ज्योतिष जोशी II
यह बात सच है कि भारत में अंतरराष्ट्रीय नीलाम कम्पनियों के आने के बाद निरंतर कला को व्यावसायिक बनाने की चेष्टा हुई है। क्रिस्ती और सॉदबी जैसी कंपनियों ने जैसे-जैसे भारतीय कलाकारों की कृतियों की कीमतें तय की हैं और उन्हें नीलामी में लिया है, वैसे – वैसे यहाँ कलादीर्घाओं के खुलने में बढ़ोतरी हुई है।कुछ भारतीय दीर्घाओं ने अपनी एजेन्सियाँ भी शुरू कर दी हैं जो कला की दर तय करें और उनकी नीलामी हो । एम. एफ. हुसेन जैसे कलाकार भी क्रिस्ती सॉदबी का गुणगान करते नही अघाते थे और कहते रहे कि इन संस्थाओं ने ही उन जैसे कलाकारों की कृतियों की बड़ी कीमतें तय कीं जिससे वे देश में ही नहीं, विश्व में भी अपनी पहचान बनाने में सफल हो सके ।
इसी धारणा ने भारत में कला को एक विस्तृत बाजार में बदल दिया है जिसमें कला केवल एक ‘बाजारू वस्तु’की तरह देखी जाने लगी है। केवल यदि दिल्ली को ही देखें तो पिछले कुछ ही वर्षों में यहाँ कलादीर्घाएँ जाल की तरह बिछ गई हैं।ऐसी दीर्घाएँ देश के महानगरों में धड़ल्ले से खुली हैं, पर इनका काम कला को संरक्षण देकर विकसित करना नहीं रह गया है, वरन् मोटी कमाई करना हो गया है। दिल्ली में इनकी संख्या में आश्चर्यजनक वृद्धि हुई है। इनमें से अधिकांश कलादीर्घाएँ नए कलाकारों को बड़ी बारीकी से लोभ देकर अपने जाल में फाँसती हैं। उन्हें प्रेरित करती हैं कि वे उनके यहाँ प्रदर्शनियां करें ।कलाकार जब वहाँ प्रदर्शनीकरता है तो उसकी बिकी हुई कृति पर दीर्घाएं तीस से चालीस प्रतिशत तक कमीशन लेती हैं । कई बार कलाकारों की कृतियों तक की कीमत कलादीर्घाएँ ही तय करती हैं। कुछ कलादीर्घाएँ बिक्री से बची कृतियां कलाकारों से प्रदर्शनी के बाद ले लेती हैं और कलाकारों से कहा जाता है कि इनकी बिक्री हो जाने के बाद यहाँ से हिसाब ले लें ।पर महीनों बीत जाने के बाद भी कलाकारों को कृतियों का हिसाब मिलना तो दूर, कलादीर्घाओं के मालिकों के दर्शन भी नही होते ।
इसी प्रसंग में जब एक कलादीर्घा के मालिक से बात की गई तो उसने अपना नाम न छापने की शर्त पर बताया कि ‘उसने कलादीर्घा खोलने में बड़ी पूँजी लगाई है और इसलिए लगाई है कि वह इससे अच्छी-खासी कमाई कर सके । कमाई न हो तो वह इस कलादीर्घा का क्या करेगा, सट्टे में पैसा लगाएगा या कोई धंधा शुरू करेगा। कला की सेवा से उसे क्या लेना-देना। सच पूछिए तो कलाकार क्या-क्या बनाते हैं और उसे कला कहते रहते हैं, मेरी समझ में नहीं आता, हैरानी की बात यह है कि कुछ कलादीर्घाएँ प्रसिद्ध भारतीय कलाकारों की चर्चित कृतियों की नकल बनवाकर विदेशी बाजारों में बेचती हैं और कलाकारों को मामूली पैसे देकर उन्हें नष्ट करने का उद्यम करती हैं। इन दीर्घाओं का विदेशी ऑक्शन कम्पनियों से गहरा रिश्ता होता है और उनकी माँगों का भी वे ख्याल करती हैं। भारतीय लोककला से जुड़ी अनेक माध्यमों की कृतियाँ भी ये दीर्घाएँ औने-पौने दामों में नीलाम करती रहती हैं जिन पर किसी का ध्यान नहीं जाता। कुछ दीर्घाओं का रसूख इतना है कि वे कलाकारों को सरकारी स्कॉलरशिप, फेलोशिप दिलवाने से लेकर अनेक संस्थाओं से पुरस्कार दिलवाने और सांस्कृतिक विनिमय कार्यक्रम के तहत विदेश भेजकर प्रदर्शनियाँ लगवाने तक में समर्थ हैं। अपने इन्हीं प्रभावों की वजह से ये दीर्घाएँ लगातार फूलती-फलती रही हैं और अब तक समानांतर कलाकेन्द्र के रूप में भी उभरी हैं जिनकी कला के बाजार पर भी पकड़ बन रही है।
नया कलाकार भ्रमित है कि वह क्या करे और ये दीर्घाएँ उसके भ्रम को बढ़ाते हुए उसके दोहन का रास्ता बनाती हैं। ऐसी दीर्घाओं के पीछे सरकारी तंत्र तो है ही, बड़े – बड़े कलाकार भी होते हैं, जो उनकी मनमानी पर कुछ नहीं कहते। अब देखना यह भी है कि इनमें से कौन हुसेन, तैयब मेहता, रजा या रामचंद्रन को पीछे छोड़ता है और कब ।
कला में बाजार के प्रभाव और नई-नई तकनीकों का असर यह हुआ है कि आज कला और शिल्प में फर्क करना मुश्किल हो गया है। कम्प्यूटर डिजाइन, डिजिटल प्रिंट से लेकर वीडियो क्लिपिंग और दूसरे अनेक माध्यमों से निर्मित शिल्प तथा दूसरे अनेक अनगढ़ प्रकारों को कला-बाजार में कला का दर्जा प्राप्त होता जा रहा है जो अलग चिंता का कारण है।इस भयानक विकृति में कला की राष्ट्रीय संस्थाएँ भी न केवल नाकारा साबित हुईं हैं वरन वे निहित स्वार्थी तत्वों के हाथों का खिलौना बनकर नकलचियों को असल कलाकार होने का प्रमाणपत्र भी देती हैं।
कला को एक बड़ा बाजार मिले, कलाकारों को उनकी कृतियों का खरीददार, इसमें तो कोई हर्ज नहीं है, पर कला को ही जब बाजार की वस्तु में तब्दील कर दिया जाएगा तो कला के नाम पर क्या बचेगा, यह अवश्य सार्वजनिक चिंता का प्रश्न है । भारत में इस चिंता का वाजिब पहलू यह है कि बहुराष्ट्रीय निगमों के आने के बाद जिस तरह समूची संस्कृति को अपने ढंग से निर्धारित करने की होड़ मची है, वह समय रहते काबू में न आई तो उसके बहुत घातक परिणाम होंगे। हम खुशफहमी में हैं कि हमने अकूत स्वाधीनता अर्जित कर ली है, हम विश्वग्राम में शामिल हो गये हैं। हम अब विश्व-नागरिक हैं, पर हमने यह सोचना जरूरी नहीं समझा कि जब तक हम अपनी बुनियाद को स्थिर नहीं रखते, तब तक हम कहीं के भी नहीं हैं। संस्कृति का प्रश्न हमारे होने से जुड़ा है और कला का हमारी चेतना और संस्कारों से । कला को अगर इसी तरह प्रायोजित वस्तु में बदल दिया गया और कलादीर्घाओं को मनमानी करने की छूट दे दी गई तो एक दिन वे भारतीय आधुनिक कला और समकालीन कला को तो विकृत करेंगी ही, हमारी प्राचीनतम धरोहरों के लिए भी खतरा बन जाएँगी ।
आवश्यक है कि कला को सृजन ही रहने दिया जाय, माँग या उपयोग से उसे तौलने की कोशिश न हो। कलाकार अपनी प्रतिभा से परिकल्पित विषय पर काम करके कृतियाँ सम्भव करें। दीर्घाएँ उसे प्रोत्साहन न दें, उसकी कला को विकसित होने का अवसर दें। और अपनी तुच्छ मानसिकता से ऊपर उठें।
यदि ऐसा नहीं हुआ तो बड़ा अनर्थकारी होगा और नई पीढ़ियों से कला के खत्म होने की जवाबदेही कलादीर्घाओं पर ही होगी। कलादीर्घाएँ अपने को व्यवसाय केन्द्र बनाने से रोककर और अपने अनेक अनर्गल कार्यों को बंद कर एक बेहतर कला-वातावरण के निर्माण में योग दे सकती हैं। पर प्रश्न यह है कि क्या वे इसके लिए तैयार हैं?
कला बाजार की कलाबाजी
आज कला पर बात करना हो,तो आपको उसके बाजार पर पहले बात करनी पड़ेगी। कला की राजनीति और कला का बाजार आज कला से ज्यादा चर्चित है। यह सवाल उठता जरूर है कि आखिर यह कला है किसके लिए। क्या सिर्फ समाज के उस ‘प्रभु वर्ग’के लिए जो कला की समझ के कारण नहीं बल्कि उससे भविष्य में मिलने वाले लाभ के कारण उसे खरीदता है? क्या कला का आम आदमी से कुछ लेना-देना है या फिर यह कला सिर्फ कलादीर्घाओं, कारपोरेट घरानों और अकादमियों में टाँगे जाने के लिए ही है।
वास्तव में ये सवाल कला के बाजार के लिए कोई महत्व नहीं रखते। उसके लिए महत्वपूर्ण है, तो कला से धन की उगाही। कला के अंतर्राष्ट्रीय बाजार ही नहीं, भारतीय बाजार की भी यही स्थिति है। हम कह सकते हैं कि भूमंडलीकरण के इस दौर में भारतीय कला को भी अंतरराष्ट्रीय स्तर पर नियंत्रित करने की कोशिशें जारी हैं। दुख की बात तो यह है कि इन कोशिशों को सफल बनाने के प्रयासों का एक सिराहमारे बुजुर्ग और प्रतिष्ठित कलाकारों से भी जुड़ता है। ये कलाकार हमारे पारंपरिक प्रतीकों का व्यावसायिक इस्तेमाल करने में सिद्धहस्त हैं और कोई-न-कोई विवाद पैदा करके अपनी कला को चमकाना चाहते हैं। उस पर तुर्रा यह कि अपने ऐसे कामों को वे ‘प्रगतिशीलता’से जोड़ते हैं। उन्हें संरक्षण देने और आँख मूँद कर उनके समर्थन में खड़े होने वालों की भी हमारे यहाँ कमी नहीं है। जबकि सच्चाई यह है कि इन कलाकारों की प्रगतिशीलता बहुत सतही होती है और इसका उद्देश्य सिर्फ प्रचार पाना और सुर्खियों में रहना होता है। इससे भी बड़ा लक्ष्य होता है पैसा कमाना। इन कोशिशों से उन्हें तो लाभ होता है, परन्तु कला को होने वाले नुकसान पर वह ध्यान नहीं देते। हमारी कला के लिए यह एक खतरनाक स्थिति है और भविष्य में हमारी कला पर आने वाले संकट का इशारा है।
भूमण्डलीकरण और कला
कला के भूमण्डलीकरण की बात के पीछे झाँके, तो पता चलेगा कि यह सिर्फ ग़रीब देशों की कला को नष्ट करने की साजिश है। जब से क्रिस्ती और सॉदबी जैसे अंतर्राष्ट्रीय निलामघरों ने कला को संरक्षित करने की अपनी तथाकथित मुहिम शुरू की है, उन्होंने कीमत को कला और कलाकार से बड़ा बना दिया है। आज ये अंतर्राष्ट्रीय नीलम घर ही कला और कलाकार की कीमत तय करते हैं। इन्हीं की देखादेखी भारत में निलामघर उग आए हैं, जो अपनी मर्जी से कला को नियंत्रित करनेमें लगे हैं। वे कलाकार को चुनते हैं और उसकी कीमत तय करते हैं। भूमण्डलीकरण की बात उनके लिए सिर्फ एक ढाल है कला को कालाबाजार में पहुँचाने की। सच तो यह है कि हुसेन, रज़ा और तैयब जैसे कलाकारों को इस अंतर्राष्ट्रीय बाजार में जो कीमत मिलती है, वह नए कलाकार को बाजार के हाथों में खेलने के लिए उकसाती है। इसे प्रेरणा कहना गलत होगा। वे देखते हैं कि बड़े कलाकार अपनी खरीद से दुखी नहीं होते । बाजार उन्हें अपनी जड़ों से काट रहा है, यह बात उन्हें परेशान नहीं करती। अपनी जातीय परंपरा से कटने की उन्हें पीड़ा नहीं होती। अंततः नए कलाकार भी इन्हीं रास्तों पर चल पड़ते हैं। लेकिन इस रास्ते पर चलने के जोखिम भी हैं। इसी प्रसंग में मध्य प्रदेश के आदिवासी कलाकार जनगढ़ सिंह श्याम की मृत्यु को याद किया जा सकता है । जापान में जनगढ़ की आत्महत्या कला के बाजार में बैठ जाने से पैदा होने वाली क्रूरता से परदे उठाती है । श्याम मंडला जिले के पाटनगढ़ के बेहतरीन कलाकार थे। उन्हें स्व. जगदीश स्वामीनाथन की खोज माना जाता था। श्याम जापान स्थित मिथिला म्यूजियम, उसके संचालक हासिगावा के निमंत्रण पर जापान गए थे। वहाँ वर्षों तक उनका शोषण हुआ। उनकी कलाकृतियों को बेचकर पैसे बनाए जाते रहे और उन्हें भारत आने से रोका जाता रहा। आखिर में श्याम ने क्षुब्ध होकर आत्महत्या कर ली। क्या यह सच नहीं है कि कला के अन्तरराष्ट्रीय बाजार ने ही श्याम को बंधुआ बनाया और अंततः उनकी जान तक ले ली ? अपने ही देश में जरा गौर करें, तो पता चलेगा कि भूमण्डलीकरण की बातों के पिछले बीस सालों में कला के पारंपरिक केंद्र बदल गए हैं। गाँवों और कस्बों से कला व्यावसायिक नगरों में आ गई है। दिल्ली कला का केंद्र कभी नहीं रही। यही हाल मुम्बई का है। कोलकाता का जरूर अपना कला इतिहास है। आज इन महानगरों में सैकड़ों कलादीर्घाएँ खुल गई हैं। दीर्घाओं के संरक्षक, संचालक शुद्ध व्यवसायी हैं। ये कलाकारों की प्रदर्शनियाँ लगवाने के नाम पर सौदा करते हैं, उनकी कृतियों की बिक्री में कमीशन खाते हैं, वे बड़ी सफाई से कलाकारों के लिए पुरस्कार, फैलोशिप और विदेश यात्राओं की व्यवस्था भी कराते हैं। कलाकार इन्हें कला का संरक्षक मानते हैं। दुखद तो यह है कि अनेक बड़े कलाकार ऐसे कला-व्यवसायियों को पोसते हैं और उन्हें हर संभव सहायता देकर उपकृत करते हैं जब कि सच्चाई यह है कि ये व्यवसायी कला का जितना अहित करते हैं, उतना कोई नहीं करता।
मौलिकता का क्या मतलब
कलादीर्घाओं की व्यावसायिक मानसिकता के विरोध में ही जब 1917 में मार्शल डूसां ने चीनी मिट्टी से एक यूरिनल को न्यूयॉर्क की एक कलादीर्घा में प्रदर्शनी के लिए भेजा था तो विश्वकला में एक बड़ी प्रतिक्रिया हुई थी। डूसां ने अपने जवाब में कहा था कि जब कलाकार से वस्तु की माँग हो रही है जो माँग पर आधारित है तो कलाकृति की मौलिकता का मतलब ही क्या है । उनका यह भी तर्क था कि माँग पर निर्मित कला से अच्छा तो यह ‘यूरिनल’ही है जो सबके उपयोग का है । इसका शीर्षक उन्होंने रखा था ‘फव्वारा’प्रतिरोध की यह प्रक्रिया संग्रहालयों और कला के व्यावसायिक निगमों के विरुद्ध पिछले सौ वर्षों से जारी है ।
संग्रहालय बंद करने की माँग
1970 में अनेक कलाकारों ने न्यूयॉर्क के एक संग्रहालय की सीढ़ियों पर धरना देकर यह माँग की थी कि संग्रहालयों को बंद कर दिया जाए। इन कलाकारों में रॉबर्ट मॉरिस और कार्ल आंद्रे जैसे कलाकार भी थे । लंदन, पेरिस, मास्को आदि नगरों में भी ऐसे प्रदर्शन खूब हुए हैं जिनमें कलाकारों की ‘अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता’और ‘अस्मिता’पर हावी होते बाजार तंत्र का जबर्दस्त प्रतिरोध किया गया है। डाकुमेंटा प्रतिष्ठान, जो विश्वकला की कथित समृद्धि और अंतर्राष्ट्रीय कलासंवाद का एक फोरम है, कई बार कलाकारों का कोपभाजन बना है। कलाकार उससे इसलिए कुपित हो रहे हैं क्योंकि वह उन्हीं अंतर्राष्ट्रीय निगमों के अनुदान पर चलता है जो कला को ‘बाजारू चीज’बना देने पर आमादा हैं।
कमाल पैसे और प्रचार का
समकालीन कला के सामने सबसे बड़े संकट के रूप में दो कारक खड़े हैं- पैसा और प्रचार । भूमण्डलीकरण के दबाव में कलाकारों का एक बड़ा वर्ग बहुराष्ट्रीय कम्पनियों का क्रीतदास बनता जा रहा है । कलाकार को पैसा चाहिए तो निगमों को माँग की कला । इस प्रक्रिया में प्रचार काएक भयानक तंत्र विकसित हो गया है जिसमें प्रचार की नीति अख्तियार कर कलाकार लगातार बाजार का ध्यान आकृष्ट करने में लगा रहता है। यह प्रवृत्ति भारतीय कला में आज मौजूद चार पीढ़ियों में एक साथ विद्यमान है। इससे कला के क्षेत्र में अराजकता की स्थिति पैदा हो गई है।
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