अनुवाद गद्यानुवाद

सीतायन (उपन्यास-अंश-१ )

डाॅ एस ए सूर्यनारायण वर्मा II

जिस प्रकार ‘रामायण’ में मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम के दिव्य चरित्र का वर्णन कई महत्वपूर्ण कथा-प्रसंगों के माध्यम से किया गया। है, उसी प्रकार परम साध्वी सीता के चरित्र को केन्द्र में रखकर “सीतायन” उपन्यास में सीता के चरित्र की गरिमा को निरूपित किया गया है। इसमें महर्षि जनक की पुत्री, भूसुता, वीर्यशुल्का, अयोनिजा, दशरथ की बहू और श्रीराम की धर्म पत्नी के रूप में कारणजन्मा की मौलिकता को अक्षुण्ण बनाए रखते हुए उपन्यासकार श्री बसवपुन्नय्या ने सीता के चरित्र को विकास के कई नये आयाम दिये। राष्ट्र धर्म और मानव धर्म के प्रश्न के नेपथ्य में दशरथ पुत्र श्रीराम ने अपनी धर्म पत्नी को जो दण्ड दिये, उनकी समीक्षा की गई है। इस रचना में शंबूक-वध के मार्मिक प्रसंग की योजना कर तत्युगीन समाज में प्रचलित मान्यताओं की, तटस्थ ढंग से समीक्षा करने में उपन्यासकार को सफलता मिली है। श्री वेलुवोलु बसवपुन्नय्या जी ने रम्य व रसयुक्त कथा-प्रसंगों के साथ सीतायन की कथा को आगे बढ़ाया। डॉ. एस. ए.सूर्यनारायण वर्मा जी ने इस रचना के हिन्दी रूपांतर को अत्यंत सहज शैली में प्रस्तुत किया है। ~मूल भाषा-आंध्र

सीता का जन्म

खुली हुई उस दिव्यमंजूषा में से दिव्य कांतियां  प्रकट हुईं, सबके नेत्र मुंद गए। वह एक अद्भुत दृश्य था। अपूर्व तेज का पुंज था। सबके नेत्रों से वह दिव्य कांति प्रतिफलित होकर उस जनवाहिनी को नक्षत्रमालिका से युक्त आकाश की तरह लगा। अत्यंत नन्हीं, एक सुनहली बच्ची दीख पड़ी शुभ लक्षणों से समन्वित, माथे पर कौस्तुभ तिलक, नारायण का चिन्ह, मुट्ठी में सुंदर पद्म, पूर्णिमा की चंद्रिका जैसी दंतहीन हँसी, सुंदर मीन नेत्र, श्रीसंपन्न मुख-चंद्र, मधुर मंद हासयुक्त शरीर से वह शोभित थी। उस वायुशून्य पेटिका में एक दिव्यपुंज की तरह दिखी बच्ची एक अपूर्व मुहूर्त में आविर्भूत हुई। सभी लोगों ने यह मीमांसा की कि वह किसी देवता का स्वरूप अवश्य है।

उस दिव्यतेजोपुंज के रूप में दीखनेवाली शिशु को देखकर राजा जनक का मन आनंद व आश्चर्य से अभिभूत हो गया। प्रसन्नता के सागर में आप्लावित हो गया। आकाश में से देव-दुंदुभियाँ बज उठीं। देवताओं ने फूलों की वर्षा की। गंधवों ने गान किया। किन्नर किंपुरुषों ने कई बाजे बजाये धरती पर शुभशकुन दीख पड़े नभोमंडल दिव्य कांति से चमका। मलयपवन मधुर रूप से बहा। सूर्यकांति आह्लादयुक्त लगी। शशांक ने दिन में ही मंदहास से भरे होकर मृदु-मधुर चंद्रिकाएँ बिखेर दी।

लंका में अशुभ लक्षण

ऐसा लगा कि रावण की माया से इस धरती को विमुक्ति मिल रही हो। लंका नगरी पर काले मेघ चलते हुए दिखे और गहरा अंधकार फैल गया। लंकावासियों को सूरज फीका दिखा। वायु ने प्रचंड होकर राक्षसों के मन में भय उत्पन्न किया। राक्षसों से दबनेवाले सागर ने उद्दंड रूप धारणकर लंका के प्राकारों को कंपा दिया। पुच्छल तारे लंका पर मंडराने लगे। रावण को दिन में ही स्वप्न में रक्त लेपित शरीर से युक्त शक्तिस्वरूपिणी दीख पड़ी और सिंहनाद किया। रावण भ्रमयुक्त मन से अचानक चौक पड़ा। 

मानव लोक महोन्नत प्रभाओं से शोभित हुआ। गंगा नदी की बाढ़ के समान मिथिला नगर की गलियाँ जनसंकुल हो गयीं। विप्रों ने लक्ष्मीनारायण की स्तुति कर लक्ष्मी की पूजा संपन्न की। वाद्यकारों ने विविध बाजों को बजाकर कानों में अमृत डाला। सारी प्रजा ने दीपावली मनायी जनक का राजनगर दिव्य कांतियों से शोभित हुआ। पुत्रिकोत्सव मनाकर राजा जनक ने स्वर्णदान किया। वस्त्रदान किए। अन्नदान किया। सारे लोगों को जनक ने सम्मानित किया। लाखों गायों, करोड़ों स्वर्ण व रजत आभूषणों को राज्य ने विप्रों व पंडितों को दान में दिया । मिथिला नगरी ने नई शोभा के साथ निराले घूँघट डाले ।

सीता का नामकरण

दस दिनों के उत्सव के बाद राजा के अंतःपुर में झूले में डालने का उत्सव अत्यंत उत्साह के साथ हुआ। नामकरण का उत्सव वैभवपूर्ण ढंग से संपन्न हुआ। हरि के नामस्मरण के साथ, वेदपठन के साथ, वंदिमागधों के स्तोत्रों और सारे लोगों के हर्षातिरेक के बीच, राजा जनक के पुरोहित शतानंद ने उस ईश्वर प्रदत्त शिशु का नाम ‘सीता’ रखा।

जग को श्री-संपन्नता देनेवाली, हरि का मंगल करने वाली सारे लोगों में पूजनीय, हाथों में कमल धारण करने वाली लोक कंटक रावण के वध का कारणजन्या और राजा जनक के लिए अति प्रीति देनेवाली शिशु ने सीता का नाम धारण किया। कारण-जन्मा, अयोनिजा सीता के आगमन से पित्रोत्साह से आनंदित होकर, मन की स्थिति भी भूलकर, चमकते हुए चेहरे के साथ सारे लोगों को अभिवादन देनेवाले जनक तारों में चंद्रमा की तरह दीख पड़ा। विदेह राज्य आनंद सागर में आप्लावित हुआ।

लोक कंटक के वध का मुहूर्त निश्चित हुआ। अपना पूरा समय प्रजा के हित के लिए बितानेवाले राजा जनक के जीवन का अब प्रजा एक भाग है तो सीता दूसरा भाग बन गयी। रत्नखचित सिंहासन पर आरूढ़ होकर भरे दरबार में राजकाज संभालते हुए कार्यक्रम के बीच मन में सीता को देखने की इच्छा कर, तत्काल सभा को छोड़कर सीता के अंतःपुर में जाते थे। ऐसे अनेक संदर्भों में सीता को देखते ही उस पिता का हृदय प्रसन्न होकर उसे जब तक छाती से नहीं लगाते, दिल तब तक शांत नहीं होता। उस शिशु के नन्हे पाँवों को छुए बिना उनका दिल वीणा की तरह नहीं बजता तन्मयता से आँखें नहीं मुंदर्ती सीता जब हँसती, तब नवरत्न दीखते। हृदय में आनंद के राग निकलते। वात्सल्यभरी आँखों के लिए वह इंद्रधनुष है। सीता की इच्छा जनक की आज्ञा है। तुतली बातें कोकिलारव हैं। सीता का रूठना जनक के लिए शराघात है। सीता अगर माँग करती तो पर्वत पर बंदर भी तैयार। गले के चारों ओर नन्हें कमलनाल डालकर, आँखों में आँखें लगाकर, हँसी से दिल में फूल विकसित कर, झूलने वाली सीता के सामने जनक के गले में झुलनेवाली अपूर्व रत्नमालिका सानी नहीं रखती। हर पल में एक दासी, हर काम के लिए एक सखी, बात पर बात, हँसी, में हँसी चुलबुलेपन में काम में आने के लिए राजा के बंधुओं के बच्चे, ज़मीन पर कदम नहीं रखने देते। धूप की गरमी लगने नहीं देते। दौड़नेवाली सीता के आड़े नहीं आते। नीचे डालने वाले नन्हें पाँवों पर चोट नहीं लगने देते। दिल पर सोना, दंतहीन हँसी से दिल पर ठंडी आग का दाग, चेहरे पर सुहावनी सुधारस-धारा ऐसा आनंद उन माता-पिताओं को देने वाली सीता स्वर्गसुख देने वाली पुलकित शरीरवाली है।

सीता के चरण, उसके हाथ और उसके शरीर के अंग-प्रत्यंग को देखकर राजा जनक मुग्ध होते थे। सीता के जन्म लेते ही विदेह राज्य सुसंपन्न हो गया। जनता सुखी एवं संपन्न रही। लोगों ने सीता को महिमान्विता देवी के अवतार के रूप में माना। किसी ने सीता को अपनी पुत्री मानकर उसके प्रति अपने वात्सल्य को प्रकट किया, तो किसी ने उसे एक देवी मानकर उसकी अर्चना की। कारणजन्मा सीता के सौंदर्य की लोगों ने प्रशंसा की। अपनी भाग्य देवता के रूप में उसकी स्तुति की। राजा जनक यह सोचकर प्रसन्न थे कि सीता के जन्म के बाद उसका राज्य श्रीसंपन्न हो गया। चंद्रिकाएँ बिखेरने वाले शशांक के समान मृदु हास करने वाली सीता को देखकर राजा जनक अतीव प्रसन्नता का अनुभव करते थे। सीता के अपूर्व लावण्य को, उसकी व्यवहार-शैली को देखकर वे प्रसन्नता का अनुभव करते थे।

बाल सीता

बाल सीता अत्यंत सुंदर है। मोतियों से भरे चंद्रमा के दाग के समान छोटी सीता के गाल में गड्ढा सुंदर और मधुर है। राजा के बंधुओं के बच्चों के साथ हर दिन की क्रीड़ाएँ सीता के लिए चुलबुलेपन की छायाएँ हैं। भरे सरोवर में कोमल कमलों की तरह, चाँदनी की तरह, उड़ते हुए विहंगम की तरह, खुले पंखों से नाचनेवाले मोर की तरह, चुस्त लड़की की तरह सीता दीखती है। सारे खेलों में वही विजयी रहती है। खेल में हारनेवालों को समझा-बुझाकर शांत करती है। उँगलियों से आँसुओं को अच्छी तरह पोंछती है। ठठाकर हँसती हुई हृदय-तंत्रियों को मीड़ने लगती है। सुंदरता की राशि के समान प्रकाशमान होती है। अयोनिजा तथा वीरशुल्का की तरह सीता पल रही थी। जनक ने सीता को विद्या-बुद्धि सिखाने के लिए पुरोहित शतानंद से प्रार्थना की। अहिल्यापुत्र शतानंद यह जानता था कि सीता कारणजन्मा है और उसे प्रति दिन अंतःपुर में जाकर विद्या-बुद्धि सिखा रहा था। राजा जनक को सीता पर जितना प्रेम था, शतानंद के लिए सीता उतनी ही प्रिय थी।

क्रमशः

About the author

डॉ एस ए सूर्यनारायण वर्मा

डॉ. एस. ए. सूर्यनारायण वर्मा
संप्रति : अनुसंधान वैज्ञानिक
सी
(प्रोफेसर) हिन्दी विभाग, आन्ध
विश्वविद्यालय, विशाखपट्टणम,
आंध्रप्रदेश
संपर्क : sasnvarma@yahoo.com
पुरस्कार : गंगाशरण सिंह पुरस्कार 2010
पुस्तकें प्रकाशित :14
प्रकाशित लेख : विभिन्न पत्रिकाओं में दो
सौ से अधिक लेख प्रकाशित।
सदस्यता : पूर्व सदस्य, हिन्दी सलाहकार
समिति, रक्षा मंत्रालय, नई दिल्ली। पूर्व
सदस्य, हिन्दी सलाहकार समिति, योजना
तथा कार्यक्रम कार्यान्वयन मंत्रालय, नई
दिल्ली।

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