेट जिंदगी का ये अहम हिस्सा है। मानवीयता का सरोकार तभी तक, जब तक आप मेरे रास्ते में नहीं हैं और यदि आप मेरी प्राप्ति का कुछ साधन हो सकते हैं तो आप पर सारा समय न्योछावर है।

11 बजे के प्रथम टी ब्रेक में विनीत ने गौर किया कि दूर वाले सोफे पर प्याजी सिल्क साड़ी में बैठी हुई स्त्री मानसी ही है। मानसी के एक हाथ में कप था, वही कॉरपोरेट जैसा- सफेद, चौड़ा मुँह वाला। सुंदर, पतली, गोरी बाँहें, स्लीवलेस ब्लाउज में कंधों तक खुली हुई। वो एक अधपकी दाढ़ीवाले व्यक्ति से कुछ यूँ बातें कर रही थी जैसे उनका मिलना-जुलना अक्सर न होता हो, परंतु इस तरह की गैदरिंग में हो जाता हो। उनकी बातों में जबरदस्ती संकुचित हँसने की आवृत्ति काफी थी। वे जल्दी से कहना चाहते थे और हँसना चाहते थे। धैर्य से सुनने वाली आत्मीयता नहीं थी।

वेटर ने अचानक लाकर तमाम तरह के बिस्कुटों की ट्रे उसके मुँह के सामने कर दिया और फिर बड़ी दीनता से मुस्कराया, ”बिस्कुट प्लीज, सर!” विनीत ने साधारण औपचारिक मुस्कान से ”नो थैंक्स” कहकर उसे आगे जाने का इशारा किया। अक्टूबर का महीना था परंतु फिर भी हाल में ए.सी. चल रहा था। सब तरफ कहकहों का शोर था। ज्यादातर बैंक प्रोफेशनल्स एक ही जैसे ड्रेस में थे। सफेद शर्ट, रंगीन स्ट्राइपड टाई, गहरे काले, या ग्रे रंग के सूट और काले जूते। कुछ ही लोग थोड़े इनफॉर्मल कपड़ों में थे, वे शायद बैंक इंडस्ट्री के नामचीन लोगों में से थे, क्योंकि उनके ईद-गिर्द कहकहों का शोर ज्यादा था।

जब आप किसी को लगातार देख रहे हों, तो उसको किसी तरीके से सूचना हो ही जाती है। चाहे आप उसको पीछे से ही क्यों न देख रहे हों। मानसी लगभग उससे 20 फीट दूर बैठी थी और उस हाल में लोग लगातार आ-जा रहे थे। ये हाल कुछ अर्धवृत्ताकार है, जिसका फैलाव काफी विस्तृत है। दीवालों के पास सोफे लगे हुए हैं और कुछ सोफे विपरीत दिशा में यूँ ही रखे गये हैं। 20-25 फीट ऊपर लोहे की मोटी-मोटी पाइपें हैं जो ट्रस बनाकर छत को सँभाले हुए हैं। एयर कंडिशनिंग डक्ट्स से जगह-जगह इस विस्तृत भवन को अंतराष्ट्रीय स्तर के कॉन्फरेंस, सेमिनार करने के लिए बनाया गया है।
मानसी ने नोट किया कि दो आँखें लगातार उसे देख रही हैं। एक पल को नजरें मिलीं फिर जैसे छिटकते हुए हट गयीं। मानसी की मुस्कराहट अचानक लुप्त हो गयी और लगभग वार्तालाप बंद करते हुए वो एक तरफ को तेजी से चली गयी।

चारों ने एक साथ गिलास उठाया और लगभग उद्घोषणा के अंदाज में चीयर्स किया, चीयर्स पुराने दिनों एवं दोस्ती के नाम। चीयर्स इतने जोर से बोला गया था कि आस-पास के लोगों ने मुड़-मुड़कर तीखी निगाहों से देखा कि कौन हुल्लड़बाज यहाँ आये हैं? फिर वही बडे़ शहरों का परिचित जुमला ‘डिसगस्टिंग’ के साथ सिर हिलाते हुए पुन: अपने गिलास में रम गये। नयी उम्र के लोगों ने उत्सुकतावश देर तक देखा और समभाव से मुस्करा दिये।
1997 में 30 लोगों ने एक साथ ट्रेनिंग ज्वॉइन किया था। प्राइवेट सेक्टर के बैंक धीरे-धीरे इस देश में दखल दे चुके थे और सरकारी बैंकों को अच्छी टक्कर दे रहे थे। सभी लोग अच्छी संस्थाओं से एमबीए किये हुए प्रतिभाशाली लोग थे। 20 लड़के, 10 लड़िकयाँ सब 23-28 वर्ष की आयु के लगभग। विनीत, अशोक मंडल, मनोज गांगुली एवं मृणाल खांडेकर-सब प्रथम बार वहीं मिले थे। 6 महीने के ट्रेनिंग में सबकी जिंदगी एक-दूसरे से साझा हो रही थी। ये कहना गलत होगा कि ये सब बहुत अच्छे मित्र थे। सम्भवत: ये कहना सही होगा कि मित्रता करने की उम्र की दहलीज वो पार कर चुके थे। अब सारी चीज रिलेशन ऑफ कन्वेनियंस या गिव एंड टेक की फिलासॉफी से ही चलती थी। 6 माह का समय भी बहुत ज्यादा नहीं होता है, इसके बाद तो सबकी दूर-दूर पोस्टिंग हो गयी।

2002 में जब विनीत की शादी लखनऊ में हुई थी तो उसके कुछ बैचमेट्स उसमें शामिल हुए थे। विनीत-साधना की मैरिज फोटोग्राफ में पीछे उद्दंडतापूर्वक मुस्कराते हुए कुछ लोगों की फोटो दिख जाती है। तब तक काफी लोग शादीशुदा हो चुके थे। इन चारों में से केवल मृणाल खांडेकर ही उस शादी में शामिल हो पाया था। विनीत थोड़ा शांत प्रकृति का व्यक्ति था। वह बोलता कम था। मृणाल शादी के बाद कुछ दिन तक लखनऊ में रुक गया। वह और उसकी पत्नी लखनऊ घूमना चाहते थे। इस दौरान थोड़ा वक्त विनीत और साधना के साथ भी गुजरा। साधना सुंदर लड़की थी, बोलती आँखोंवाली। ऐसा नहीं था कि वह केवल आँखों से ही बोलती थी। वह ऐसे भी दिल की बड़ी साफ तथा एक्स्ट्रोवर्ट किस्म की बातूनी लड़की थी। विनीत के स्वभाव से काफी उलट।
अभी पहला जाम चढ़ रहा था। प्रोफेशनल ईशूज पर बातें शुरू हो चुकी थीं। नौकरी में बढ़ते हुए टार्गेट्स और बिजनेस का प्रेशर सभी लोगों पर था। प्राइवेट कंपनियों में काम करने में एक आम बात यह देखी जाती है कि लोग जल्दी-जल्दी एक संस्था से दूसरी संस्था बदलते रहते हैं। इससे उन्हें अच्छा रेज (बढ़ी हुई तनख्वाह) मिलता है, परंतु उसी के साथ बढ़ा हुआ प्रेशर भी। हर बदलाव और रेज के साथ यह और बढ़ जाता है। इंसानी मशीन बहुत फ्लैक्सिबल और एडजस्टेबल होती है, खासकर अपनी जवानी के दिनों में। यदि एक मेंढक को गर्म पानी में अचानक डाल दो तो वह तुरंत कूदकर बाहर आ जायेगा, पंरतु यदि उसे पानी में डालकर धीरे-धीरे गरम करो तो वह बाहर नहीं कूदता। शायद उसी में मर जाये, पर हमेशा एडजस्ट करने के प्रयास में रहता है। वैसा ही परिवेश आजकल नौकरियों का हो गया है। इतने वर्षों की नौकरी में कई कॉमन बॉसेज सभी के जानने वाले हो गये हैं। उनके बारे में आज चुन-चुनकर चर्चा हो रही है। बॉस की निंदा करना परम आनंद है, यह शाश्वत सत्यों में से एक है। दूसरा है, हर पुरानी नौकरी, वर्तमान नौकरी से अच्छी थी।

बार में आने-जाने वालों का क्रम चलता रहता है। आने वाला हर व्यक्ति अजनबी-सा रहता है, पर जाते वक्त नजर मिलते ही पहचान की मुस्कान देकर जाता है। कुछ लोग तो हाथ हिलाकर और बाय एंड सी यू कहकर भी जाते हैं। इस बीच गिलास में दूसरा पैग आ चुका है। रात में 9-30 बज चुके हैं। अशोक के मोबाइल पर घंटी बजी तो वह फोन पर बात करते-करते बाहर चला गया।
बातों-ही-बातों में मनोज ने पूछ लिया कि लंच में विनीत किस लेडी से बात कर रहा था? विनीत इस पर थोड़ा असहज हो गया। मृणाल और मनोज दोनों ने यह महसूस किया। इसलिए वे उसे और छेड़ने लगे। वास्तव में मॉर्निंग टी ब्रेक के बाद विनीत ने निश्चय किया कि वह मानसी से मिलेगा।

बात दरअसल 2007 के आस-पास की है, जब विनीत का ट्रांसफर भोपाल हो गया था। विनीत का परिवार लखनऊ में बसा है और साधना का भी। साधना एल.आई.सी. में ऑफिसर है। विनीत के भोपाल ट्रांसफर होने से घर अस्त-व्यस्त हो रहा था। उसकी बड़ी बेटी 4 वर्ष की तथा छोटा बेटा 2 वर्ष का था। यह ट्रांसफर अप्रत्याशित था। विनीत के सास-ससुर ने साधना और विनीत से बात की कि या तो वो ट्रांसफर कैंसिल कराये अथवा आस-पास कराये या फिर साधना को भी साथ ले जाये। इतने छोटे बच्चों के साथ साधना का अकेले मैनेज कर पाना सम्भव नहीं है। पर वह अलग ही किस्म का प्राणी था। यदि वह ट्रांसफर पर नहीं जाता तो उसको ये प्रोमोशन छोड़ना पड़ता। भोपाल में उसे उस बिजनेस वर्टिकल का सेकंड लीड बनाया गया था, जो कि आगे बढ़ने के लिए आवश्यक था। साधना को वह यहाँ से इसलिए नहीं ले जाना चाहता था क्योंकि उसके अपने घर में उसके अलावा उसके माँ-बाप की देखभाल करने वाला कोई नहीं था। साधना के होने से उसको निश्चिंतता थी।
शादी के 5 वर्षों में साधना धीरे-धीरे अपने पति को समझने लगी थी। विनीत क्योंकि बोलता कम था, इसलिए उसके बारे में काफी चीजें गुप्त रह जाती थीं। साधना दिन-भर चहकती रहती थी। वह पहाड़ों से निकली उफनती नदी की तरह थी, सब कुछ अपने आगोश में भर लेने को बेताब और सबको अपने साथ चलाती हुई, वह बही जा रही थी। पाँच ही वर्षों में जैसे वह मैदानों में आ गयी हो। ये तो बड़ी ही छोटी अवधि है। नदी नियंत्रित हो गयी, धाराएँ रुद्ध हो गयीं, गोद में अथाह गाद, कंकड़, मिट्टी और न जाने क्या-क्या आ गया। उसकी जीवन-शक्ति का तीव्र ह्रास हुआ। वह कुम्हलाने लगी। उस पर गृहस्थी, दो बच्चों, सास-ससुर की सेवा, और डिमांडिंग नौकरी का चौतरफा भार आ गया।

विनीत की जॉब में टूरिंग बहुत थी। शादी के दो सालों बाद ही लगभग वह महीने में 10-15 दिन छोटी-छोटी अवधियों के लिए टूर पर आता-जाता रहता था। घर के, बाहर के लगभग सभी कार्य धीरे-धीरे साधना की जिम्मेदारी बन गये। उसने साधना को समझा दिया कि भोपाल में वह ज्यादा दिन नहीं रहेगा। शीघ्र ही वह पुन: ट्रांसफर लेकर लखनऊ वापस आ जायेगा। उनके बीच में संवाद शनै:-शनै: काफी कम हो गया था।
विनीत ने भोपाल आकर ज्वॉइन कर लिया। भोपाल शहर लखनऊ जैसा ही था। बोली-वोली थोड़ी अलग थी, परंतु लोगों का रहन-सहन उसी अंदाज का था। इसलिए शहर में उसे एडजस्ट होने में ज्यादा वक्त न लगा। कार्यालय के पास ही एक होटल में उसने अपना ठिकाना बना लिया और लगभग दिन-रात कार्य करने लगा। लखनऊ से लगातार दूर रहने का यह पहला मौका था। महीने में एक संडे को लखनऊ भी बच्चों को देखने चला आता था। साधना ने अपने बिजी वक्त से वक्त निकालकर विनीत को सुबह-शाम फोन करने की कोशिश की। विनीत से बात लगभग 1-2 मिनट में ही खत्म हो जाती। बिलकुल बिजनेस प्रोफेशनल्स की तरह। सामान्य शिष्टाचार में कैसे हो, माँ-पापा, बच्चे कैसे हैं इत्यादि। खाना खाया, क्या खाया जैसे सवाल फिजूल थे। इसका जवाब काफी पहले ही प्रतिबंधित हो गया था। जब विनीत टूर पर जाता था तो केवल एक मैसेज भेज दिया करता था। साधना ने जब-जब जानना चाहा कि कब जाना होगा और कब आना होगा? तब इसका जवाब उसको हमेशा चिड़िचड़ाहट में मिला और जल्दी ही फोन रखवा दिया गया। कभी-कभी साधना ने प्रयास किया कि विनीत उसे भी अपने साथ ले जाये, पर इस बात पर विनीत ने फौरन झिड़क दिया कि ऑफिशियल कार्य में पर्सनल चीजें न घुसाई जायें। जब भी आवश्यकता होगी तो वे लोग अलग से जायेंगे।

मानसी काफी जूनियर कर्मचारी थी। हाल ही में ग्रेजुएट होने के बाद टेंपररी तौर पर उसको भोपाल की एक ब्रांच में रखा गया था। वह लंबी, दुबली और आकर्षक थी। उसके पास ऐसा व्य्त्तितव था कि उससे मिलने पर वह कहीं अंकित जरूर रह जाता था। उसकी ब्रांच पर जब विनीत ने विजिट किया तो ब्रांच हेड की जगह ज्यादातर बातें मानसी ने किया। ऐसा लगता था जैसे कि वहाँ का बिजनेस वही हैंडल करती हो। वैसे यह बड़ी छोटी ब्रांच थी।

छोटी ब्रांच होने के बावजूद वहाँ ठीक-ठाक प्रतिशत में बिजनेस हो रहा था। अनुभवी रसोइये की तरह विनीत को समझते देर न लगी कि पकवान इतना बढि़या कैसे बना है। मानसी विनम्र और आत्मविश्वास से लबरेज थी। उसकी मुस्कराहटों में सम्मोहन था। वह अक्सर मुस्कराती रहती थी। विनीत की यह विजिट कुल 45 मिनट की ही थी, परंतु उसके मन पर एक अमिट छाप छोड़ गयी मानसी।

भोपाल में उसके ऑफिस का नया सेटअप था। बिजनेस प्रॉस्पेक्ट्स देखते हुए बैंक ने यह नया वर्टिकल का रिजनल ऑफिस यहाँ खोल दिया था। उसको अपने ऑफिस में 2 असिस्टैंट्स की आवश्यकता थी जो उसको कॉन्ट्रैक्ट पर रिक्रूट करने थे। उसने सोचा कि अगर मानसी जैसी बुद्धिमान लड़की उसकी असिस्टैंट बन जाये तो उसका काम काफी आसान हो जाये। उसने पहले दिन मानसी के लिए बुलावा भेजा।

पीले रंग का सलवार-सूट, पटियाला स्टाइल का उस पर बहुत फब रहा था। उस पर कंट्रास्ट लाल रंग का सिफान का दुपट्टा घुटनों के नीचे हवा में उड़ रहा था। मानसी हमेशा दुपट्टे को मफलर की तरह रखती थी, एक सिरा आगे और गर्दन में एक लपेट मारकर, दूसरा सिरा पीठ पर पीछे, यह उसका अपना ही अंदाज था और उस पर बहुत सुंदर लगता था। उसको जरा-सा हिंट इस बात का था कि विनीत सर उसको अपने कार्यालय में रखना चाहते हैं। यह उसके लिए एक स्वर्णिम भविष्य के दरवाजे की तरह था और वह इसको किसी भी सूरत में खोना नहीं चाहती थी। उसकी लंबी काया में मात्र मिलीमीटर में ही मांसलता अभी आयी होगी जो उसके बदन को और कमनीय बना देते थे। जब उसने विनीत के केबिन में प्रवेश करने के लिए दरवाजा खोलकर हौले से पूछा-
”मे आई कम इन सर?”
तो विनीत ने सिर उठाकर ऊपर देखा और अपलक देखता रह गया। उसके चेहरे की चमक बढ़ गयी और फिर अचानक याद आया तो बोलने लगा-
”येस प्लीज, कम इन, हैव ए सीट।”
मानसी मुस्कराती हुई आकर बैठ गई। उसने जाना कि बॉस उसको देखकर प्रसन्न हुआ है। विनीत ने थोड़ा सधकर नियंत्रित तरीके से उससे बात करना शुरू किया। मानसी के लिए तत्काल रिजनल ऑफिस में ज्वॉइन करने के लिए आदेश निकाल दिये गये और बैठने के लिए एक केबिन जो कि विनीत के केबिन के पास ही था, शेयर करा दिया गया।

मानसी ने जल्दी ही सीख लिया कि बॉस को काम में क्या चाहिए और किस तरह का चाहिए। मानसी का घर बीना में था, वह भोपाल में एक शेयर्ड अपार्टमेंट में रहती थी। उसके साथ तीन और लड़िकयाँ भी रहती थीं। उसको आने-जाने में असुविधा होती थी। विनीत ने उसको पास ही में एक छोटा अपार्टमेंट लीज स्वीकृत किया। अब मानसी के लिए ऑफिस में देर तक रुकना आसान हो गया। धीरे-धीरे विनीत, मानसी को सभी टूर पर अपने साथ ले जाने लगा। होटल में कमरे दो ही बुक होते थे पर प्रयोग एक ही होता था। मानसी ने अपनी योग्यताएँ दिखाने और सेवाएँ देने में कोई कमी न की। उसने उसका प्रोफेशनल व पर्सनल दोनों तरीकों से खयाल रखा। विनीत की काफी रातें अब मानसी के अपार्टमेंट में ही गुजरने लगीं। मानसी को यह भलीभाँति पता था कि विनीत शादीशुदा है और उसके दो बच्चे हैं। पर उसका कैरियर तो अभी उठना शुरू हुआ था, इसलिए वह इस रेस में आगे बढ़ने के लिए कोई कसर छोड़ना नहीं चाहती थी। भोपाल के 4 वर्ष के प्रवास में मानसी एक एग्जीक्युटिव के पद तक पहुँच गयी और विनीत के पास ही उसको केबिन मिल गया। इस दौरान साधना अपने सास-ससुर और बच्चों की सेवा में ही खटती रही। समय कब इतना आगे बढ़ गया, उसको पता ही नहीं चला। विनीत ने अपने चारों तरफ काम का प्रेशर, ज्यादा बात न करना और गोपनीयता का जो आवरण ओढ़ रखा था, उससे कभी भी यह पता न चला कि इस समय अंतराल में उसकी जिंदगी के साथ क्या-क्या हो गया। 4 वर्ष बाद जब पुन: विनीत का ट्रांसफर होने लगा तो उसने मानसी का भी करवाना चाहा, पर मानसी ने मना कर दिया। उसने अपने माँ-बाप से बहुत दूर जाने से साफ मना कर दिया। वास्तविकता यह थी कि उसको अब विनीत से छुटकारा चाहिए था। उसको विनीत से इतना ही मिल सकता था। ऐसी परिस्थितियों में विनीत ने लखनऊ वापस जाना निश्चित किया और अपना स्थानांतरण लखनऊ करवा लिया।

तीसरा पेग गिलास में सजकर आ चुका था। संकोच का बाँध धीरे-धीरे खुल रहा था। मनोज की आँखों में एक शरारत अठखेलियाँ कर रही थी, उसने सवाल विनीत की तरफ पुन: फेंक दिया।

”वह लंचटाइम में जिससे तू बात कर रहा था वह लेडी कौन थी?”
न बताने का भी कोई कारण नहीं था और ज्यादा बताने का भी।
विनीत ने रूखाई से कहा- ”एजीएम है, आईएनजी वैश्य बैंक में, मानसी
शर्मा नाम है… पहले मेरे साथ काम करती थी, भोपाल में।”
मृणाल ने कमेंट किया- ”सुंदर थी। तब और रही होगी…।”
विनीत चुप रहा।

आज जब लंचटाइम में वह बाहर आया तो बड़ी ही सतर्कता से मानसी को ढूँढ़ने लगा। उसके दोस्त खाने की प्लेटों के पास पहुँच गये थे। पर वह कुछ इस तरह घूम रहा था, जिससे कोई यह भी न कह सके कि वह किसी को ढूँढ रहा है। आखिर उसने लक्षित कर ही लिया कि वह कहाँ है। उसकी चमकती पीठ दूर से ही उसको दिखाई दे गयी। अब वह छोटे बाल रखने लगी है, एग्जीक्युटिव अंदाजवाले जिन्हें बॉब कट भी कहा जा सकता है। वह तीन-चार लोगों से एक साथ बात कर रही थी जो ठहाकों से सजी हुई थी। उसके हाथ में भी खाने की प्लेट थी। उसके पास पहुँचकर विनीत धीरे से बोला-
”हाय मानसी!”

”हलो सर! बहुत दिनों बाद…” मानसी थोड़ी बनावटी-सी मुस्करायी फिर बोली- ”आप तो लखनऊ जाने के बाद हमें भूल ही गये।” और फिर खिलखिलाकर हँस पड़ी। उसकी हँसी को और पुरजोर बनाया साथवालों ने। इस बात से एक टीस-सी हुई। वास्तविकता यह थी कि विनीत ने कोशिश की थी कि रिश्ता कायम रहे, पर मानसी ने ही अनमना व्यवहार किया। ऐसा भी न था कि विनीत को उससे कोई प्रेम था परंतु फिर भी उसको यह रिश्ता कायम रखने में एक लाभ ही था। कुछ महीनों पश्चात् मानसी ने उसके फोन उठाने बंद कर दिये और बाद में बैंक बदलकर वह मुंबई चली गयी। जिसके बाद कॉन्टैक्ट खत्म हो गया। तब से आज तक विनीत को एक पश्चात्ताप रहा, जिसको जमीन से उठाकर उसने बुलंदियों तक पहुँचाया, आखिर उसने उसकी अवहेलना क्यों की? मानसी का मानना यह था कि विनीत केवल उसका माध्यम था, वह जहाँ भी पहुँची वह उसके योग्य थी। विनीत ने उसका प्रयोग जरूर किया है। यह सौदा तराजू के काँटों पर बराबर था, उसके अहसानों का पलड़ा भारी नहीं था।

बहुत औपचारिक तरीके से उन पाँच लोगों का आपस में परिचय हुआ और वैसे ही औपचारिक तरीके से बातचीत हुई। मानसी ने पुरानी अंतरंगता को कहीं भी उभरने न दिया और अंतत: एक्सक्यूज मी कहकर पता नहीं कहाँ चली गयी।

अशोक अभी लौटा ही था, उसको गये हुए 15 मिनट हो चुके थे, उसका दूसरा पेग बनकर रखा हुआ था। आते ही उसने मुस्कराकर कहा- ”अरे यार बीबी का फोन था… वही रोज की बातचीत… कहाँ हो… कौन-कौन मिला… क्या हुआ टाइप्स…”
एक परिचित मुस्कान सभी के चेहरों पर चमक गयी, सिवाय विनीत के। मनोज और मृणाल यह बात लक्षित कर चुके थे कि विनीत मानसी के बारे में बताने से कतरा रहा है। ऐसा लगने लगा जैसे चोर की दाढ़ी में तिनका है। उम्र और दोस्ती के लिहाज से अब इतनी परिपक्तता आ चुकी है, आदमी बड़ी जल्दी अपनी सीमाएँ पहचान लेता है और समय के साथ यह दायरा संकुचित ही होता रहता है। ट्वेंटीज के दिनों में तो अब तक इस बात का बतंगड़ बन जाता। उल्टी-सीधी दोस्ती की कसमें एवं दुहाई देकर सामने वाले को प्रेरित किया जाता, और सामने वाला भी भावुकता की उसी नदी में बहता और आखिर शब्दश: सब बताता। परंतु उन भावनाओं में बड़ी शुद्धता थी। बड़े-बड़े राज बड़ी आसानी से दोस्ती के नाम, लोगों के सीने में दफन हो जाया करते। आज पूछने और बताने वाले, दोनों ने उन वर्जनाओं का अतिक्रमण न करने का फैसला जरूर लिया है, परंतु ये निश्चित है कि अगर बात मालूम हो जाये तो शायद वे लोग उपदेश देने लगें या इसका प्रसार करने लगें या फिर एक वितृष्णा की भावना से ही उसको देखने लगें।

बहुत ही धीमे सुरों में जगजीत सिंह की गजल बज रही थी। लोग बीच-बीच में जगजीत सिंह के साथ सुर-में-सुर मिलाकर गाने लगते थे। कोई-कोई अपनी आँखे बंद करके अपनी गर्दन दोनों तरफ हिलाने लगता था, जैसे कि वह गीत में वास्तविकता में डूब गया हो। मृणाल और अशोक आपस में कुछ बातें कर रहे थे। विनीत ज्यादातर समय मोबाइल में संदेश पढ़ने या भेजने में व्यस्त दिख रहा था।

लखनऊ में 2011 में पदार्पण के पश्चात् विनीत ने दो-तीन बार ऑर्गेनाइजेशन बदला। पिछले पाँच सालों में उसके छोटे-मोटे कई अफेयर बनते-बिगड़ते रहे। जो उसके जॉब के नेचर की वजह से आसानी से हो जाते थे। टूरिंग जॉब में अक्सर उसको अपने साथ असिस्टैंट को लेकर जाना ही पड़ता था। और असिस्टैंट को भी रेज, प्रोमोशन, फेसिलिटीज की परवाह हमेशा रहती थी। घर के बोझ से उसने अपने आपको फ्री कर लिया था और महीने में 12-15 दिन लगभग वह टूर पर ही रहता था।

किसी बात को लेकर मृणाल और अशोक ,मनोज को छेड़ रहे थे। वे ट्रेनिंग के दिनों में उसकी आसक्ति, अलका मजूमदार के बारे में टिप्पणी कर रहे थे। अलका उनके साथ में ही ट्रेनी थी। मनोज अब भी दिल में एक घाव लेकर घूम रहा है। अशोक एवं मृणाल उस घाव को फिर से हरा कर रहे हैं। इस कार्य में विनीत भी स्वभाव के अनुसार आंशिक रूप से शामिल हुआ। मनोज को भी मजा आ रहा था। तीन पैग का नशा आदमी के तमाम सुरक्षा कवच गिरा देता है और फिर वह अपना नेचुरल सेल्फ बन जाता है, तमाम संकोच एवं आदर्शों के आवरण से दूर। इसी बीच में मृणाल का फोन बजने लगा। मृणाल बात करते-करते बाहर चला गया। मनोज अपनी अधूरी एकतरफा प्रेम कहानी के कुछ अज्ञात-अनसुने किस्से सुना रहा था। यह भी एक तरीका है अपने बोझ से हल्का हो जाने का। यादों का बोझ कभी-कभी इतना हो जाता है कि आपको बेनूर कर देता है। आँसू निकलने से यह हल्का नहीं होता, परंतु शब्दों के निकलने से हल्का हो जाता है।
चौथा पैग शुरू हो चुका था। मृणाल अभी-अभी लौटा है। उसने स्वयं बताया कि घर से फोन था, घरवाली का।

सामान्य रोज की बातचीत एवं हालचाल। क्योंकि यह बात किसी के लिए विशेष न थी, इसलिए किसी को कोई भी रुचि न थी। विनीत ने जरूर इस बात पर ध्यान दिया। रात के लगभग 10-15 बज रहे थे। माहौल में खुमारी आ गयी थी। चौथा पैग तेजी से खत्म हो गया। अब बंध खुल चुके थे। हर बात जो होती थी वह लंबी चलती थी। और यूँ लगने लगा था जैसे अपनापन बढ़ गया है। अब वे एक-दूसरे को 20 वर्ष पुराने, प्रिय नामों से संबोधित करने लगे थे, जो उस वक्त इतने प्रिय न थे। पर आज न जाने क्यूँ इतने प्रिय हो गये थे। अशोक के तमाम एडवेंचर की कहानियाँ खुल रही थीं। अशोक की प्रशिक्षण संस्थान की एक महिला प्रो.फेसर पर आसक्ति हो गयी थी। वैसे तो रीता मैडम लगभग 35-40 वर्ष की तभी थीं, परंतु वे सुडौल, सुघड़ तरीके की मेंटेंड थीं और उस उम्र के लोगों के लिए कल्पना स्रोत थीं। उस वक्त के हालात देखते हुए कहा नहीं जा सकता था कि अशोक की भावनाएँ कितनी गहरी थीं? परंतु यह बात उस बैच के कुछ ही लोगों को मालूम थी कि रीता मैडम, अशोक की क्रश हैं। 6 माह का वक्त देखते-देखते निकल गया और उसके बाद जिंदगी ने इस वाकये को हमेशा यादों के झरोखों से ही देखा। अशोक ने कबूल किया कि वह रीता मैडम के चैंबर में उलटे-सीधे सवाल, किताब, नोट्स इत्यादि के बहाने अक्सर जाता था। जो कि कुछ दिनों बाद उन्होंने भी अनुमान कर लिया। पर वो एक उदारमना स्त्री थीं, अशोक की भावनाओं एवं अपनी मर्यादाओं से भली-भाँति अवगत। वो उसको अपनी बातों से सहला भर देती थीं और इसी कोमल अहसास में अशोक लहलहाने लगता था। परंतु प्रकट तौर पर अशोक कुछ कहने की हिमाकत न कर सका। वास्तव में इसका कोई फायदा भी न था जो वह भली-भाँति जानता था।

इस बार मनोज का फोन बजा। मनोज इस रसीले प्रकरण को छोड़ना नहीं चाहता था, उसने फोन काट दिया। मुश्किल से दो मिनट बाद दुबारा बज गया। मृणाल ने मनोज के चेहरे पर आयी सिकन देखकर पूछ लिया कि किसका फोन है। मनोज ने थोड़ी बेचैनी से बताया कि घर से है, बीवी का। अशोक ने ठहाके में कहा-
”बात कर ले भाई, क्यों शामत बुला रहा है अपनी। थोड़ी देर बाद यही टॉपिक फिर कंटीन्यू कर लेंगे।”
इस बार सब तालियाँ मारकर हँसे, इतने जोर से कि आस-पास के लोगों ने पुन: पलटकर देखा। दो बुड्ढे कुछ भुनभुनाने लगे। इस पर विनीत ने हाथ ऊपर कर कुछ सॉरी के अंदाज में बोला और मुस्करा दिया। लोग सही कहते हैं, मुस्कराहट में जादू होता है। और वह भी छुआछूत की तरह फैलती है। वे वृद्ध भी मुस्करा उठे। मनोज फोन लेकर बाहर चला गया। बार में कहकहों एवं संगीत का शोर जारी था।

अब ऐसी ही खिंचाई मृणाल की होनी बाकी थी। मृणाल वैसे सीधा-सादा प्यारा-सा लड़का था। पर वह इकलौता ऐसा था जो ट्रेनिंग के दौरान शांत-सा रहता था। रात में पीसीओ जाकर बात करता था। रात 11 बजे के बाद एसटीडी काल पर दरें चौथाई हो जाती थीं। उसके पीसीओ में घुसने के बाद 30 मिनट तक पीसीओ एंगेज हो जाता था। बाकी लोग उसको डिस्टर्ब नहीं करते थे क्योंकि सब जानते थे कि वह इकलौता भाग्यशाली व्यक्ति था जिसके पास एक गर्लफ्रेंड थी। अंतत: उसकी शादी एक मराठी लड़की से ही हुई। पर अपनी बंगाली गर्लफ्रेंड से उसकी कंटीन्यूटी बहुत दिन चली। अशोक ने मृणाल को छेड़ दिया- ”भाई तेरी मौज रही… तूने भाभीजी को कभी देवाश्री के बारे में बताया? …कहाँ है देवाश्री आजकल?”
”उसको बताया नहीं।” मृणाल ने चौड़ी मुस्कान के साथ कहा, फिर नजरें थोड़ी ऊपर कर ली जैसे किसी अन्य दुनिया में एकदम से रॉकेट से लांच कर दिया गया हो। अशोक ने उसको फिर कुरेदा। चौथा पैग खत्म हो गया था। शरीर हल्का हो चुका था। विनीत ने थोड़ा और मस्का लगाया तो मृणाल खुला। उसने बताया कि ट्रेनिंग सेंटर से निकलने के बाद उसको नागपुर में पोस्ट किया गया था। उसके घर में सभी लोग शुद्ध शाकाहारी थे। माँ-बाप ने सौगंध दे-देकर नया रिश्ता जुड़वा दिया। देवाश्री की भी शादी बाद में हो गयी, वो कलकत्ता में ही जॉब करती है, अब बात नहीं होती। इतना संक्षिप्त विवरण सुनकर कुछ बेस्वाद-सा मुँह बन गया अशोक और विनीत का। परंतु मर्यादाएँ पुन: आड़े आती रहीं। इसलिए चाहकर भी बहुत पर्सनल सवाल नहीं पूछा गया।

मनोज ने वापस आते ही अपना चौथा पैग खत्म कर दिया। और पाँचवाँ पैग मँगवा लिया गया। विनीत बीच-बीच में मोबाइल में कुछ-कुछ लिख देता था या पढ़ता रहता। परंतु अब उसे एक बेचैनी होने लगी। बारी-बारी सभी के घरवालों से अथवा पत्नी से फोन पर बात हुई। उसे तो जब से दिल्ली आया है तब से किसी ने फोन कर हाल-चाल नहीं लिया। न उसने हमेशा की तरह स्वयं से बताया। उसके बच्चों तक का भी फोन नहीं आया। जबकि इन लोगों के बच्चे भी फोन पर बात कर चुके थे और कुछ फरमाइशें बता रहे थे या मम्मियों की शिकायत ही पापा से कर रहे होते। पता नहीं क्यों उसे बाकी दोस्तों के हावभाव से भी कहीं ये खटक रहा था कि इसको किसी ने फोन नहीं किया। तो क्या इसका मतलब ये निकलेगा कि उसकी गृहस्थी मधुर नहीं चल रही है। या लोग उसकी हकीकत जान लेंगे और समझ जायेंगे कि क्यों उसको कोई नहीं याद कर रहा। मृणाल ने पूछ ही लिया- ”साधना भाभी की जॉब कैसी चल रही है?” विनीत ने अति संक्षेप में इतना ही कहा- ”मस्त।” क्योंकि उसके पास ज्यादा कहने को कुछ था नहीं। फिर उसने स्वयं बढ़कर बोला- ”मैं भी अपने घर फोन करके हालचाल ले लेता हूँ।” मेरे घर से फोन आयेगा नहीं, मुझे ही करना पड़ेगा। और फिर बनावटी अट्टहास किया। बाकी तीनों ने भी मुस्कराकर साथ दिया। अशोक ने फौरन टिप्पणी कर दी- ”कामकाजी औरत को फुर्सत ही कहाँ मिलती है? वह आपका घर भी देखती है, बच्चों को भी देखती है और उसके साथ ही इन्वॉल्विंग जॉब भी करती है।”
बात तो ठीक ही थी, परंतु विनीत को भलीभाँति पता है कि साधना या उसके बच्चे उसे फोन क्यों नहीं करते।
फोन लगते ही वार्तालाप शुरू हुआ।

”हेलो…”
”…हाँ जी!” आश्चर्यमिश्रित भाव से।
”अरे मैं सुबह 8 बजे पहुँच गया था…” कुछ फुसफुसाते, खिसियाते हुए विनीत बोला।
”…हूँ!”
”अभी मेरे कुछ दोस्त मिल गये हैं, उन्हीं के साथ कनाट प्लेस में एक बार में बैठे हैं।”
”…पर मुझे क्यों बता रहे हो?”
”…अरे यूँ ही बता रहा हूँ… बताना नहीं चाहिए था क्या?”
”आज तक तो कभी बताया नहीं आपने, कहाँ जा रहे हो? कब आओगे कब पहुँचे? …बच्चों से ही फोन करके पुछवाना पड़ता है, तो आज क्या हो गया?” स्वर में थोड़ी तल्खी थी।
विनीत झुँझलाने लगा-
”अरे बता रहा हूँ तो भी मुसीबत है।”
”अच्छा ठीक है।” साधना सँभलते हुए बोली।
”बच्चे कहाँ हैं?”
”बच्चों को मैं सुला चुकी, सवेरे से स्कूल है।”
”अच्छा…”
देर तक संवादहीनता की शांति रही। ये लम्हा बड़ा भारी लगने लगा। विनीत कुछ निश्चय न कर पाया कि आगे क्या कहे।
”कल लौटूँगा… शाम की फ्लाइट है… 7 बजे तक घर।” सूचना के तौर पर विनीत ने जोड़ा।
”हूँ… ठीक है।” साधना ने तटस्थ-सा जवाब दिया।
”…” पुन: शांति।
”फोन रखूँ?” विनीत ने कुछ पटकते हुए से बोला।
”हाँ ठीक है, रख दीजिये। इतने सालों बाद ये सब जानकर ही मैं क्या करूँगी।”
इसके बाद फोन काट दिया गया। उसकी झुँझलाहट उसके चेहरे पर पड़े बलों से साफ-साफ दिखने लगी। वह बार में नहीं जाना चाहता था। एक सिगरेट जला ली, और ढेर-सा धुआँ निकालकर आसमान की तरफ छोड़ दिया। कुछ बुदबुदाते हुए सिर को झटक दिया।

वह वापस बार के अंदर घुसा। उसकी चिंता की लकीरें देखकर मनोज ने पूछा- ”क्या घर में सब ठीक है?” विनीत जबरदस्ती मुस्कराया और बोल पड़ा- ”हाँ सब ठीक है।” पर बाकी तीनों उसी को देख रहे थे जैसे पढ़ने की कोशिश कर रहे हों। विनीत आगे बोलने लगा कि बीवियों के दिमाग ठिकाने नहीं रहते। ठीक से बात भी नहीं करतीं। इस बात पर थोड़ी खामोशी के बाद सब हँसे। वैसे अन्य तीनों इस बात को मानते नहीं थे, परंतु विनीत की परिस्थितियाँ उनसे अलग हो सकती हैं, ऐसा समझकर हँसने में साथ निभाने लगे। अब विनीत का मोबाइल एक किनारे रख उठा था और फिर उसने बार से निकलकर होटल आने तक मोबाइल उठाया ही नहीं।

अंदर-अंदर यही बार-बार घुटता रहा कि ”आज तक तो बताया नहीं, तो अब क्यों?” तो क्या वो एकाकी जीवन व्यतीत कर रहा है? उसकी चिंता या परवाह किसी को नहीं। माँ-बाप, बीवी, बच्चे कोई भी आजकल नहीं जानना चाहता कि वह कहाँ है, कैसे है? वह कहीं दुर्घटना में मर जाये तो कुछ दिन किसी को पता भी न चलेगा। अब उसे कोई प्यार नहीं करता। वह इतना अवांछित बन गया है कि कोई उसे चाहता ही नहीं। बार-बार यही सवाल दिमाग में चलता रहा कि ”आज तक नहीं बताया, तो अब क्यों?” ”अब जानकर मैं क्या करूँगी?”

ऐसा नहीं है कि इस तरह की फोन न आने वाली घटना आज पहली बार घटी हो। जब भी कभी इस तरह बाहर दोस्तों के साथ बैठना हुआ तब-तब यह महसूस हुआ। परंतु आज दिन के संपूर्ण घटनाक्रम ने उसे कचोट दिया। ऐसा लगा जैसे सभी की भावनाओं की नदी उसके लिए सूख गयी है। वह बिना मंझा की कटी पतंग हो गया है, जिसको लूटने में भी अब किसी की रुचि नहीं रह गयी है। जो साधना, मानसी उस पर जान छिड़कते थे, अब उससे कतराने लगे हैं।

About the author

रण विजय

रणविजय पढ़ाई से इंजीनियर , व्यवसाय से ब्यूरोक्रेट तथा फितरत से साहित्यकार हैं । इनकी प्रारंभिक शिक्षा फैजाबाद में गांव से और कक्षा 6 से 12 तक जवाहर नवोदय विद्यालय, फैजाबाद से हुयी। इसके बाद इन्होने बी. टेक. (इलेक्ट्रिकल) पंतनगर विश्वविद्यालय, उधमसिंह नगर से किया । इन्होने यूपीएससी द्वारा आयोजित सिविल सेवा परीक्षा (आई ए एस 2001) तथा इंजीनियरिंग सेवा परीक्षा (आई ई एस 1999) उत्तीर्ण किया । वर्ष 2000 से वे भारतीय रेल सेवा में कार्यरत हैं। भारतीय रेल में यातायात योजना एवं प्रबंधन, रेल परिचालन, आधारभूत संरचनाओं के निर्माण, अनुसंधान जैसे तमाम महत्वपूर्ण आयामों में अपना योगदान दिया । इस दायित्व निर्वहन में आप ने नासिक, रांची, झांसी, कानपुर ,आगरा और लखनऊ में रेलवे के मंडलों, उपमंडलों,मुख्यालयों के विभिन्न महत्वपूर्ण पदों पर कार्य किया ।
कार्य संस्थान : वर्तमान में वे बनारस विद्युत् इंजन कारखाना में मुख्य विद्युत् अभियंता के पद पर कार्यरत हैं
प्रकाशित पुस्तकें: "दर्द मांजता है" प्रथम कृति जिसे भारत सरकार, रेल मंत्रालय ने "प्रेमचंद सम्मान" से पुरस्कृत किया।
दूसरी कृति कहानी संग्रह "दिल है छोटा सा" है।
तीसरी कृति उपन्यास "ड्रैगन्स गेम" है।
आगामी प्रकाशन: एक उपन्यास और यात्रा वृतांत।

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